Devotees chant Shiv Puran in Hindi to seek Lord Shiva’s blessings for well-being.
Shiv Puran in Hindi – विद्धेश्वर संहिता
बहुत पहले एक समय शौनाकादि ऋषियों ने प्रभासतीर्थ में एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में सूतजी भी आए। सूतजी से ऋषियों ने कहा कि हे भगवन्! कलियुग में धर्म का लोप हो जाएगा। प्राणीमात्र भ्रष्ट और पापमय आचरण करने लगेंगे, अर्थव्यवस्था भी लगभग छिन्न-भिन्न हो जाएगी…. चारों तरफ आडंबर से परिपूर्ण काम होंगे, अतः आप यह बताने की कृपा करें कि उस समय प्राणी किस प्रकार से सद्गति पाएंगे ?
ऋषियों की बात सुनकर सूतजी बोले-हे मुनियो! आप लोगों ने संसार के प्राणियों के हित के लिए अत्यंत अर्थवान प्रश्न किया है। सुनिए-शिव पुराण कलि के पापों का नाशक और सब ग्रंथों में उत्तम तथा वेदांत का सार है। जिस प्रकार सूर्योदय होने से अंधकार दूर हो जाता है और प्रकाश फैलता है उसी प्रकार शिव पुराण के पढ़ने-पढ़ाने, सुनने-सुनाने से मनुष्य के पाप रूपी अंधकार का नाश होता है और वह शिवत्व को प्राप्त होता है। शिव पुराण के पढ़ने से अनेक मंत संबंधी भिन्नताएं भी समाप्त हो जाती हैं और शिव पुराण जीव में ‘शिवोऽहम्’ की प्रबल
भावना जगाकर उसे आत्मतुष्टि देकर शिव रूप में ही स्थापेत करता है। सूतजी ने आगे कहा कि कल्प के प्रारंभ में जब ब्रह्मा सृष्टि-रचना में लीन थे तब ऋषियों के मन में यह प्रश्न उठा कि कौन-सा पुराण श्रेष्ठ है तथा किस-किस पुराण के सेवन से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। सूतजी जानते थे कि भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण सभी पुराणों में से किसी एक को श्रेष्ठ कहना सरल काम नहीं है। उन्होंने कहा कि आपस में अनेक विवादों के उपरांत मुनि लोग इसका निर्णय नहीं कर पाए कि कौन-सा पुराण श्रेष्ठ है। तब वे ब्रह्मा जी के पास गए और उनके सामने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।
ऋषियों की बात सुनकर ब्रह्माजी बोले कि महादेव ही आदि देव और सर्वज्ञ जगदीश्वर हैं। महादेव ही मन-वाणी से अगम्य हैं किंतु अन्य देवताओं की अपेक्षा शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं। अतः हे ऋषियो! तुम सब एक सहस्र वर्ष तक सुदीर्ध यज्ञ करो तब तुमको महादेवजी के प्रसाद पाने की आशा करनी चाहिए। भगवान शिव की कृपा होने पर तुम्हें वेदोक्त विद्या का साध्य-साधन रूप-सर अपने आप ज्ञात हो जाएगा।
पुनः मुनियों के अनुरोध पर ब्रह्माजी ने बताया कि शिव की सेवा करना साधन है और शिव की प्राप्ति ही साध्य। जो निस्पृह भाव से सेवा करता है वह साधक है। अतः जब साधक वेदोक्त विधि से शिवजी की आराधना करता है तब उसे परम पद की प्राप्ति होती है। भक्त को भक्ति के अनुरूप ही सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य और सायुज्य मुक्ति रूप भक्ति का फल प्राप्त होता है। भगवान शंकर ने स्वयं भक्ति के रूपों का निर्देश दिया है। उनके अनुसार-
