Shiv Puran in Hindi – वायवीय संहिता

The beauty of Shiv Puran in Hindi lies in its ability to convey deep spiritual truths.

Shiv Puran in Hindi – वायवीय संहिता

(पूर्वार्द्ध)

नैमिषारण्य के क्षेत्र में गंगा और यमुना के संगम के स्थल पर एक बहुत बड़े यज्ञ का अनुष्ठान हुआ। उसमें व्यासजी के शिष्य सूतजी भी आए। मुनियों ने सूतजी का स्वागत किया और तत्त्वज्ञान सुनाने की प्रार्थना की। सूतजी ने कहा कि संपूर्ण विद्याओं में चौदह विद्याएं सम्मिलित हैं। ये चौदह-चार वेद, छ: शास्त्र और मीमांसा, धर्म शास्त्र, न्याय तथा पुराण मिलकर होते हैं। इनमें जब धनुर्वेद, आयुर्वेद, गंधर्ववेद और अर्थशास्त्र को मिला दिया जाता है तो ये अठारह हो जाते हैं।

सूतजी ने बताया कि भगवान शंकर इन अठारह विद्याओं के जन्मदाता हैं और उन्होंने सबसे पहले ब्रह्माजी को यह विद्या दी और फिर विष्णुजी को संसार की रक्षा के लिए शक्ति प्रदान की। ब्रह्माजी ने पुराणों का विस्तार किया और फिर अपने चार मुखों से चार वेदों की रचना की। वेदों के बाद सभी शास्त्रों की उत्पत्ति हुई।

विष्णुजी ने वेदशास्त्र का उचित रूप से विस्तार करने के लिए व्यास रूप में अवतार लिया। उन्होंने वेदों को चार भागों में विभाजित किया और फिर चार लाख श्लोकों की रचना करके पुराणों को सामान्य जनों के लिए सुलभ बनाया। एक समय सभी मुनि ईश्वरीय सत्ता के रहस्य को न जानते हुए उसे जानने के लिए ब्रह्माजी के पास गए।

ब्रह्माजी ने मुनियों को बताया कि भगवान शंकर ही एकमात्र परनेश्वर हैं और मैंने उनकी इच्छा से ही प्रजापति का पद पाया है। भगवान शंकर के तीन रूप हैं-स्थूल. सूक्ष्म और सूक्ष्मातिसूक्ष्म। स्थूल रूप देवों को, सूक्ष्म रूप योगियों को और सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप भक्तों को दिखाई देता है। गुरु का बहुत महत्त्व है क्योंकि गुरु की कृपा से साधक के मार्ग की बाधाएं दूर हो जाती हैं।

ब्रहाजी ने ऋषियों से कहा कि ईश्वरीय शिव तत्त्व को जानने के लिए आप लोग यज्ञ का आयोजन कीजिए। यज्ञ की समाप्ति पर आपको शिव तत्त्व का मर्म आवाहित वायु के द्वारा समझाया जाएगा। उसके बाद आप वाराणसी में जाकर शिव-पार्वती की पूजा कर कल्याण के मार्ग को प्राप्त करना। मैं आपको मनोमय चक्र प्रदान करता हूं। आप इसके पीछे-पीछे जाओ, जहां इसकी नेमी टूट जाए वहां पर एक बड़े यज्ञ का आयोजन करो। चक्र नैमिषारण्य में गिरा और वहीं पर यज्ञ किया गया।

यज्ञ की समाप्ति पर वायुदेव प्रकट हुए और उनसे मुनियों ने शिवत्व को समझाने का निवेदन किया। तब वायुदेव ने उन्हें बताया कि श्वेत रूप इक्कीसवें कल्प में विश्व के निर्माण के लिए ब्रह्माजी ने घोर तप करके शिवजी को प्रसन्न किया। शिवजी प्रसन्न हुए और उन्होंने ब्रह्माजी को ब्रह्मज्ञान दिए उस ब्रह्मज्ञान को मैंने

अपने तप के बल पर ब्रह्माजीसे प्राप्त किया। यह ज्ञान पशु, पाश और गते को संज्ञा वाला है। क्षर प्रकृति और अक्षर पुरुष परमेश्वर के द्वारा प्रेरित होते हैं। प्रकृति माया है और इसके मूल कर्म से योग रखने वाला पुरुष है। वह माया से युक्त है और इन सबके प्रेरक परम शिव हैं। यह माया शिवजी की ही शक्ति है। चिद् रूप माया से आवृत्त होने वाला है और आवृत्त करने वाला है शिव के द्वारा उत्पन्न मल। वह कल्पित है। यह चिद्रूप जीव कर्मफल भोगने के लिए माया से आच्छादित होकर मूल आदि से उत्पन्न होता है और मल का विनाश होने पर मुक्त हो जाता है।

पुरुष को ज्ञान उत्पन्न करने वाली शक्ति एक विद्या है। क्रिया उसकी कला है, काल उसका राग प्रवर्तक और देवशक्ति उसका नियमन करने वाली है। सत, रज और तम रूप प्रकृति ही अव्यक्त का कारण है। कला क्रियात्मक है और ईश्वरीय शक्ति को व्यंजित करने वाली है। इससे सुष्टि के पहले अनभिव्यक्ति थी और सृष्टि की दशा में अभिव्यक्ति हुई और उस अभिव्यक्ति में विमोहित आत्मा तीनों गुणों का भोक्ता है। यह आत्मा बुद्धि. इंद्रिय शरीर से अलग है। कारण सहित उसका ज्ञान बहुत कठिन है। आत्मा सर्वत्र व्याप्त होने पर भी देखा नहीं जा सकता और न ही ग्रहण किया जा सकता है। उसका केवल अनुभव ही किया जा सकता है।

