The recitation of Shiv Puran in Hindi is a form of devotion and surrender to Lord Shiva.
Shiv Puran in Hindi – कैलास संहिता
पुराने समय की बात है कि हिमालय के निवासी अनेक मुनियों ने काशी में गंगा-र्नान किया और शतरुद्रीय मंत्रों से महादेव का पूजन किया। उसी समय पंचक्रोशी के दर्शन की इच्छा से सूतजी भी वहां पहुंच गए और मुनियों के साथ सत्संग हुआ। सूतजी के आने पर मुनियों ने कहा कि आप महेश्वर का परम ज्ञान बताने की कृपा करें। तब सूतजी ने मुनियों से कहा कि हे ऋषियों, एक बार भगवान व्यास नैमिषारण्य में एक महान यज्ञ के अनुष्ठान के अवसर पर पधारे। वहां के निवासियों ने व्यासजी से ओंकार का अर्थ और उसका महत्त्व बताने का अनुरोध किया। व्यासजी ने जो ओंकार का महत्त्व बताया वह मैं तुम्हें बताता हूं।
एक बार पावेती ने शिवजी से पूछा था कि वेद के मंत्रों में सबसे पहले ओंकार का उच्चारण क्यों किया जाता है ? महादेव ने बताया कि प्रणव मंत्र मेरा स्वस्थ रूप और संपूर्ण विद्याओं का आदि मूल है। इसको जान लेना ही परम विज्ञान है। जिस तरह छोटे से बीज में विशाल बरगद का पेड़ निहित रहता है उसी तरह इस ओंकार में सारे वेद निहित हैं। एक श्रुति वाक्य है ‘ईशानम् सर्व विद्यानम्’ इसके अनुसार शंकर समस्त विद्याओं के आदि रूप हैं।
इस ओंकार में तीन मात्रात्मक रूप हैं और बिंदु नादात्मक है। इसके आकार के रजोगुण से सृष्टि रचयिता ब्रह्मा और उकार के सतोगुण से विष्णु और मकार के तमोगुण से सृष्टि का संहार करने वाले शिव उत्पन्न होते हैं। जब साक्षात् रूप महेश्वर देव का तिरोभाव होता है तो वे बिंदु रूप रह जाते हैं। और सब पर कृपा करने के लिए नाद रूप में परिणत हो जाते हैं। शिव को इस प्रकार समझकर ही अकारादि पांच वर्णों में ब्रह्मा को जानना चाहिए।
इन पांच वर्णों में ही ईशान्, पुरुष, भोर, सद् और वामदेव ये पांच मेरी ही मूर्तियां हैं। वैसे परमात्मा शंकरजी के संसार वैद्य, परमात्मा, सवेज, पितामह, विष्णु. रुद्र, महेश्वर और शिव ये आठ मुख्य नाम हैं। लेकिन शिव, महेश्वर और रुद्र ये तीन उपाधि निवृत्त होने पर शिव रूप नाम रह जाते हैं। शिव नाम समस्त देवताओं में महान् है अतः वह शिव है। प्रकृति और तेईस तत्त्वों से परे ये पच्चीसवां पुरुष ही वेद आदि ग्रंथों में ओंकार कहा गया है।
जब पार्वतीजी ने प्रणव के इस रहस्यमय अर्थ को सुना तो उन्होंने शिवजी की उपासना की और वेदव्यास ने मुनियों को यह संवाद सुनाकर वहां से प्रस्थान किया। यह दिव्य ज्ञान ऐसा है जिसे देवी से स्कन्द ने, स्कन्द से नंदी ने, नंदी से सनत्कुमार ने. सनत्कुमार से व्यास ने और व्यासजी से सूतजी ने प्राप्त करके मुनियों को बताया। इसके बाद सूतजी भी शिव और पावतं के पूजन के लिए कालरहित पर्वत पर चले गए। कुछ समय बीतने के बाद सूतजी फिर से काशी
आए और मुानेयों ने उनसे वामदेवजी का मत जानना चाहा। मुनेयों के पूछने पर सूतजी ने बताया-बहुत पहले रथांतर कल्प में वामदेव नाम के एक मुनि हुए थे। वह बचपन में ही वेद और पुराणों के ज्ञाता हो गए थे। उन्होंने मेरु के दक्षिण कुमार शिखर पर स्कन्द कार्तिकेय को आराधना करके प्रसन्न किया। प्रसन्न होने के बाद स्कन्दजी ने वामदेवजी से पूछा कि तुम्हारा अभीष्ट क्या है। इस पर वामदेव ने प्रणव का अर्थ जानने की प्रार्थना की। स्कन्दजी ने तब उन्हें प्रणव का अर्थ समझाया। उनके अनुसार-