१. शिव की कथा सुनना
२. शिव की महिमा का गुणगान करना,
३. शिव के ईश्वरत्व का मन से मनन करना अर्थात् श्रवण, कीर्तन और मनन ही मुक्ति के सर्व स्वीकृत साधन हैं।
इन साधनों का दृढ़ता से पालन साध्य की पूर्ति के लिए आवश्यक है। यहां यह भी जानना चाहिए कि जो प्रत्यक्ष है उसका विश्वास अत्यंत सहजता से हो जाता है अतः बुद्धिमान साधक गुरु से पहले श्रवण करे और फिर कीर्तन तथा मनन में दत्तचित्त हो। इस साधना से ही वह शिव लोग हो प्राप्त होगा। इसके उपरांत सूतजी ने श्रवण-मनन आदि का विस्तार से विश्लेषण किया, उनके अनुसार-
स्थिर चित्त से तथा दृढ़ वृत्ति से भगवान शंकर के दिव्य गुणों को सुनना और उनको चित्त में धारण करना ही श्रवण कहलाता है। अत्यंत श्रद्धा-भक्तिपूर्वक बार-बार शिव के नाम का जाप करना ही कीर्तन ईश्वर के नाम, रूप. गुण में रुचि रखते हुए अपने मन को स्थिर करके उसके स्वरूप आदि का चिंतन करना ही मनन है। इसके उपरांत सूतजी ने कहा कि इन तीनों विधियों से श्रद्धापूर्वक शिव की आराधना करने वाला प्राणी लोक-कष्टों से पार हो जाता है। इस विषय में वे बोले कि मैं एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं। आप लोग सावधान होकर सुनें।
सरस्वती नदी के तट पर एक बार भगवान, वेदव्यास तप कर रहे थे। उनके पास जाकर सनत्कुमारजी ने पूछा कि हे भगवन्! आप किसलिए तप कर रहे हैं? इस पर व्यासजी ने उत्तर दिया कि मुक्ति के लिए तप कर रहा हूं। तब सनत्कुमारजी बोले कि एक समय मैंने भी यह समझा था कि तप से मुक्ति होती है… अतः मैं मंदराचल पर जाकर तप करने लगा पर बाद में नंदिकेश्वर के द्वारा मुझे यह ज्ञान मिला कि मुक्ति तप से नहीं होती, अपितु शिवजी की महिमा के गान व श्रवण से ही मुक्ति मिलती है। इससे मेरा सारा भ्रम दूर हो गया और मैंने सत्य के मार्ग को अपनाया। हे मुनियो! सनत्कुमारजी के इस दिव्य ज्ञान से व्यासजी का भी मार्ग प्रशस्त हुआ और सत्य मार्ग पर चलने के कारण उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई।
इस कथा को सुनकर ऋषियों ने दुबारा श्रवण, कीर्तन और मनन में आसक्त प्राणियों की मुक्ति का उपाय पूछा-तब सूतजी ने कहा कि जो पुरुष इन तीनों उपायों द्वारा शिवजी की भक्ति करता है और साथ ही लिंगेश्वर की स्थापना करके उसकी पूजा करता है वह संसार-सागर से तर जाता है। शिवलिंग निराकार महादेव का साकार रूप है। शिवलिंग में साक्षात् शंकर निवास करते हैं। शिवलिंग की पूजा से शिव की पूजा के फल के साथ अन्य देवताओं की पूजा का फल भी प्राप्त हो जाता है। इस विषय में नंदिकेश्वरजी द्वारा बताए गए इतिहास का वृत्त इस प्रकार है।
शिवरात्रि रथापन