यह शरीर दुखों को प्राप्त करते हुए नष्ट हो जाने वाला है। आत्मा अनेक शरीरों में रहता है और एक शरीर के जीर्ण हाने पर दूसरे को प्राप्त कर लता है। यह आत्मा देह से कभी संयुक्त होता है कभी वियुक्त। जो अज्ञानी है वह सुख-दु:ख का विषय होने के कारण स्वर्ग-नरक को जाता है। परमात्मा की प्रेरणा से युक्त पशु अर्थात् जीवकर्ता रूप में दिखाई देता है किंतु वह कर्ता होता नहीं। कर्ता तो परमेश्वर है। परमात्मा क्षर और अक्षर के संयोग से संपूर्ण दृश्य और अदृश्य को प्रकट करते हैं धारण करते हैं और वे र्वयं में विश्व हैं और विश्व के विनाशक हैं।

ये संसार एक वृक्ष के रूप में है। इसमें समान अवस्था वाले जीवात्मा और फ्रमातन निवास करते हैं। जीवात्मा इस वृक्ष के कड़वे-मीठे फल खाता है और सुख-दुः झेलता है। परमात्मा जीवात्मा के रूप को देखता रहता है और दसों दिशाआ में अपने तेज का प्रकाश करता हुआ साक्षी रूप में स्थिर रहता है। यही परब्रह्म है, इसे ही मूनियों ने जाना है। यही परमेश शंकर हैं।

काल की आयु अथवा अवधि का प्रमाण बहुत कठिन है। इसका प्रथम परिमाण निमेष है। १५ निमेषों की एक काष्ठा. ३० काष्ठाओं की एक कला और ३० कलाओं का एक मुहूर्त और ३० मुहूर्तों का एक दिन-रात तथा १५ दिन-रातों का एक पक्ष होता है। दो पक्षों (शुक्ल और कृष्ण) का एक मास होता है। छ: मासों का एक अयन होता है और दो उत्तरायण और दक्षिणायण अयनों का एक वर्ष होता है। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन-रात होता है। इस परिमाण से मनुष्यों के ३६० वर्षो के व्यतीतहोने पर देवताओं का एक वर्ष होता है। देवताओं के वर्ष

स्वायंभुव और सात सार्वानेक) मन्वंतर हैं और इस समय सातवां मन्वंतर चल रहा है। पहले कल्प की समाप्ति पर अग्नि देव ने संसार को जलाया और फिर जल की वर्षा की और सागर बनाया। तब दसों दिशाओं को जल से भरा देखकर पितामह ब्रह्मा नारायण स्वरूप होकर जल के ऊपर सो गए। इसी से उनका नाम नारायण पड़ा। फिर प्रातःकाल मुनियों ने उनकी स्तुति कर उन्हें जगाया। नारायण ने जागकर जब अपने को अकेला देखा तो उन्होंने शिवजी का स्मरण किया और उन्हें यह भी पता चला कि पृथ्वी जल में डूब गई है, तब पृथ्वी के उद्धार के लिए उन्होंने वराह का रूप धारण किया और रसातल से पृथ्वी को निकाल लिया।

जब ब्रह्माजी ने सृष्टि की चिंता की तो सबसे पहले तमोमोह, महामोह, तामिरत्र, अंध्र और अविद्या इन पांचों का प्रादुर्भाव हुआ और फिर बीज कुंभ के समान अंधकार से घिरा हुआ यह जगत दिखाई दिया। उसके बाद आच्छादित आत्मा वाले वृक्ष, पर्वत आदि की सष्टि हुई। उसके बाद उन्होंने नई सुष्टि का विचार किया तो तिरछी चलने वाली सृष्टि हुई। उसके बाद फिर उन्होंने सात्तिव देव सृष्टि की। फिर पितामह ने मानव सृष्टि की रचना की। ब्रह्माजी की पांचवीं अनुग्रह सृष्टि चार तरह से स्थित है, महत सृष्टि, तन्मात्राओं की सृष्टि, वैकारिक सृष्टि और ज्ञान कर्मेन्द्रिय सृष्टि। इसके साथ तिर्यक् स्थावर, देव और मनुष्य सृष्टि मिलाकर आठ सृष्टियां बनती हैं।

इन सगों में ब्रह्माजी ने सबसे पहले सनत्कुमारजी को उत्पन्न किया। उसके बाद उन्होंने फिर बहुत तप किया। बहुत समय तक तप करते हुए और कोई फल न पाते हुए ब्रह्माजी की आंखों में आसू आ गए। उन आंसुओं से प्रेतों की सृष्टि हुई। उसके बाद ब्रह्माजी को बहुत ग्लांनि हुई और उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। तब प्रजापति प्रकट हुए और उनसे ग्यारह रुद्र भी प्रकट हुए और सृष्टि-रचना में प्रवृत्त हो गए। शिवजी ने ब्रह्माजी में प्राणों का संचार किया।

यह सारा रूप महेश्वर से उत्पन्न है। साक्षात् भगवान अनेक रूप धारण करते हैं। और ये तीनों एक-दूसरे से उत्पन्न होते हैं। एक होते हुए भी एक-दूसरे से बड़े होने की होड़ में रहते हैं। शिव से अत्यधिक शक्ति मांगने के कारण ब्रह्मा तप करते हैं। मेघवाहन कल्प में भगवान विष्णु ने देवताओं को १०,००० वर्ष तक सुख दिया जिसे देखकर महेश्वर ने उन्हें सर्वात्म भाव से अव्यक्त शक्ति प्रदान की। जब ब्रहमा अपनी प्रजा में वृद्धि नहीं देखते तो वे शिवजी की शरण में जाते हैं और फिर महेश्वर की इच्छा से काल स्वरूप भगवान रुद्र पुत्र रूप में प्रकट होकर ब्रह्मा को अनुगृहीत करते हैं।

ब्रहाजी ने जब देखा कि मेरी सृष्टि नहीं बढ़ रही है तो उन्होंने मैथुनी सृष्टि करने का निश्चय किया। लेकिन शिव ने नारी जाति को उत्पन्न ही नहीं किया था। तब ब्रह्माजी ने तप किया और शंकर अर्द्धनारीश्वर रूप में प्रकट हुए। उन्होंने ब्रह्मा की मन की बात को जान लिया और एक परम शक्ति देवी को प्रकट किया। उस देवी के सामने ब्रह्माजी ने मैथ्नी सषष्टि प्रारंभ करने के लिए नारी कूल की

