The recitation of Shiv Puran is believed to bring inner peace and spiritual growth.
Shiv Puran in Hindi, Shiv Puran Ki Katha – पुराणों में शिव पुराण का महत्त्व और माहात्म्य वर्णन
आज के जीवन में पुराणों में वर्णित घटनाओं पर विश्वास करना एक बौद्धिक व्यक्ति के लिए तर्कसंगत नहीं माना जाता। किंतु भक्ति-भाव की दृष्टि से तर्क का कोई महत्त्व नहीं होता और न हमें इन पुराणों को तर्क की दृष्टि से सोचना-विचारना है। इनमें केवल भक्ति के भाव की पुष्टि होती है। उससे संतोष प्राप्त होता है और मन से अनेक दोष निकल जाते हैं तथा मन स्वच्छ हो जाता है।
हमारे यहां पुराणों में शिव पुराण का महत्त्व सबसे अधिक है। इस पुराण में वेदांत और विशिष्ट ज्ञान से परिपूर्ण लौकिक और पारलौकिक मनोरथ को पूर्ण करने की शक्ति है। पारलौकिक सत्ता के विषय में आज हम कुछ भी कहीं लेकिन विराट् प्रकृति, ब्रह्मांड और लाखों मील प्रति सेकंड की रफ्तार से भागने वाले ग्रह-उपग्रहों की स्थिति जितनी भी हम जानते हैं, उससे एक बहुत बड़े रहस्य की सृष्टि होती है। इस रहस्मय संसार में केवल आसथा से ही इन सब बातों पर विचार किया जा सकता है।
- विद्येश्वर संहिता
- रुद्र संहिता
- शतरुद्र संहिता
- कोटिरुद्र संहिता
- उमा संहिता
- कैलास संहिता
- वायवीय संहिता
हमारे आदि देव कौन हैं इस पर हमारे यहां कभी विवाद नहीं हुआ। ब्रह्मा, विष्णु, महेश सभी आदि देव हैं। ब्रह्मा सृष्टि के उत्पादक हैं, विष्णु पालक हैं, और शिव उसका रूपांतरण करने वाले या समाप्त करने वाले हैं। अर्थात् यह एक ही मूल शक्ति है जो तीन विभिन्न रूपों में कार्य करती है। एक समय शक्ति का एक रूप दूसरे समय दूसरा रूप हो जाता है। शिव शब्द की महत्ता ही हमारे जीवन में कई रूपों में है। शिव का तात्पर्य है कल्याणकारी और जो शिव नहीं, वह कल्याणकारी नहीं है। शिव में सत्य और सुंदर उपयोगी आदि सभी कुछ आ जाता है। संसार में शिवत्व की प्राप्ति ही मनुष्य का परम लक्ष्य है।
एक बार सारे सिद्धांतों को जानने वाले, तत्त्व के ज्ञानी, सूतजी से शौनक जी ने प्रार्थना की कि वे उन्हें पुराणों का सार बताने का कष्ट करें। पुराणों के श्रवण से मनुष्य के मन का मैल धुल जाता है। शौनक जी ने कहा कि कलियुग में अल्पायु और दुष्ट व्यक्ति अपने कल्याण का कोई मार्ग नहीं देखते, लेकिन इनके मन को शुद्ध करने का भी कोई उपाय होना चाहिए: इसलिए हे प्रभु! आप शिव पुराण के विषय में विस्तार से बताइए। महादेव शंकर का स्वयं स्वरूप यह शिव पुराण मनुष्य की चित्त-शुद्धि का उत्तम उपाय है। किसी भी आसक्ति और पुराणों के सुनने-पढ़ने में प्रेम का आविर्भाव भाग्य से ही होता है। शिव पुराण का पठन-पाठन अनेक राजसूय यज्ञों से प्राप्त होने वाले फल के समान होता है। शिव पुराण का पारायण करने वाले भक्त स्वयं शिव रूप हो जाते हैं। मुनिगण शिव पुराण के वक्ता और श्रोता के चरणों को भी तीर्थ के रूप में मानते हैं।
सूतजी ने कहा कि हे शौनकजी! जो व्यक्ति मुक्ति चाहता है उसे पुराणों का पठन-पाठन करना चाहिए। यह पुराण स्वयं शंकरजी के मुख से अमृत रूप में निकला है। शिव पुराण को पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति अपने कुल को भी अमृतत्त्व प्रदान करता है। सूतजी बोले कि इस पुराण में २४ हजार श्लोक और ७ संहिताएं हैं-इनमें शिवजी से संबंधित विभिन्न घटनाओं का चित्रण