एक बार भगवान ब्रह्मा विष्णुलोक गए और उन्होंने विष्णुजी को अपना पुत्र बनाया तथा उनसे कहा कि वे ब्रह्मा की आज्ञा मानें। ब्रह्माजी की बात सुनकर विष्णुजी को क्रोध आया और उन्होंने कहा कि मैं आपका पुत्र नहीं अपितु आप ही मेरे नाभि-कमल से उत्पन्न पुत्र हो और मैं सृष्टि का पालक हूं अतः आपकी भी रक्षा करता हूं-इस रूप में आप मेरे द्वारा संरक्षित हैं। इसके साथ ही विष्णुजी ने ब्रह्माजी से उनके तिर्यक मुख का कारण जानना चाहा।
इसके उत्तर में ब्रह्मा जी ने स्वयं को विश्व का पितामह बताया और विष्णु पर आरोप लगाया कि वह यह तथ्य नहीं जानते। यह विवाद संघर्ष का रूप ले बैठा। इस विवाद के समय पहले तो देवताओं ने आनंद मनाया, पर जब दोनों (ब्रह्मा और विष्णु) आपस में स्वर-प्रहार करने लगे तो देवताओं ने उनको रोका कि इस प्रकार अराजकता न फैलाएं। तब सारे देवताओं ने भगवान शंकर की शरण जाने का निश्चय किया।
देवता लोग भगवान शिव के पास आए और ब्रह्मा तथा विष्णु का संघर्ष समाप्त करने की प्रार्थना की। देवताओं की प्रार्थना पर शिवजी अपने गणों के साथ संघर्ष-स्थल पर आए और कुछ दूर से विष्णु तथा ब्रहम्मा का संघर्ष देखने लगे। तब अकस्मात शिवजी ने एक स्तंभ का रूप धारण किया और दोनों के बीच आकर खड़े हो गए। उस स्तंभ को देखकर ब्रहमा तथा विष्णु ने युद्ध रोक दिया। वे आश्चर्यचकित होकर ज्योतिरूप स्तंभ को देखने लगे।
ब्रह्मा और विष्णु दोनों ही उस स्तंभ के विषय में सोचने-विचारनें लगे। स्तंभ का रहस्य जानने के लिए विष्णु शूकर का रूप धारण कर स्तंभ के मूल का अवलोकन करने के लिए नीचे चले गए और ब्रह्मा ने हंस का रूप धारण किया तथा वे अंत को देखने के लिए ऊपर की ओर गए। पर दोनों को ही रहस्य का ज्ञान नहीं हो सका।
इसी समय ब्रह्मा ने आकाश में एक फुल देखा और उसे अपने ज्ञान को साक्षी मानकर विष्णु से स्तंभ का अंत पा लेने का दावा किया। इस पर विष्णु नतमस्तक हो गए और उन्होंने ब्रह्मा के चरण पकड़ लिए। किन्तु शिवजी ब्रहमा के कपट को सहन न कर सके और एकदम वहां प्रकट हो गए। विष्णु ने शिवजी के चरणों का स्पर्श किया और शिवजी ने विष्णु की सत्यवादिता से प्रसन्न होकर उन्हें अपने समान होने का वरदान दिया।
उधर एक विचित्र बात यह हुई कि ब्रह्मा को उनके असत्य भाषण पर दंडित करने के लिए जैसे ही शिवजी के मन में क्रोध उत्पन्न हुआ वैसे ही उनकी भौहों से भैरव पैदा हुआ जिसने शिवजी के आदेश के अनुसार ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट लिया। जब भैरव और सिरों को भी काटने लगा तो ब्रह्माजी शिव के चरणों में गिरकर क्षमा-याचना करने लगे। विष्णु भी शिवजी को प्रसन्न करते हुए ब्रह्माजी के लिए क्षमा मांगने लगे। इस पर शिवजी ने भैरव को हटाया किन्तु ब्रह्मा को सत्कार और उत्सव से अलग कर दिया। इसके बाद जब ब्रह्माजी पुनः विनती करने शिव पुराण