उत्पात्ते की मांग की। उस शक्ति से ब्रहाजी ने अपने आधे शरीर से मनु नाम वाले पुत्र को उत्पन्न किया और शेष आधे से शतरूपा नाम की स्त्री को। मनु और शतरूप ने प्रियव्रत और उत्तानपाद नाम के दो पुत्रों तथा आकूति, देवहुति और प्रसूति नामक तीन कन्याओं को उत्पन्न किया। प्रसूति का विवाह दक्ष से और आकूति का रुचि प्रजापति से हुआ। आकूति के यज्ञ और दक्षिणा पुत्र और पुत्री के रूप में पैदा हुए और प्रसूति के चौबीस कन्याएं उत्पन्न हुई।

इनमें तेरह कन्याओं का धर्म के साथ विवाह करने के बाद शेष ग्यारह कन्याओं का भृगु, रुद्र आदि ऋषियों से विवाह कर दिया। दक्ष प्रजापति की पुत्री ही पिता के द्वारा अपने पति के अपमान को न सहन करने के कारण यज्ञ की अग्नि में भस्म हो गई थी। बाद में वही हिमालय के घर प्रकट हुई और कठोर तप करके शिव को पति रूप में प्राप्त किया।

भग ने ख्याति से विष्णु प्रिया लक्ष्मी नाम की एक पूत्री को और धाता; विधाता नाम के दो पुत्रों को जन्म दिया। बाद में धाता. विधाता की परंपरा से सहख्रों पुत्र उत्पन्न हुए जो भार्गव कहलाए। मरीचि ने संभूति से चार पुत्रियों और एक पुत्र को उत्पन्न किया। इसी वश में कश्यप ऋषि उत्पन्न हुए। अंगिरा ने रमृति से आग्नोध और सरभ दो पुत्र तथा चार पुत्रियां उत्पन्न कीं। पुलस्त्य ने प्रीति से दंताग्नि पुत्र उत्पन्न किया जो अगस्त्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

कुछ समय बाद प्रजा बढ़ने लगी और शुंभ तथा निशुंभ नाम के दैत्य पैदा हुए। इन दैत्यों ने देवराज इन्द्र को जीतकर स्वर्ग पर अपना आधिपत्य जमा लिया। इससे ब्रह्माजी बहुत चिंतित हुए और वे शंकर की शरण में आए। भक्तों के अनुग्रह करने पर भोलेनाथ पार्वती के पास पहुंचे और नारी जाति की निंदा करने लगे। पार्वती बोलीं कि यदि आप नारी के निंदक हैं तो मेरे साथ क्यों रहते हैं। और पार्वती ने उनसे तप के लिए जाने की अनुमति मांगी। शिवजी ने उन्हें बहुत समझाया लेकिन उमा को यह भ्रम हो गया कि शिवजी ने उनके कालेपन के कारण नारी का अपमान किया है। उन्होंने बहुत देर तक तप किया और वहां एक सिंह जो पहले उमा के मांस को खाना चाहता था

वह उनकी सेवा करने लगा। इधर दानवों से त्रस्त देवता फिर ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी पावंती के पास आए तब पावेती जी ने उनसे कहा कि शिवजी ने सबसे पहले आपकी उत्पत्ति की। इसलिए आप मेंरे सबसे बड़े पृत्र हुए। और प्रजा की वुद्धि के लिए भगवान शंकर आपके मूख से प्रकट हुए. इस नाते आप मेरे ससुर हुए। और आप मेरे पिता हिमाचल के पिता हैं इसलिए आप मेरे पितामह हुए। मेरे तप का उद्देश्य गौर वर्ण प्राप्त करना है।

ब्रह्माजी ने कहा कि यह रूप परिर्वतन आप अपनी स्वेच्छा से कर सकती हैं। इस समय तो आप शुंभ और निशुंभ को मारने की कृपा कीजिए। पार्वती ने गौरी का रूप धारण किया और वहां उत्पन्न कौशिकी नाम की कन्या अनेक अस्त्र-शस्त्रों का लेकर विंध्याचल की ओर चल दी और उसने शुंभ-निशुंभ का वध किया। इसके बाद गौरी शिवजी के पास लौर्टी। शिवजी ने उनका स्वागत किया, उमा ने कौशिकी और सिंह का शिवजी से पारेचय कराया, तब शिवजी ने कौशिकी को आराध्य देवी के रूप में और सिंह को नंदी के रूप में प्रतिष्ठित किया।

शिवजी के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए ऋषियों ने पूछा कि हे भगवन् यह बताइए कि वेदों में शिव का स्वरूप सर्वथा निर्गुण कहा गया है और उन्हें सगुण भी कहा जाता है तो क्या ये सगुण और निर्गुण रूप जिनमें संसार अधिष्ठित है दोनों एक हैं या अलग-अलग ? एक विचारणीय बात यह है यदि यह परम तत्त्व सब पर प्रेम करने वाला है तो सबको एक साथ मुक्त क्यों नहीं करता ? प्रारब्ध और कर्म दोनों ही ईश्वर प्रदत्त होते हैं। इन दोनों में कौन प्रमुख है ?

मुनियों की बात सुनकर वायुदेव बोले-शिवजी सर्वतंत्र हैं लेकिन स्वतंत्र शब्द का अर्थ निरपेक्ष है। जो व्यक्ति अनुगृहीत को परतंत्र बनाएगा उससे हानि होगी जहां तक सगुण और निर्गुण का प्रश्न है, सगुण के द्वारा ही निर्गुण की प्राप्ति संभव है। लकड़ी में जिस तरह से अग्नि विद्यमान रहती है, दिखाई नहीं देती उसी तरह परस्पर सगुण-निगुण रहते हैं। शिवजी अनुग्रह वाले हैं, निग्रह नहीं। जब कोई दोष करता है तो शिवजी उसे दंडित करते हैं।