(१) विद्येश्वर संहिता-इस संहिता में विशेष रूप से शिवजी की भक्ति के आधार पर शिव-लिंगों की स्थापना, शिवजी के विभिन्न कर्म, शिवजी की महत्ता, रुद्राक्षों की उत्पत्ति आदि के विषय में बताया गया है।
(२) रुद्य संहिता-इसमें सृष्टि-खंड, सती-खंड, उमा-खंड, कुमार खंड, युद्ध-खंड का विस्तृत वर्णन मिलता है। वस्तुतः यह संहिता ही बहुत व्यापक रूप से शिवजी के अलौकिक कार्य भक्तों के सामने वर्णित करती है।
(३) शतरुद्र संहिता-इस संहिता में शिवजी के विभिन्न अवतारों, उनके विभिन्न रूपों की लीलाओं का वर्णन किया गया है। शिवजी के १० प्रमुख नामों का वर्णन भी इस संहिता में मिलता हैं।
(४) कोटि रुद्न संहिता-इस संहिता में महादेव के विभिन्न रूप, नाम और ज्योतिर्लिंगों के विषय में बताया गया है। किस-किस प्रमुख घटना के कारण ज्योतिर्लिंग की स्थापना हुई और किस रूप में महादेव के अनेक नाम पड़े इसका विस्तृत वर्णन इस संहिता में है।
(५) उमा संहिता-इस संहिता में उमा से संबंधित अनेक द्वीपों के विभिन्न वर्णन मिलते हैं। सृष्टि विषयक चिंतन भी मिलता है।
(६) कैलास संहिता-इस संहिता में शिवजी का आदि मूल बीजरूप का चित्रण मिलता है और उसके साथ ऋषि-मुनियों से संबंधित द्वैत-अद्वैत चिंतन आदि के विषय में विस्तार से विचार किया गया है।
(७) वायवीय संहिता-इस संहिता में सूतजी ने ऋषियों को यज्ञ रूप ज्ञान के साथ संसार का रचनाक्रम आदि बताया है। सृष्टि की उत्पत्ति और अन्य ऋषि-मुनियों से संबंधित ऐसे छोटे-छोटे कथानक भी इस संहिता में हैं, जिनका संबंध किसी-न-किसी रूप में शिवजी से जुड़ता है।
सात संहिताओं वाला यह शिव पुराण सभी भक्तों के मनोरथों को पूरा करने वाला है। यह व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक दुःखों को हरने वाला है। इससे मनुष्य को संकट के समय सामना करने का बल बढ़ता है और आत्मा के उद्धार से शक्ति प्राप्त होती है। शौनकजी ने सूतजी से पवित्र महापुरुषों के इतिहास को सुनाने की प्रार्थना की क्योंकि इससे उसके चित्त की शुद्धि होती है, और पुराणों में आस्था बढ़ती है। सूतजी बोले कि हे शौनिक जी! आपका कथन सत्य है कि शिव पुराण का पठन-पाठन करना मनुष्य को पापों से मुक्ति दिलाता है। इस बात को सिद्ध करने के लिए मैं एक प्राचीन कथा सुनाता हूं।
पुराने समय में किरातनगर में एक ब्राह्मण रहता था। वह आचारहीन हो गया। और मांस बेचने का घृणित कार्य करने लगा। इस प्रकार अधर्म से किये गए आचरण से उसने पैसा भी कमा लिया। एक दिन वह एक तालाब के किनारे जब नहाने के लिए गया तब वहां उसने एक शोभावती नाम की एक सुंदर वेश्या देखी। वह उस पर मुग्ध हो गया और वेश्या ने भी अपने हावभाव से इस ब्राह्मण को अपने वश में कर लिया।
उस ब्राह्मण के वेश्या में बहत अनुरक्त हो गया देखकर ब्राह्मण के माता-पिता और पत्नी ने उसे समझाने की चेष्टा की और सही रास्ते पर लाना चाहा; तब उस ब्राह्मण ने उन्हें मार डाला और अपना सारा धन उस वेश्या पर लुटा दिया। ब्राह्मण से सब कुछ लेने पर वेश्या ने उसकी उपेक्षा शुरू कर दी। अब ब्राह्मण सब तरफ से निराश हो गया। एक दिन वह घूमता-फिरता अभाव से तंग, बुखार में पीड़ित एक शिव मंदिर में पहुंचा। मंदिर में अनेक ब्राह्मण महात्मा लोग शिव पुराण का वाचन कर रहे थे। उसने थोड़ी देर शिव पुराण सुना और फिर घर आ गया।