लगे तो शिवजी ने उन्हें गणों का आचाये बना दिया। जिस फूल को ब्रह्माजी ने देखा था वह केतकी का फूल था अतः असत्य साक्ष्य के कारण शिवजी ने केतकी को अपनी पूजा से अलग कर दिया। फिर जब केतकी ने भी प्रार्थना की तो उसे शिवजी ने मंडप सजावट के समय शिरोमणि फूल होने का वरदान दे दिया।
इसके बाद ब्रह्मा और विष्णु ने शिवजी को अनेक वस्तुएं समर्पित की और षोडशोपचार से शिवजी की पूजा की। इसके बाद शिवजी ने उन दोनों को समझाया कि वस्तुतः वे ही (शिव) ईश्वर है। अज्ञान के कारण ही आप लोगों ने स्वय को ईश्वर मानने का विचार व्यक्त किया है। अब इस अज्ञान से मुक्त होकर मेरे प्रति ही तुम्हारी ब्रह्म दृष्टि होनी चाहिए तथा मेरे पिडी (लिंग) को मुझ निराकार का साकार रूप मानकर पूजा करो। आज का दिन मेरे नाम से शिव गिरि का दिन कहलाएगा। इस दिन पार्वती सहित मेरी (लिंग रूप में) पूजा करने वाला-मुझे कार्तिकेय के समान प्रिय होगा।
इसके बाद ब्रहा और विष्णु के पूछने पर शिवजी ने पंचकृत्य के विषय में बताया।
- सर्ग अथवा सृष्टि — संसार का अभ्युदय
- रिथित — संसार का पालन, भरण-पोषण और व्यवस्थापन।
- संहार — संहारसंसार का विनाश
- तिरोभाव — परिवर्तन अथवा उत्क्रम, रूपांतर
- अनुग्रह — सर्ग से मुक्ति
शिवजी बोले इन पांच कृत्यों से ही मेरे द्वारा संसार का संचालन होता है। इनके संचालन के लिए मेरे पांच मुख (चार दिशाओं में चार और बीच में पंचम) हैं। आपने अपने तप से पहली दो स्थितियों को ही प्राप्त किया है। रुद्र और महेश रूप ने भी संहार और तिरोभाव कृत्यों की प्राप्ति की है।
अनुग्रह नामक पंचम कृत्य कोई भी नहीं प्राप्त कर सका है। और आप लोगों की एक भूल से और आपमें व्याप्त मूढ़ता के कारण-मुझे रूप, यश, कृत्य, वाहन आयुधादि का सृष्टि की स्थिति के लिए संग्रह करने पर विवश होना पड़ा। यदि आप अनुग्रह को पाना चाहते हैं तो ओंकार द्वारा मेरा पूजन करो। ओंकार ही मेरा वाच्य है और मैं वाचक हूं। ओंकार के साथ पंचाक्षर ‘ॐ नम: शिवाय’ से मेरा अनुग्रह सुलभ हो जाता है। शिवजी के इस दिव्य उपदेश के लिए देवों ने कृतज्ञता प्रकट की और शिवजी की पूजा की। उनकी पूजा स्वीकार कर शिवजी अंतर्ध्यान हो गए।
इस आख्यान को सुनकर ऋषियों ने सूतजी से कहा कि हे भगवन्! आप हमें सदाचार का स्वरूप समझाने की कृपा करें। हम स्वर्ग-नरक के कारणभूत धर्म-अधर्म का ज्ञान पाना चाहते हैं। यह सुनकर सूतजी बोले-‘सदाचारयुक्त ब्राह्मण ही सच्चे अर्थों में ब्राहमण कहलाने का अधिकारी है। सदाचार के कर्मविधान में अनेक बातें हैं। सदाचार से जीवन-यापन करने वाला व्यक्ति प्रातःकाल उठकर सूर्य की ओर मुख कर देवताओं का स्मरण करे। इससे उसे अर्थ और धर्म की उपलध्धि होगी। फिर नित्यकर्म रूप मलमूत्र का त्याग करे। इसके बाद हाथ-पैर धोकर कुल्ला करे। दंत मंजन करने के बाद र्नान करके पितरों का स्मरण करे।