यदि शिव अपने ईश्वरत्व को दंड और कृपा से स्थापित न करें तो वे ईश्वर कैसे कहलाएंगे। यदि पापी को दंड न दिया जाए तो वह अधिक पाप करेगा और इस तरह व्यवस्था बिगड़ेगी। मूर्ति में शिव का ऐश्वर्य है शिव का आदेश ही शिवत्व है और उनका हित अनुग्रह। जिस तरह आग सोने को पिघला देती है अंगार को नहीं पिघलाती उसी तरह शिवजी भले व्यक्तियों पर कृपा करते हैं और दुष्टों को दंड देते हैं।

ज्ञान और ऐश्वर्य की विषमता ऊंची और नीची स्थिति का कारण होती है। देवताओं की आठ योनियां अति उत्तम हैं। मनुष्य मध्य योनि में है और पशु की पांच योनियां होती हैं। ऊंची-से-ऊंची योनियों में जाना मनुष्य के अपने वश में है। पशु की आत्मा के भी सत्, रज और तम तीन भेद होते हैं। जो इन सब भेदों और उपभेदों के कर्ता शिवजी की आज्ञा का पालन नहीं करता वह दुःखी रहता है।

ज्ञान दो प्रकार का होता है। परोक्ष और प्रत्यक्ष। जो व्यक्ति अस्थिर होता है उसे परोक्ष और जो स्थिर होता है उसे अपरोक्ष या प्रत्यक्ष कहा गया है। हेतु और उद्देश्य परोक्ष ज्ञान है। अपरोक्ष के लिए अनुष्ठान किया जाता है और तब वह प्राप्त होता है। उसके लिए प्रयत्न जरूरी है। प्रत्यक्ष ज्ञान पाने के लिए और मोक्ष को प्राप्त करने के लिए शिव की आराधना ही प्रमुख है। यह पांच प्रकार की है: क्रिया, जप, तप, ध्यान और ज्ञान। वेदों के अनुसार उत्तम और अधर्म धर्म के दो रूप हैं। इतिहास पुराण सबमें शिव की आराधना को परम धर्म के रूप में माना गया है।

शिव का रुद्र नाम इसलिए पड़ा कि वे दुःख-सुख को दूर करने वाले हैं। उन्हें पितामह इसलिए कहा जाता है कि वे मूर्तिमान पिता है और उनकी सदा से विष्णु नाम की संज्ञा सर्वव्यापक होने के कारण है। वे सर्वज्ञ हैं और किसी अन्य आत्मा के अधीन नहीं, इसलिए परमात्मा है।

शिवजी का व्रत चैत्र पूर्णमासी को किया जाता है। त्रयोदशी के दिन नहा-धोकर आचार्य की पूजा करनी चाहिए और फिर उसकी आज्ञा लेकर वस्त्र धारण करके माला और चंदन आदि को धारण करके कुश के आसन पर बैठकर हाथ में कुश लेकर आजीवन, बारह साल, छ: साल, एक साल, महीने, दिन जितने दिन तक इच्छा हो वह संकल्प करे। इसके बाद पंचाक्षरी मंत्र का पाठ करे और फिर गोबर का एक कुंड बनाकर उसे आग में रखे और जो हविष्य अन्न है उसका भोजन करे। दूसरे दिन भी उसी तरह करना चाहिए।

पूर्णिमा के दिन पहले दो दिनों की तरह पूजा करके दो बार आचमन करके सिर से पैर तक त्रिपुंड लगाकर ओंकार का स्मरण करे। और फिर शिवजी की षोड्शोपचार पूजा करे। पूजा के पहले आवरण में शिव, गणेश और ब्रहा, दूसरे आवरण में विध्नों के नाश करने वाले और तीसरे आवरण में शिव की अष्ट मूर्तियों और चौथे आवरण में गणेश, महादेव का तथा पांचवें आवरण में दिशाओं के स्वामियों का ध्यान करना चाहिए। रात्रे में जमीन पर सोना चाहिए और अपवित्र वस्तुओं से दूर रहना चाहिए।

पुराने समय में व्याघपाद के पुत्र उपमुन्य अपने पहले जन्म से ही सिद्ध थे और किसी कारण से मुनि हो गए थे। एक बार उन्होंने अपनी माता से दूध मांगा तो मां ने बनावटी घोल घोलकर दूध के रूप में दे दिया। जब बालक ने घूंट भरा तब उसने मां से शिकायत की कि यह दूध नहीं है। तब मां ने बच्चे को समझाय? कि दूध तो शिवजी की कृपा से मिलेगा, शिवजी को प्रसन्न करो। मां ने यह भी बताया कि पंचाक्षर मन्त्र का जाप करो। तब उन्हों ने उसे भस्म दी और कहा कि इस भरम से बड़ी-बड़ी विपत्तियां टल जाती हैं। बालक अपने मन में इस बात को धारण करते हुए भूखा ही सो गया। आधी रात में उसने देखा कि दरवाजे पर शिवजी दूध का पात्र लिए हुए खड़े हैं।

उसे लगा कि शिवजी उसे बुला रहे हैं। शिवजी को बाहर समझकर वह बाहर आया पर उसे कुछ दिखाई नहीं दिया। वह फिर भी चलता रहा तो थोड़ी दूर जाकर उसे शिव मंदिर दिखाई दिया और उसने सोचा कि शिवजी इसमें छिपे होंगे अतः वह अंदर चला गया। वहां जाकर शिवलिंग से लिपटकर वह बार-बार पंचाक्षर मंत्र का जाप करने लगा। थोड़ी देर के बाद एक पिशाच उस मंदिर में आया और वह बच्चे को उठाकर पास में पर्वत की गुफ में ले गया।

उसने बच्चे को खाना चाहा लेकिन जैसे ही वह बच्चे को मूंह में डालने लगा वैसे ही एक अजगर ने उसे डस लिया। बच्चे क्र गला सूख गया था फिर भी उसके मुख से शिवजी के मंत्र का जाप चलता रहा। उसका तप इतना प्रभावशाली था कि उससे व्याकुल होकर देवता लोग शिवजी के पास गए और शिवजी ने उन्हे आश्वासन देकर वापस लौटा दिया।