साक्षात् महेश्वर ही प्रणव हैं। इस प्रणव के छ: प्रकार के अर्थ हैं! मंत्ररूप मंत्रभाव, प्रपंचा, वेदार्थ, रूप तथा शिष्य के अनुरूप। और ये सब एक महेश्वरी माने जाते हैं। शिवजी की पांच मूर्तियां इसीसे निर्दिष्ट होती हैं जो पंचमुख शिव की होती हैं। यही प्रणव आकाश का अधिपति सदाशिव समष्टि रूप और सर्व सामर्थ्यवान है। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और महेश्वर ये चारों भिन्न-भिन्न रूप इसी प्रणव की समष्टि हैं। महेश्वर के सहरु अंश से रुद्र मूर्ति उत्पन्न हुई है और जैसा कि अनेक प्रसंगों में बताया गया है यही सृष्टि जन्म के रूप में ब्रह्मा, पालन कर्ता के रूप में विष्णु और विनाश के समय रुद्र होते हैं। वासुदेव, संकर्षण प्रद्युग्न और अनिरुद्ध ये चार विख्यात नाम भी व्यूह रूप ही हैं।
यह सुनकर वामदेवजी बोले कि हे महाप्रभु स्कंद आप मुझे संसार-चक्र का निर्वतन और अद्वैत ज्ञान बताने की कृपा कीजिए। यह सुनकर स्कंद ने कहा कि यह तत्त्व ज्ञान भगवान शंकर ने भगवती पार्वती को बताया। यह उस समय बताया गया जब मैं बहुत छोटा था लेकिन अपने पूर्व संस्कारों के कारण मैंने इस सारे तत्त्व ज्ञान को कंठस्थ कर लिया। वही ज्ञान मैं तुम्हें बताता हूं। सृष्टि का मूल भाव यह है कि जैसे चेतन कुम्हार के बिना अचेतन घट नहीं बन सकता उसी प्रकार चेतन परमात्मा के अभाव में अचेतन प्रकृति के कार्य नहीं हो सकते। हमारे शरीर में जीव रूप चेतना के बिना जड़ देह और अचेतन इंद्रियों में कार्य की क्षमता नहीं आ सकती।
शिवोडहम् कहने से जीवन अपने में शिवत्व का अनुभव करता है और उसे अखंड आनंद की प्राप्ति होती है। परब्रह्म का स्वरूप प्रतिपादित करने के लिए श्रुति वाक्यों में कहा गया है कि ‘तस्य कार्य कारणं च विद्यते’ अर्थात् वह ब्रह्म कार्य-कारण से अतीत स्वयंभू एवं सर्वतंत्र है। उस पर किसी का शासन नहीं है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है कि स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया अर्थात् परमेश्वर की ज्ञान क्रिया सहज रूप में ही है। उसकी पराशक्ति अनेक प्रकार की है। इस ओंकार परब्रह्म में संपूर्ण ब्रह्मांड समाया हुआ है। और यही ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र रूप धारण करके सृष्टि का सृजन. पालन और विनाश करते हैं। शिव शक्ति योग ही परमात्मा रूप है। शिव से ईशान और ईशान से पुरुष की उत्पत्ति हुई है। शिव शक्ति से ही नाद, बिंदु और स्वर इनसे ही प्रणव मंत्र
की उत्पत्ति मानी गई है। पुरुष से अघोर वाम और इससे सद्योजातादि उत्पन्न हुए। मात्राओं से कलाएं और फिर शांति कलाएं तथा शास्त्र उत्पन्न हुए। उसके बाद अनुग्रह, तिरोभाव, विनाश, स्थिति, सृष्टि रूप कृत्यों का हेतु मिथुन पंचक उत्पन्न हुए। फिर पंचभूत और पंचभूतों में आकाश में गुण, वायु में शब्द, स्पर्श, गुण अग्नि में शब्द स्पर्श रूप गुण, जल में शब्द स्पर्श रूप और रस तथा पृथ्वी में शब्द स्पर्श रूप रस और गंध की व्याप्ति है। ये सभी तत्त्व अपने-अपने भूतों में लीन होकर और आदि क्रम के द्वारा विपरीत होकर व्याप्त रहते हैं और अंत में संपूर्ण तत्त्च शिवजी में विलीन हो जाते हैं।