इसके बाद शुद्ध वस्त्र धारण करके मस्तक पर टीका लगाए। फिर किसी मंदिर में या घर पर ही नियत स्थान पर गायत्री का जाप करे…यह जाप सोऽहम् भावना से करे। इसके बाद अपने व्यवसाय में धर्म भाव से काम करे…इस प्रकार धन उपार्जन करते हुए परिवार का पालन करे। हे ऋषियो! सदाचारी को चाहिए कि द्रव्य धर्म और देह धर्म का पालन करे। दान करना, यज्ञ करना, मंदिर-वापी बनवाना द्रव्य-धर्म कहलाता है और पूजा-अर्चना तथा तीर्थ भ्रमण आदि देह-धर्म कहलाता है। द्रव्य धर्म से धन-वृद्धि और देह-धर्म से दिव्यत्व की प्राप्ति होती है। इनके सांगोपांग समन्वय से मनुष्य का अंतःकरण शुद्ध होता है।
इसके बाद ऋषियों के यह पूछने पर कि शिवलिंग की स्थापना कहां और किस रूप में की जाए सूतजी ने कहा कि गंगा या किसी भी पवित्र नदी के तट पर या जहां कहीं भी सुविधा हो, शिवलिंग की स्थापना हो सकती है। समय और स्थान का बंधन नहीं है। लोहा, पत्थर या मिट्टी किसी भी वस्तु से बना बारह अंगुल का लिंग उत्तम होता है। लिंग के आसपास गोबर मिली मिट्टी से स्थान को स्वच्छ रखना चाहिए। नवनीत, भस्म, कनेर के फूल, फल, गुड़ आदि वस्तुओं से लिंग की पूजा करनी चाहिए। पूजा करने के लिए ‘ नमः शिवाय’ का जाप करना चाहिए।
नम: शिवाय के साथ ॐ सर्वदा लगाना चाहिए यदि संभव हो सके तो शिवलिंग के चारों तरफ चार हजार हाथ दूरी का वर्ग क्षेत्र होना चाहिए और उस क्षेत्र में कुआ, वापी आदि होना चाहिए। सूतजी ने कहा कि भारत में गंगा, सरस्वती आदि नदियों के तटों पर अनेक शिव क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों में निवास करने और पूजा करने से सिद्धि की प्राप्ति होती है। पुण्य प्राप्ति के साथ अपुण्य या पाप के विषय में बताते हुए सूतजी ने कहा कि शिव क्षेत्र में पाप करने से अत्यधिक हानि होती है। उसका परिहार बहुत बड़े पश्चात्ताप से ही हो सकता है।
सूतजी ने आगे बताया कि पाप-पुण्य के तीन चक्र होते हैं-बीज, वृद्धि और भोग। ज्ञान द्वारा इन तीनों में संतुलन किया जा सकता है। ज्ञान की प्राप्ति भी प्रत्येक युग में भिन्न रूप से होती है। सतयुग में ध्यान से, त्रेता में तप से, द्वापर में भजन योग से ज्ञान की प्राप्ति संभव है। कलियुग में ज्ञान की प्राप्ति प्रतिमा के पूजन से ही सभव है। इसलिए तत्त्व ज्ञान के अभ्यर्थी भक्त को प्रतिमा पूजन में ध्यान लगाना चाहिए। कलियुग में द्रव्य धर्म की प्रतिष्ठा अधिक है।
कलियुग में न्याय द्वारा अर्जित धन पुण्य कार्यो में लगाना चाहिए। भक्त जो कुछ भी अर्जित करे उसका एक भाग धार्मिक कार्यों में, एक भाग व्यापार वृद्धि में, एक भाग भवन-निर्माण में तथा विवाह आदि कार्यों में व्यय करना चाहिए। जो व्यक्ति व्यापार से अर्जित धन के छठे भाग को और कृषि से अर्जित धन के दसवें भाग को धर्म कार्य में व्यय नहीं करता, वह सदाचार के नियमों का उल्लंघन करता है। दूसरों में दोष-दृष्टि न देखना, द्वार आए याचक को निराश न लौटाना, अग्निहोत्र करना सदाचार के अंग हैं। मुनियों ने सूतजी से कहा कि-अग्नियज्ञ, देवयज्ञ, ब्रहमयज्ञ, गुरुपूजा और ब्रह्मतृप्ति के स्वरूप को समझाइए। सूतजी बोले-ये पांचों महायज्ञ अत्यंत पुण्यदायक हैं। इनका स्वरूप समझ लेना चाहिए।