कुछ देर बाद इन्द्र का रूप धारण करके शिवजी उपमन्यु के पास गए और उससे वर मांगने के लिए कहा। तब उपमन्यु बोला कि मुझे शिवभक्ति का वर दीजिए। इस पर शिवजी बोले कि तुम शिव की भक्ति को छोड़कर किसी और दैवता की भाक्त करो और अपने अभीष्ट फल को पाओ। शिवजी की निंट सुनकर बालक उपमन्यु बहुत दुःखी हुआ और क्रुद्ध हो उठा। उसने अपनी भर- को मंत्र पढ़कर इन्द्र के ऊपर फेंक दिया। उपमन्यु की इस भस्म को नदी ने अपने ऊपर ग्रहण किया और शिवजी बालक की तपर्या से प्रसन्न हुए तथा उसे अपने दर्शन कराए। तब उपमन्यु ने प्रसन्न होकर भक्ति का वरदान दिया। वह उपमन्यु वे हैं जिन्होंने श्रीकष्ण को पाशुपत व्रत का ज्ञान दिया जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई।

(उत्तरार्द्ध)

उपमन्यु और श्रीकृष्ण के संदर्भ को संक्षेप में जानकर मुनियों ने उसे विस्तार से जानने की प्रार्थना की। तब वायुदेव ने उन्हें बताया-एक बार श्रीकृष्ण पुत्र की प्राप्ति के लिए मुनियों के आश्रम में गए तो वहां उन्होंने उपमन्यु को देखा। उपमन्यु अपने सारे शरीर पर भस्म लगाए हुए थे। माथे पर त्रिपुंड गले में रुद्राक्ष और सिर पर जटाजूट धारण किये हुए थे।

जब श्रीकृष्णजी ने उनसे प्रार्थना की तो उन्होंने श्रीकृष्ण के शरीर में भस्म का लेपन किया और बारह महीने व्रत कराकर गाशुपत ज्ञान का उपदेश दिया। उपमन्यु को श्रीकृष्ण ने गुरु मान लिया और उसी वकार तप किया जिस तरह उपमन्यु ने बताया था। श्रीकृष्ण के तप से प्रसन्न होकर वार्वती सहित शिवजी प्रकट हुए। श्रीकृष्ण ने दोनों की आराधना की और पुत्र-प्राप्ति 51 वरदान पाया। इस वरदान के फलस्वरूप श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी जांबवती से साम्ब नाम के पुत्र को उत्पन्न किया।

श्रीकृष्ण और उपमन्यु के बीच शिव-भक्ति को लेकर बहुत विस्तारपूर्वक संवाद हुआ। इस सवाद में श्रीकृष्ण ने उपमन्यु से तत्त्वज्ञान समझाने का निवेदन किया धा। उपमन्यु ने श्रीकृष्ण के कहने पर पशु, पांश, बंधन. मोक्ष और पाशुपत आदि का तत्त्व समझाया-

यह सारा जगत शिव की मूर्ति से व्याप्त है और शिव स्वयं अपनी मूर्तियों में व्याप्त हैं। इसके अतिरिक्त यह विश्व ब्रहा, रुद्र. महेश और सदाशिव इन पांचों मूर्तियों में व्याप्त हैं। पांच मूर्तियां और हैं। ईशान, पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजात। इनमें ईशान मूर्ति सर्वप्रधान है। और क्षेत्रज्य कहलाती है। यह मूर्ति गणी. श्रोत्र, शब्द और आकाश की अधिष्ठात्री है। यही मूर्ति मूर्तिमान सथानों की रूपरेखा में पुरुष कहलाती है और वह तत्त्व, हाथ-स्पर्श और वायु की मालिक है।

और वह आख़ी पैर, रूप तथा अग्नि की मालिक है। वामदेव मूर्ति औंकार का आश्रय लेकर रहती है और वायु, रसना. रस तथा जल की अधिष्ठात्री है। सद्योजात मूर्ति मन का आश्रय लिये हुए है और वह नाक. गंध और पृथ्वी की अधिष्ठात्री है। शिवजी की आठ मूर्तियां हैं और इनमें विश्व इस तरह से समाहित है जैसे किसी एक सूत्र में मणियां पिरोई हुई हों। इन मूर्तियों के नाम इस प्रकार हैं-महेश, महादेव, सर्व भव, रुद्र, भीम, उग्र, पशुपति और ईशान। ये अपने-अपने रूप में

चराचर विश्व, चंद्रमा, भूमि, जल, अग्ने, आकाश, वायु, क्षेत्रज्य और सूयं को धारण करते हैं। इस विश्व में महादेवी साक्षात् सती हैं और महादेव शंक्तिमान हैं। शक्तिमान से क्रिया शक्ति से प्रकट होकर नाद बिंन्दु सदाशिव देव, महेश्वर, शुद्ध विद्या, शिव की वाणी शक्ति कहलाती है, और वही वर्ण और स्वरूप में मात्रिका है। फिर उस अनंत के समावेश से भाया, काल, नियति, कला, राग और पुरुष उत्पन्न होते हैं। पुरुषों के साथ उनकी शक्तियां भी उत्पन्न होती हैं और इसलिए ये सारा स्थावर जंगम शक्तिमय हैं। और उसी के योग से शिव शक्ति महत्त्वपूर्ण है। शिव और शिवा के बिना यह जगत उत्पन्न नहीं हो सकता। और शिवा और शिव के स्त्री-पुरुष होने के कारण यह सारा संसार स्त्री-पुरुषमय है।

इस विश्व में सभी पुलिंग महेश्वर हैं और सभी स्त्रीलिंग महेश्वरी की विभूतियां हैं। शिव-महेश्वर और शिवा माया है। यह सत्य है कि संपूर्ण भाव से शिव की शरण में गया हुआ भक्त ही परम तत्त्व को जान पाता है और जो उसे नहीं जानता वह चक्र के समान अनेक योनियों में भ्रमण करता रहता है। शिव सूर्य की कांति के समान अपनी इच्छा को समस्त संसार में प्रकाशित करते हैं।