द्वैत नश्वर र्वरूप है और अद्वैत अविनाशी सनातन रूप है। एक ही शिव रूप सच्चिदानंद ब्रह्म हैं, सर्वज्ञ हैं और वेदों के निर्माता हैं। शिवजी ही अपनी माया और इच्छा से पुरुष होते हैं। यही पुरुष रूप में प्रकृति के गुणों के भोक्ता हैं और वे ही समष्टि और चित् प्रकृति तत्त्च हैं। प्रकृति के तीन गुणों से बुद्धि. बुद्धि से तीन प्रकार का अहंकार, उससे तेज और तेज से मन. बुद्धि और इंद्रियों की उत्पत्ति हुई है।
मन का रूप संकल्प और विकल्पात्मक है इसी प्रकार इंद्रियां और तन्मात्राएं उत्पन्न हुई। इस तरह सृष्टि के सभी तत्त्व स्थूल और सूक्ष्म सूर्य. चंद्रमा और नक्षत्र. देवता, देव पितर, किन्नर, पशु, पक्षी, कीट-पतंग, समुद्र, नदियां, पर्वत औषधियां. उत्पन्न हुई और यह सारी उत्पत्ति ब्रह्म ज्योति से हुई। सभी कुछ ब्रह्म रूप है उससे भिन्न नहीं है। यही अद्वैत भावना है।
योग पथ को प्राप्त करने के लिए साधक को चाहिए कि वह अगहन और माध महीनों के शुक्लपक्ष तथा शुभ दिन में पंचमी या पूर्णमासी को आचार्य के चरणों का प्रक्षालन करे। गुरु के निकट ही मृग चर्म के आसन पर बैठे और शंख में फूल रखकर प्रणव मंत्र से गुरु को प्रणाम करे। दीप जलाए और मुद्रा से रक्षा तथा कवच मंत्र से उसे आच्छादित करे।
इसके बाद अर्घ्य दे और सुगंधित फूलों का भी अर्पण करे। पृथ्वी के एक भाग में जल छिड़ककर घड़े की रथापना करे तथा सूत से घड़े को लपेटकर उसमें सुगंधित जल भरे। फिर पीपल, पाकड़, जामुन, आम, और बड़ पांच वृक्षों की छाल तथा पत्ते लेकर गज, घोड़ा, रथ, बांकी और नदी संगम की मिट्टी को लेकर सुगंधित करे।
आम के पत्ते, वस्त्र, और कुशाग्र तथा नारिकेल आदि को लेकर घड़े के चारो तरफ रखे और फिर जल में पंचरत्न नील, माणिक्य, स्वर्ण, गंगाजल और गोमेद डाले। यदि पांचों न मिलें तो केवल सोना डाले और पूजन करे। यह गुरु ही शुभ है अर्थात् उसीकी पूजा संपूर्ण भक्ति और सिद्धि को देने वाली है। फिर आचार्य को चाहिए कि निम्नलिखित २२ वाक्यों में गुरु भस्म का ज्ञान कराए।
- मैं ब्रह्मस्वरूप हूं।
- प्रज्ञान ही साक्षात् ब्रह्म है।
- यह ब्रह्म तू ही है।
- आत्मा ब्रह्म रूप है।
- मैं प्राणरूप हूं।
- यह आत्मा ज्ञानरूप है।
- यह सारा जगत इंश्वर से ही प्रतिषष्ठित है।
- जो कम करोगे वही मिलेगा, जो यहां है वही वहां भी है।
- ब्रह्म विदित, अविदित दोनों से अतीत हैं।
- मैं ही ब्रह्मअविनाशी हूं।
- सूर्य और पुरुष में वह एक ही समा रहा है।
- आत्मा में ब्रह्म अन्तर्यामी रूप में स्थित अमृत है।
- मैं ही तत्त्वों का साक्षी और प्राण हूं।
- में ही आकाश और पवन का प्राण हूं।
- मैं ही समस्त लक्षण सम्पन्न सर्वातीत सर्वज्ञ हूं।
- यह समस्त चराचर ब्रह्म रूप है।
- मैं ही तीन गुणों का प्राणस्वरूप हूं।
- मैं ही जल और आकाश का प्रकाश दाता हूं।
- मैं ही सर्वगत और ज्योतिमान तथा अद्वितीय हूं।
- यह जो कुछ भी है वह मैं हूं और मेरा ही नाम हंस है।
- मैं सम्पूर्ण बंधनों से मुक्त सुध और बुध हूं।
- मैं ही सब प्राणियों का घट-घट वासी तथा पुरुषादित्य का तेज प्रदान करने वाला हूं।