कुछ दिन के बाद वह ब्राह्मण मृत्यु को प्राप्त हो गया। जब उसके मरने पर यमदूत उसके पापों के फलस्वरूप उसे दंडित करने आए तो शिवदूतों ने उनका विरोध किया। इसका कारण यह था कि शिव पुराण को सुनकर ब्राह्मण का चित्त शुद्ध हो गया था। शिवदूत उसे कैलास ले जाना चाहते थे और यमदूत इसका विरोध कर रहे थे। दोनों में संघर्ष छिड़ गया और कोलाहल सुनकर जब धर्मराज आए तो उन्होंने शिवदूतों की बात समझकर उस ब्राह्मण को शिवदूतों के द्वारा शिवलोक में ले जाए जाने की अनुमति दे दी। इस प्रकार शौनक जी, योगियों के लिए अगम्य शिवलोक भी उस ब्राह्मण के लिए सहज हो गया।
इसका तात्पर्य यह है कि शिव पुराण का सुनना बहुत लाभदायक रहता है। इस प्रसंग में एक बात और बताता हूं लेकिन इससे पहले आप शिव प्राण की श्रवण-विधि को जान लीजिए-
(१) शिव पुराण को सुनने के लिए शुभ मुहूर्त में प्रारम्भ करना चाहिए और ब्राह्मण से शुभ मुहूर्त निकलवा लेना चाहिए तथा दूर देशों में स्थित अपने मित्रों को सूचना देते हुए निमंत्रण देना चाहिए। और जब आपके नगर में रहने वाले मित्र और बंधु-बांधव निमंत्रण पर आएं, तब उनका पूरा स्वागत करना चाहिए तथा श्रद्धापूर्वक उन्हें यथास्थान बिठाना चाहिए।
(२) शिव पुराण के सुनने का स्थान या तो शिवालय हो या अपना घर। कथास्थल को साफ कराकर उसे विभिन्न चित्रों से सुसज्जित करना चाहिए। इसके साथ केला, चंदोवा से सुसज्जित मंडप बनाना चाहिए तथा शिव पुराण सुनाने वाले ब्राह्मण के बैठने के लिए ऊंचे स्थान की व्यवस्था करनी चाहिए।
(३) वक्ता पूर्व की ओर मुंह करके बैठे और श्रोता उत्तर की ओर। श्रोता को चाहिए कि वह वक्ता के प्रति पूरा श्रद्धाभाव रखे और कथा वाचन के दिनों में अपने चित्त को शांत रखते हुए संयमपूर्वक जीवन व्यतीत करे।
(४) ब्राह्मण को चाहिए कि वह प्रतिदिन सूर्योदय के साढ़े तीन प्रहर तक कथा सुनाए और फिर भजन-कीर्तन करके उस दिन की कथा समाप्त करे। कथा की निर्विघ्न समाप्ति के लिए गणेश-पूजन भी होना चाहिए। इसके साथ-साथ यजमान को शुद्ध आचरण का पालन और ब्रह्मचर्य व्रत का कठोरता के साथ पालन करना चाहिए। उससे यह भी अपेक्षित है कि वह पूराण सूनाने वाले को साक्षात् शिव के रूप में देखे और इस पावेत्र पुराण को ही पूज्य समझे।
(५) पांच ब्राह्मणों की नियुक्ति हो जो निरंतर पांचाक्षर शिवमंत्र का जाप करते रहें। पूरी पूजा की समाप्ति पर यजमान को चाहिए कि वह दूसरे ब्राह्मणों को अन्न-वस्त्र आदि देकर संतुष्ट करे।
कभी-कभी असावधानी से दुष्परिणाम भी हो जाते हैं। इस दृष्टि से अभिमान तथा कथा सुनते-सुनते कुछ खाना और बड़ों को नमस्कार न करना या कथा सुनते हुए सो जाना आदि स्थितियां ऐसी हैं, जिनसे अनेक दुष्परिणाम निकलते हैं। इसलिए ऐसा नहीं करना चाहिए। इस प्रसंग में शिव की भक्ति और प्रमाद से भक्ति से विरत होने पर कितने कष्ट उठाने पड़ते हैं इस विषय में मैं एक पुरानी कथा सुनाता हूं।
पुराने समय की बात है कि समुद्र के किनारे स्थित प्रदेशों में एक प्रदेश के निवासी बहुत दुष्ट प्रकृति के थे। पुरुष पशुवृत्ति से भरे हुए थे और स्त्रियां व्यभिचारणी थी। एक प्रदेश में विंदुग नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसने अपनी सुंदर पत्नी के होते हुए भी एक वेश्या को अपना रखा था। वह धीरे-धीरे अपनी पत्नी से विमुख हो गया। उसकी पत्नी चंचुला भी अपने काम के वेग को सहन न करने के कारण एक यार से प्रेम करने लगी। जब विंदुग को यह पता चला तो वह अपनी पत्नी पर बहुत नाराज हुआ और उसने उसे पीटा। इसके उत्तर में उसकी पत्नी बोली कि आप मुझ जैसी रूपवती और पतिव्रता को छोड़कर जब वेश्या में अनुरक्त हो जाएंगे तो मैं कब तक अपनी भावना को रोक सकती हूं। मैं कितने समय तक कामपीड़ा को दबा सकती हूं। यह सुनकर विंदुग बोला-तुम्हारा कहना ठीक है। तुम चार पुरुषों के साथ विहार करो लेकिन कुछ धन भी कमाओ।