और उसी के समान स्वाभाविक एकरूपा शक्ति इच्छा, ज्ञान क्रिया आदि के रूप में विद्यमान रहती है। प्रज्ञा, श्रुति और स्मृति स्वरूपा शिवा विद्या है और शंकर विद्यापति। शक्तिमान की शक्ति चराचर ब्रह्मांड को मुग्ध भी करती है और मुक्त भी। शक्तिमान और शक्ति का संबंध अटूट है और मुक्ति लाभ करने के लिए ज्ञान और कर्म की अपेक्षा भक्ति अधिक उपयोगी और लाभदायक होती है। शिवजी की भक्ति से सर्वोत्तम प्रसाद मिलता है।

उस प्रसाद से मुक्ति प्राप्त होती है और मुक्ति से आनंद। भक्ति में भी सेवा भाव से की गई भक्ति अधिक लाभकारी होती है। सेवा दो प्रकार की होती है-सांग और निरंग। जब मन में शिवजी के स्वरूप का चिंतन किया जाता है तो वह मानसिक सेवा होती है और जब पंचाक्षर मंत्र का उच्चारण करते हुए जाप किया जाता है तो वह वाचिकी भक्ति होती है। षोड्शोपचार से की जाने वाली कर्मकांडी पूजा शारीरिक कहलाती है।

श्री कृष्णजी ने उपमन्यु से कहा कि अब आप मुझे वह ज्ञान सुनाने की कृपा करें जो भक्तों का उद्धार करने वाला है और शिवजी ने उसे वेद के सार रूप में दिया है। उपमन्यु बोले-इच्छा होने पर स्याणु, शिव स्वयं आविर्भूत हुए और फिर उन्होंने ब्रह्मा को उत्पन्न करके उसे सृष्टि की रचना का आदेश दिया। ब्रहा ने सृष्टि की रचना की। वर्णाश्रम आदि रचना की व्यवस्था की। उसके बाद उन्होंने यज्ञ के कार्य के लिए सोम को बनाया। सोम से स्वर्ग को और स्वर्ग से विष्णु तथा इन्द्र आदि देवताओं की उत्पत्ति हुई। जब उनका ज्ञान ईश्वर के द्वारा हरण कर लिया गया तो वे देवता उनसे पूछने लगे कि आप कौन हैं तब रुद्र ने अपना परिचय इस प्रकार दिया। मैं ही पूरातन पूरुष हुं सबका नियंता हूं और मूझसे भिन्न कोई नहीं। न कोई

मुझसे बड़ा है और न मेरे समान। यह कहकर रुद्र अंतध्योन हो गए और इससे देवता घबरा गए। देवताओं ने उनकी स्तुति की तब प्रसन्न होकर शिवजी पार्वती सहित देवताओं के समाने प्रकट हुए। तब देवताओं ने उनसे पूछा कि हे भगवन्! आप यह बताएं कि आपकी पूजा की विधि क्या है और आप किस प्रकार प्रसन्न होते हैं और आपकी पूजा का अधिकार किस-किसको है। इस पर शिवजी ने पार्वती की ओर देखा और देवताओं को अपना सर्व तेजमय, सर्वगुण संपन्न आठ बांहों वाला तथा चार मुख वाला स्वरूप दिखाया।

देवताओं ने उनके तेज को अनुभव किया तथा महादेव को सूर्य और महेश्वरी को चंद्रमा समझकर उन दोनों की आराधना की। इसके बाद सूर्य मंडल में स्थित शिव ने देवताओं को सारा ज्ञान समझाकर स्वयं को अंतर्निहित कर लिया। उस ज्ञान से तीन द्विजाति-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को पूजा का अधिकार जानकर देवता लोग स्वर्ग को चले गए। इससे यह सिद्ध होता है कि शूद्रों को शिव की पूजा का अधिकार नहीं। बहुत समय के बाद जब वह शस्त्र विलुप्त हो गया तो परमेश्वरी ने चंद्रभक्ति को कहकर उसे पुनः प्रकट कराया और इस शास्त्र को मैंने अगस्त्य और दधीचि से जाना। फिर हमसे वसिष्ठ आदि मुनियों ने यह ज्ञान प्राप्त किया। इसी परंपरा में योगाचार्य ब्यासजी का अवतार हुआ।

इससे आगे एक अन्य संवाद सुनाते हुए उपमन्यु ने कहा कि एक बार महेश्वरी ने महेश्वरजी से पूछा कि आप बुद्धि वाले और कम शक्ति वाले जीवों पर किस प्रकार अनुरक्त हो जाते हैं ? महेश्वरी का प्रश्न सुनकर महेश बोले कि हे देवी! में ज्ञान, कर्म, जप, समाधि, धन आदि के वश में नहीं होता। में तो केवल प्रेम और श्रद्धा के वश में होता हूं। जो व्यक्ति वर्णाश्रम धर्म को प्रालन करता है उसकी मुझमें श्रद्धा सहज ही हो जाती है क्योंकि ब्रह्मा ने मेरी आज्ञा से ही वर्णाश्रम धर्म की स्थापना की। और इसलिए इसका पालन करना ही श्रद्धा है और उसका उल्लंघन कर देना ही अश्रद्धा है। जो व्यक्ति वर्णाश्रम धर्म का पालन करता है और मेरे बनाये हुए मार्ग से मल माया से मुक्त हो जाता है वह मेरे लोक में स्थान पा लेता है।

ज्ञान, क्रिया, चर्या और योग सनातन धर्म-ये चार प्रमुख पाद है। पशुपति का तत्त्वबोध ज्ञान छ: मार्गों द्वारा शुद्धि, क्रिया, वर्णाश्रम धर्म के अनुकूल मेरी अर्चना, चर्या और मुझमें चित्त लगाकर अन्य वृत्तियों का निरोध करना ही योग कहलाता है। चित्तवृत्ति का निरोध बहुत उत्तम है लेकिन सामान्य प्राणी ऐसा नहीं कर पाता। योग का आधार वैराग्य है। वैराग्य से ज्ञान और ज्ञान से ही योग होता है। योग को मुक्ति के साधन के रूप में जानना चाहिए।