विश्व के कर्ता कार्य और कारण, सदाशिव अनेक नामों से जाने जाते हैं। लेकिन जिस तरह मलिन दर्पण में मुंह नहीं दिखाई देता उसी प्रकार अज्ञान के अंधकार से ढका हुआ मन ब्रह्म को नहीं जान पाता। उन्हें सदाशिव प्रतिभाषित नहीं होते। मन को निर्मल करने के लिए हठयोग तथा साधना करनी चाहिए। इससे अंतःकरण शुद्ध होता है। और भगवान शंकर प्रत्यक्ष ही नहीं होते भक्त पर कृपा भी करते हैं। भक्त चार प्रकार के होते हैं-आर्ष, जिज्ञासु, अर्थी और ज्ञानी। इन चारों में ज्ञानी भक्त शिवजी को परम प्रिय है।
स्कंदजी बोले कि हे महामुनि वामदेव, अब स्नान और क्षौर कर्म का विधान सुनिए। इसमें गुरुदेव को प्रणाम करना, उनसे अनुमति लेना और आचमन करना तथा वस्त्र पहनते ही हजामत कराना। इस विधान के साथ नाई के हाथ-पैर धुलवाकर नमः शिवाय कहते हुए शिवजी का ध्यान करना आवश्यक है। नाई यंत्रों को ओंकार मंत्र से अभिमंत्रित करे और नाई को दक्षिण ओर से क्षौर कर्म करने के लिए कहे।
फिर कटे हुए बालों को लेकर नदी तट पर जाकर सोलह बार शुद्ध जल से कुल्ला करे। फिर तुलसी. बेल तथा पीपल के नीचे की मिट्टी लेकर नदी में सात गोते लगाए, और अपने शरीर पर उस मिट्टी का लेपन करे और नदी में नहाए। और फिर संध्या उपासना. प्राणायाम तथा सूर्य नमस्कार करे।
पुनः शिव, पार्वती का पूजन करे, इसके बाद साधक को चाहिए कि नित्य कर्म से निवृत्त होकर सदाचारी गृहस्थों के घर भिक्षा मांगने जाए और वापस आश्रम में लौटकर शुद्ध आसन पर बैठकर भिक्षा का सेवन करे। जो भोजन बच जाए उसे पशु-पक्षियों को खिला दे। दाहकर्म की दृष्टि से यतियों का दाहकर्म नहीं करना चाहिए। उन्हें पृथ्वी के गर्भ में दबाना उचित है। भृकुटी के मध्य शिवजी का ध्यान करने पर संन्यासी साक्षात् शंकर का रूप हो जाता है। स्थिर चित्त से ही समाधि लगाई जाती है। जो अधीर हैं उन्हें चाहिए कि वे समय और नियम का अभ्यास करके अनेक विधि से शंकरजी का ध्यान करें। संन्यासी को चाहिए कि वह नश्वर शरीर से विरक्त होकर मोहमाया से मूक्त होकर शिवजी का ध्यान करे।
इस प्रकार ‘ॐ नमः शिवाय’ का उच्चारण करते हुए जो संन्यासी प्राण त्यागता है तो उसे जलाना नहीं चाहिए बल्कि धरती में गड्ढा बनाकर उसे बैठा देना चाहिए। गड्ढ़े में रखने से पहले संन्यासी के शव को गंगाजल से स्नान कराकर उसके माथे पर भस्मी का त्रिपुंड लगाना चाहिए। इसके पश्चात् उसे रुद्राक्ष आदि आभूषणों से लादकर डोली में बिठाकर ग्राम की परिक्रमा करनी चाहिए और इसके बाद उसे गड्ढे में दबा देना चाहिए। दस दिन तक धूप-दीप आदि से पूजा करनी चाहिए।
ग्यारहवें दिन उसे फिर साफ करके पंच मंडल की रचना करनी चाहिए। पंचदेव पूजन और मुख्य रूप से शिव पूजन करके मृतक के सिर के स्थान पर पुष्प माला रखें और उसकी सद्गति की प्रार्थना करें। इस प्रकार शिष्य अपने गुरु यति का एक आदर्श कर्म संपूर्ण करे।
बारहवें दिन नित्य कर्म से निवृत होकर शिष्य शिवभक्त ब्राह्मणों को निमंत्रित करे और दोपहर को भोजन कराए। ब्राह्मणों को संतुष्ट करके उन्हें पहुंचाने के लिए द्वार पर आए अतिथियों का सम्मान करे। उसके बाद शंकर का ध्यान करते हुए यति के नि:श्रेयस के लिए शंकर से प्रार्थना करे। और प्रति वर्ष इसी प्रकार पूजा करने का संकल्प करे।