इस तरह पति की स्वीकृति पाकर चंचुला कुमार्ग पर खुले रूप में दौड़ने लगी। समय आने पर विंदुग की मृत्यु हो गई और उसे पिशाच योनि में उत्पन्न होना पड़ा। चंचुला का यौवन भी अब ढलने लगा था। वह एक दिन घूमते-घूमते गोकर्ण प्रदेश में आई और वहां उसने एक मंदिर में पंडेतजी को कथा कहते सुना। जैसे ही उसने दुष्कर्म करने वालों के परिणाम की बातें सुनी उसे बहुत ग्लानि हुई। कथा के बाद वह ब्राह्मण के चरणों में गिर पड़ी और अपनी मुक्ति का उपाय पूछने लगी। तब ब्राह्मण ने कहा कि शिव पुराण सुनते हुए तुम्हारे मन में पुण्य की जागृति हुई है और चित्त में शांति आने लगी है अतः इस पुराण को आद्योपांत सुनकर तुम्हें पूर्ण मुक्ति मिलेगी। शिव पुराण सुनने के बाद तुम साक्षात् शिव को अपने मन में अनुभव कर सकोगी, क्योंकि गणेश, कार्तिकेय आदि देवताओं की भक्ति भी शिव पुराण के सुनने से प्राप्त होती है।
ब्राहम्मण की बात सुनकर चंचुला ने उनसे ही शिव पुराण सुनाने की प्रार्थना की। और फिर ब्राह्मण के कहने पर चंचुला ने स्नान करके, जटावक्कल धारण करके भक्तिपूर्ण शिव पुराण सुनना प्रारंभ किया। चंचुला इस स्तर तक भक्ति में लीन हो गई थी कि उसने शिव प़राण सूनते-सूनते ही शरीर का त्याग कर दिया और शिवपुरी में पहुंचकर उमा साहेत भगवान शंकर के दशेन किए।
पार्वती ने चंचुला को अपने पास ही बने रहने का वरदान दिया और एक दिन जब चंचुला ने अपने पति के विषय में पूछा तो उसे मालूम पड़ा कि विदुग नरक की अनेक यातनाएं भोगने के बाद पिशाच योनि में पड़ा हुआ है। चंचुला ने अपने पति के मुक्ति की प्रार्थना की और तब उसकी प्रार्थना सुनकर भक्तों पर कृपा करने वाली पार्वती ने तुंबरू गंधर्व को बुलाकर पिशाच यानि में पड़े विंदुग को शिव पुराण सुनाने का आदेश दिया। तुंबरू विंध्याचल पर्वत पर गया और उसने विंदुग को शिव पुराण सुनाया तब वहां अनेक श्रोता आ गए। विंदुग का उद्धार हो गया और शिव न अपने गणों में स्थान दिया।
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भारतीय जीवनधारा में जिन ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण, भक्ति-ग्रंथों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण-साहित्य भारतीय जीवन और संस्कृति की अक्षुण्ण निधि है। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। भारतीय चिंतन परंपरा में कर्मकांड युग, उपनिषद युग अर्थात् ज्ञान युग और पुराण युग अर्थात् भक्ति युग का निरतर विकास होता दिखाई देता है। कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए भारतीय मानस चिंतन के ऊर्ध्य शिखर पर पहुंचा और ज्ञानात्मक चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई।
विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे भारतीय मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराण साहित्य सामान्यतया सगुण भक्ति का प्रतिपादन करता है। यहीं आकर हमें यह भी मालूम होता है कि सृष्टि के रहस्यों के विषय में भारतीय मनीषा ने कितना चिंतन और मनन किया है। पुराण साहित्य को केवल धार्मिक और पुराकथा कहकर छोड़ देना उस पूरी चिंतनधारा से अपने को अपरिचित रखना होगा जिसे जाने बिना हम वास्तविक रूप में अपनी संस्कृति और परंपरा को नहीं जान सकते।
परंपरा का ज्ञान किसी भी स्तर पर बहुत आवश्यक होता है। क्योंकि परंपरा से अपने को संबद्ध करना और तब आधुनिक होकर उससे मुक्त होना बौद्धिक विकास की एक प्रक्रिया है। हमारे पुराण साहित्य में सृष्टि की उत्पति, विकास, मानव उत्पत्ति और फिर उसके विविध विकासात्मक सोपान इस तरह से दिए गए हैं कि यदि उनसे चमकदार और अतिरिक्त विश्वास के अंश ध्यान में न रखे जाएं तो अनेक बातें बहुत कुछ विज्ञानसम्मत भी हो सकती हैं। जहां तक सृष्टि के रहस्य का प्रश्न है विकासवाद के सिद्धांत के बावजूद और वैज्ञानिक जानकारी के होने पर भी, वह अभी तक मनुष्य की बुद्धि के लिए एक चुनौती है। इसलिए जिन बातों का वर्णन सृष्टि के संदर्भ में पुराण-साहित्य में हुआ है उसे एकाएक पूरी तरंह से नहीं नकारा जा सकता।
महर्षि वेदव्यास को १६ पुराणों की रचना का श्रेय है। महाभारत के रचयिता भी वेदव्यास हैं। वेदव्यास एक व्यक्ति रहे होंगे या एक पीठ यह प्रश्न दूसरा है। यह बात अलग है कि सारे पुराण कथोपकथन शैली में विकासशील रचनाएं हैं। इसलिए उनके मूल रूप में परिवर्तन होता गया। लेकिन यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो ये सारे पुराण विश्वास की उस भूमि पर अधिष्ठित हैं, जहां इतिहास, भूगोल
का तर्क उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जितना उसमें व्यक्त जीवन-मूल्यों का स्वरूप। यह बात दूसरी है कि जिन जीवन-मूल्यों की स्थापना उस काल के पुराण-साहित्य में की गई, वे आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक रह गए हैं? लेकिन साथ में यह भी कहना होगा कि धर्म और धर्म का आस्थामूलक व्यवहार किसी तर्क और मूल्यवत्ता की प्रासंगिकता की अपेक्षा नहीं करता। उससे एक ऐसा आत्मविश्वास और आत्मालोक जन्म लेता है, जिससे मानव का आंतरिक उत्कर्ष होता है। हम कितनी भी भौतिक और वैज्ञानिक उन्नति कर लें, अंततः आस्था की तुलना में यह उन्नति अधिक देर नहीं ठहरती। इसलिए इन पुराणों का महत्त्व तर्क पर अधिक आधारित न होकर भावना और विश्वास पर आधारित है और इन्हीं अर्थों में इनका महत्त्व है।
जैसा हमने कहा कि पुराण-साहित्य में अवतारवाद की प्रतिष्ठा है। निर्गुण निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना का प्रतिपादन इन ग्रंथों का मूल विषय है। पुराणों में अलग-अलग देवी-देंवताओं को केन्द्र में रखकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म तथा कर्म और अकर्म की गाथाएं कही गई हैं। इन सबसे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि आखिर मनुष्य और इस सृष्टि का आधार-सौंदर्य तथा इसकी मानवीय अर्थवत्ता में कहीं-न-कहीं सद्गुणों की प्रतिष्ठा होनी ही चाहिए।