इससे आगे उन्होंने बताया कि मन, वाणी तथा शरीर के भेद से मेरा भजन तीन प्रकार का है। मुझमें मन लगाना, मानसिक भजन कहलाता है, इस भजन को ही तप, कर्म जप, ध्यान और ज्ञान से पंचविद कहा गया है। वाणी द्वारा मेरे नामों का उच्चारण किया जाता है और वह भजन वाणी के रूप का है। त्रिपुंड और चिह धारण करना शारीरिक भजन में आता है। केवल मेरी पूजा करना कर्म के अंतर्गत आता है और मेरे लिए शरीर को कष्ट देना तप के अंतर्गत आता है। ओंकार अथवा पंचाक्षर मंत्र का जाप करना जप के अंतर्गत आता है और मेरा यान शास्त्रों के अर्थ का बोध तथा मेरा रूप-चिंतन ही ज्ञान कहलाता है। हे महेश्वरी! आंतरिक शुद्धि ही सबसे बड़ी शुद्धि है और यह शुद्धि अथवा शुचिता मेरे भजन से ही प्राप्त होती है।

इसके बाद शिवजी ने पार्वती को वर्ण-धर्म बताया। उन्होंने कहा कि क्षमा. शांति, संतोष, सत्य. चोरी न करना, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, वैराग्य भस्म का सेवन करना, तथा निस्संगता-ये दस ब्राह्मणों के लक्षण हैं। इन दस के अतिरिक्त दिन में भिक्षा के लिए जाना और दिन में ही भोजन करना योगियों के लक्षण हैं। सब वर्णों की रक्षा और युद्ध में दुष्टों का दमन करना तथा शत्रु का नाश करना. ब्राह्मण की रक्षा करना क्षत्रिय का धर्म है। इसके अतिरिक्त गो-रक्षा और व्यापार तथा कृषि को संभालना वैश्य का धर्म है और शूद्रों का धर्म है-इन तीनों की सेवा करना।

गृहस्थ का धर्म अपनी धर्मपत्नी में ही रमण करना है। ब्रह्मचारी और यति का धर्म ब्रह्मचर्य पालन करना है। स्र्री का धर्म पति की सेवा है, पति की अनुमति मिलने पर ही स्त्री को चाहिए कि वह मेरा पूजन करे। पति की सेवा को त्यागकर मेरा व्रत करने वाली स्त्री भी नरकगामिनी होती है। विधवा स्त्री का धर्म है कि वह व्रत, दान, तप, पवित्रता बनाए रखते हुए भूमि पर सोए, ब्रह्मचर्य का पालन करे, शरीर पर भस्म का लेप करे, अधिकतम मौन रहे और अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी और विशेष रूप से एकादशी को व्रत और उपवास करे।

उपमन्युजी श्रीकृष्ण से बोले कि हे श्रीकृष्ण! ॐ नमः शिवायः मंत्र ही वेदों का सार है और मुक्ति को देने वाला है। ॐ शब्द में देवाधिदेव, सर्वज्ञ महादेव विद्यमान हैं। नम शिवाय मंत्र में ईशान आदि सूक्ष्म ब्रह्मांड रहते हैं। वाच्यवाचक भेद से इस मंत्र में शिवजी हमेशा रहते हैं। इस मंत्र का जाप करने वाला निष्कलुष होकर संसार को पार कर जाता है। जाप की पांच विधियां हैं-वाचिक, उपांसुक, मानस, सगर्भ, व ध्यान। वाचिक जप का एक गुना और उपांसु जप का सौ गुना तथा मानस जप का हजार गुना फल होता है। सगर्भ मंत्र के आदि और अंत में ॐ का उच्चारण करना लाख गुना फल देने वाला होता है और ध्यान सहित जप से सगर्भ वाले जप के अनुपात में हजार गुना फल होता है।

किसी को वश में करने के लिए पूर्व की तरफ मुख करके जाप करना चाहिए। घात करने के लिए दक्षिण की तरफ मुख करके और धन की प्राम्ति के लिए पश्चिम की तरफ मुख करके तथा शांति पाने के लिए उत्तर की ओर मुख करके जाप करना चाहिए। जपकर्ता का सदाचारी होना आवश्यक है क्योंकि आचारहीन पुरुष लोक में निंदा का कारण होता है।

गुरु का कर्तव्य है कि वह शिष्य की परीक्षा लेकर उसकी शक्ति के अनुसार ही दीक्षा दे और उसका शोधन करे। गुरु गौरव से युक्त होने के कारण ही गुरु है। गुरु में ही शिव का निवास रहता है और शिव ही परम गुरु हैं। दोनों में भेद नहीं है और उनमें भेद करने वाला अनर्थ का भागी होता है।

तत्त्ववेत्ता शिव भक्त गुणवान स्वयं ही अपने शिष्य को मुक्ति प्रदान कर सकता है। यदि एक वर्ष तक गुरु से शिष्य को कुछ विशेष न मिले तो वह दूसरा गुरु कर सकता है लेकिन दूसरा गुरु करने पर भी उसे पहले गुरु की अवज्ञा नहीं करनी चाहिए। जो शिष्य किसी मोह के वश या भ्रमवश भी गुरु के विरुद्ध बोलता है। वह रौरव नरक का भागी होता है। स्त्रियों के लिए विधान यह है कि सधवा पति की आज्ञा से. विधवा पुत्र की आज्ञा से और कन्या पिता की आज्ञा से पूजा करे।

शिव शास्त्र के अनुसार नित्य नैमित्तिक कर्म करने का विधान इस प्रकार है-प्रातःकाल उठकर और शिवजी का ध्यान करे तथा सूर्योदय से पहले ही घर से बाहर जाकर दंत-धावन आदि करके शुद्ध वस्त्रों को धारण करे। इसके बाद शुद्ध और निर्मल स्थान पर बैठकर शिवजी की षोडशोपचार पूजा करे।

पूजा स्थान की पवित्रता बनाए रखने के लिए पवित्र जल से स्थान को धोना चाहिए और फिर पात्रों को शुद्ध करके निर्मल जल भरकर उसमें अक्षत, पुष्प और चंदन आदि डाले। इसके बाद विनायक और नंदीश्वर का पूजन करके शिवलिंग की आराधना करे। फिर पंचगव्य से लिंग को स्नान कराकर चंदन आदि से लेप करके सुंदर वस्त्र जनेऊ, मुकुट और आभूषण आदि भेंट करे। इसके बाद नीराजन पात्र को उठाकर तीन बार शिवलिंग के ऊपर घुमाएं और अंततः शिवजी को प्रणाम करके अपनी त्रुटियों के लिए क्षमा-याचना करे। शिव की पूजा से ब्रह्म का हत्यारा शराबी, चोर, जैसे महापापी भी पापमुक्त हो जाते हैं। वस्तुतः पापियों के उद्धार के लिए एकमात्र मार्ग शिव की पूजा है। शिवपूजा से कठिन मार्ग सरल हो जाते हैं।

उपमन्यु ने कहा कि अब मैं सबसे पहले लोक की सिद्धियों के क्रमों का निरूपण इसमें करता हूं। सबसे पहले हमें यंत्र और मंत्र के अर्थ का ज्ञान करने वाले मंत्र को सिद्ध करना चाहिए और कर्म में बाधा न पड़े। इसका उपाय करना चाहिए। भक्त को चाहिए कि वह पृथ्वी को गोबर से लीपकर उसमें आठ दलों वाला कमल बना सोने और रत्नों की मूर्ति बनाकर स्थापित करे फिर शंकर और पार्वती का आहान करके विल्व पत्रों से पूजा करे।

भक्त को चाहिए कि वह महादेव और पार्वती को श्वेत चंदन के जल से स्नान कराकर सफेद फूलों से उनकी पूजा करे फिर अपनी सामर्थ्य के अनुसार रत्नों से जटित शिवलिंग की स्थापना करे। फिर आरती उतारकर उसकी परिक्रमा करे। इस तरह पांच प्रकार की गंध से पूजा करने वाला मनुष्य शिव के लोक को पाता है।

एक समय विष्णुजी और ब्रह्मा में इस बात पर विवाद हो गया था कि उन दोनों में बड़ा कौन है। तब अनायास ही सहस्रों अग्नि ज्वालाओं से प्रकाशित एक दिव्य लिंग प्रकट हुआ जिसे देखकर वे आश्चर्यपूर्वक ऊपर-नीचे घूमने लगे पर उन्हें १००० वर्ष तक उसका पता नहीं चला। फिर उन्होंने उसी को आत्मा समझकर प्रणाम किया और अपना विवाद समाप्त किया।

ब्रह्मा और विष्णु दोनों ही उसे देखकर मोहित हो गए थे और उन्होंने उस लिंग की स्तुति की जिससे महादेवजी प्रसन्न हुए और प्रकट होकर उन्होंने बताया कि तुम दोनों मेरी माया से मोहित हुए हो और अपने-आपको भगवान समझ रहे हो। तुम्हारा अभिमान नष्ट करने के लिए ही मैं लिंग रूप में प्रकट हुआ हूं।

महादेव लिंग रूप की प्रतिष्ठा शुक्ल पक्ष में किसी भी दिन अपने अनुकूल लिंग निर्माण करके करनी चाहिए। गणेशजी का पूजन, स्नान और पांच स्थानों की मिट्टी तथा पंचगव्य द्वारा लिंग को स्नान कराना चाहिए फिर वेदों के साथ पूजन करके उसे जलाशय में ले जाकर अधिवासन करना चाहिए। हे श्रीकृष्ण! योग के मार्ग में भी अनेक बाधाएं आती हैं। सामान्य रूप से आलस्य, रोग, संशय, अहंकार चित्त का भटकना आदि विघ्न आते रहते हैं। साधक को इन्हें शांत करना चाहिए।

योगीजन हमेशा भगवान शंकर का ध्यान करते हैं और उसी से उन्हें अंतःकरण की शुद्धि प्राप्त होती है और सिद्धि मिलती है। मन का एकाग्र होना आवश्यक है और प्राणायाम से मन शांत होता है। शिवजी प्रसन्न होते हैं जिससे ज्ञानी और ध्यानी पुरुष संसार से पार हो जाता है। उपमन्यु की कथा को सुनाने के बाद सूतजी मुनियों से बोले कि हे मुनियो! उपमन्यु ने श्रीकृष्ण को ज्ञान योग समझाया और उस ज्ञान योग को वासुदेव ने मुनियों को सुनाया।

ज्ञान योग सुनकर मुनि लोग वासुदेव के प्रति नतमस्तक हुए और उसके बाद एक दिन प्रातःकाल सब नैमिषारण्य निवासी मुनियों ने सरस्वती में स्नान किया और फिर अपने-अपने धाम को चले गए। वहां जाकर उन्होंने गंगा का दर्शन किया और विश्वनाथजी के दर्शन से आनंद की प्राप्ति की। उस समय उन्होंने वहां एक तेज प्रकाश देखा जिसमें असंख्य पाशुवृत को धारण करने वाले मुनि थे। वे जल्दी ही जल में विलीन हो गए। यह देखकर सभी ब्रह्माजी के पास पहुंचे और ब्रह्माजी ने उन्हें सनत्कुमारजी के पास सुमेरु पर्वत पर ज्ञान-अर्जन करने के लिए भेज दिया।

सूतजी बोले कि हे मुनियो! सुमेरु पर्वत पर सभी मुनि पहुंच गए और वे सनत्कुमारजी के पास गए। वहां एक सुंदर तालाब के किनारे सनत्कुमारजी समाधि में लीन थे। मुनि लोग वहीं बैठ गए और जब उनकी आंख खुली तो उन्होंने मुनियों के आने का कारण पूछा। मुनियों ने सारा वृत्तांत सुनाया तब वहीं भगवान शंकर के गण और नंदीश्वर भी आ गए। वहां उन्होंने मुनियों को देखा और ज्ञान का उपदेश दिया और वहां बताया गया कि यह परम ज्ञान वेद सनत्कुमारजी ने व्यासजी को सुनाया और व्यासजी ने मुझे यह ज्ञान दिया और अब यह ज्ञान मैंने आप लोगों को सुना दिया है। शिवपुराण की कथा अनन्य फलदायिनी है। जो इसे सुनता है और शिवलिंग की स्थापना करके पूजा करता है उसे भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

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