आधुनिक जीवन में संघर्ष की अनेक भावभूमियों पर आने के बाद भी विशिष्ट मानव मूल्य अपनी अर्थवत्ता नहीं खो सकते। त्याग, प्रेम, भक्ति, सेवा, सहनशीलता आदि ऐसे मानव गुण हैं, जिनके अभाव में किसी भी बेहतर समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए भिन्न-भिन्न पुराणों में देवताओं के विभिन्न स्वरूपों को लेकर मूल्य के स्तर पर एक विराट आयोजन मिलता है। एक बात और आश्चर्यजनक रूप से पुराणों में मिलती है। वह यह कि सत्कर्म की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में अपकर्म और दुष्कर्म का व्यापक चित्रण करने में पुराणकार कभी पीछे नहीं हटा और उसने देवताओं की कुप्रवृत्तियों को भी व्यापक रूप में चित्रित किया है। लेकिन उसका मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।
पुराणों में कलियुग का जैसा वर्णन मिलता है आज हम लगभग वैसा ही समय देख रहे हैं। अतः यह तो निश्चित है कि पुराणकार ने समय के विकास में वृत्तियों को और वृत्तियों के विकास को बहुत ठीक तरह से पहचाना। इस रूप में पुराणों का पठन और आधुनिक जीवन की सीमा में मूल्यों का स्थापन आज के मनुष्य को एक दिशा तो दे सकता है क्योंकि आधुनिक जीवन में अंधविश्वास का विरोध करना तो तर्कपूर्ण है, लेकिन विश्वास का विरोध करना आत्महत्या के समान है।
प्रत्येक पुराण में हजारों श्लोक हैं और उनमें कथा कहने की प्रवृत्ति तथा भक्त के गुणों की विशेषणप:क अभिव्यक्ति बार-बार हुई है। लेकिन चेतन और अचेतन के तमाम रहस्यात्मक स्वरूपों का चित्रण, पुनरुक्ति भाव से होने के बाद भी बहुत प्रभावशाली हुआ है। हिन्दी में अनेक पुराण यथावत् लिखे गए। फिर प्रश्न उठ सकता है कि हमने इस प्रकार पुराणों का लेखन और प्रकाशन क्यों प्रारंभ किया? उत्तर स्पष्ट है कि जिन पाठकों तक अपने प्रकाशन की सीमा में अन्य पुराण नहीं पहुंचे होंगे हम उन तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे और इस पठनीय साहित्य को उनके सामने प्रस्तुत कर, जीवन और जगत् की स्वतंत्र धारणा स्थापित करने का प्रयास कर सकेंगे।
हमने मूल पुराणों में कही हुई बातें और शैली यथावत् स्वीकार की हैं और सामान्य व्यक्ति की समझ में आने वाली सामान्य भाषा का प्रयोग किया है। किंतु जो तत्त्वदर्शी शब्द हैं उनका वैसा ही प्रयोग करने का निश्चय इसलिए किया गया कि उनका ज्ञान हमारे पाठकों को उसी रूप में हो।
हम आज जीवन की विडंबनापूर्ण रिथित के बीच से गुजर रहे हैं। हमारे बहुत से मूल्य खंडित हो गए हैं। आधुनिक ज्ञान के नाम पर विदेशी चिंतन का प्रभाव हमारे ऊपर बहुत अधिक हावी हो रहा है इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से ही करना होगा कि अपनी परंपरा में जो ग्रहणीय है, मूल्यपरक है उस पर फिर से लौटना होगा। साथ में तार्किक विदेशी ज्ञान भंडार से भी अपरिचित नहीं रहना होगा-क्योंकि विकल्प में जो कुछ भी हमें दिया है वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य का मन बहुत विचित्र है और उस विचित्रता में विश्वास और विश्वास का द्वंद्व भी निरंतर होता रहता है। इस द्वंद्व से परे होना ही मनुष्य जीवन का ध्येय हो सकता है। निरंतर द्वंद्व और निरंतर द्वंद्व से मुक्ति का प्रयास, मनुष्य की संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है। पुराण हमें आधार देते है-यही ध्यान में रखकर हमने सरल, सहज भाषा में अपने पाठकों के सामने पुराण-साहित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसमें हम केवल प्रस्तोता हैं, लेखक नहीं। जो कुछ हमारे साहित्य में है उसे उसी रूप में चित्रित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।