अग्नियज्ञ है-अग्नि में द्रव्य युक्त हवन करना। समिधा द्वारा यज्ञ करने के साथ आत्मा में ही अग्नि प्रज्ज्वलित करके यह यज्ञ संपन्न किया जा सकता है। प्रातःकाल के अग्नियज्ञ से आयु-वृद्धि होती है और सायंकाल के यज्ञ से संपत्ति-वृद्धि। देवयज्ञ है-देवताओं की तृप्ति के लिए यज्ञ में आहुति देना। ब्रह्मयज्ञ है-नियमपूर्वक वेदांगों का अध्ययन। गुरुपूजा है-धनधान्य और अन्नादि से वेदपाठी की सेवा करके उसे संतुष्ट करना। ब्रह्मतृप्ति है-नियमपूर्वक आचरण करते हुए आत्मा-रूप ब्रह्म को तुष्ट करना।
वारों की सृष्टि के विषय में बताते हुए सूतजी ने कहा-महादेव ने ही लोक-कल्याण के लिए पहले आदित्यवार तथा बाद में अन्य वारों की स्थापना की। इसके साथ प्रत्येक दिन के लिए पूज्य एक देवता और उसके पूजाफल का विधान किया। सम्यक और स्वस्थ जीवनयापन करने के इच्छुक भक्त इन वारों से संबद्ध देवताओं की पूजा करते हैं। पूजा के स्वरूप में देवताओं का ध्यान करना, उसके मंत्र का उच्चारण करना. उसके लिए या उसी का होम करना. उसके नाम पर दान और उसके विधान का जप-तप करना…इस प्रकार प्रत्येक वार से संबद्ध देवता की पूजा का अपना पृथक फल होता है।
वार | देवता | पूजाविधि | फल |
१. आदित्यवार | शंकर | प्रतिमा पूजन ब्राह्मण-भोजन |
पाप शांति और रोग मुक्ति |
२. सोमवार | लक्ष्मी | ब्राह्मण-भोजन | धन-प्राप्ति |
३. मंगलवार | काली | दालों का दान और ब्राह्मण-भोजन |
रोग शांति |
४. बुधवार | विष्णु | दधि, अन्न आदि से विष्णु-पूजन |
मित्र,पुत्र सत्री आदि की पुष्टि |
गुरुवार | गुरु | वस्त्र, घृत,यज्ञोपवीत आदि से गुरु पूजा |
दीर्घायुष्यलाभ |
६. शुक्रवार | उशना | षट रस पदार्थों से देवता ब्राह्मण पूजन |
भोग-प्राप्ति |
७. शनिवार | तिलक- | होम, दान | रूपवती र्त्री की |
सूतजी कहते हैं कि देव यज्ञादि से परिपूर्ण घर सुख-शांतिदायक होता है। घर से दस गुना कोष्ठ. कोष्ठ से दस गुना तुलसी या पीपल के नीचे का स्थल उससे दस गुना मंदिर, उससे दस गुना कावेरीं, गंगा आदि का तीर्थ, समुद्र तट, पर्वत शिखर पर पूजन करने से फल की प्राप्ति होती है। पूजा के लिए जितना सुरम्य स्थल हो, प्राकृतिक संपदा हो, उतनी ही शुद्ध मन से की जाने वाली पूजा का फल मिलता है। सूतजी कहते हैं कि युगानुरूप फल-प्राप्ति के अंश में घटा-बढ़ी होती रहती है। सत्य युग में पूर्ण फल, त्रेता में एक तिहाई और द्वापर में अर्ध फल की प्राप्ति होती है। कलियुग में यह मात्रा एक चौथाई रह गई है, किंतु शुद्ध हृदय से किया गया पूजन पूरा फल देता है।
कुछ विशेष दिनों में पूजा का फल अधिक होता है। सामान्य दिन की अपेक्षा रवि संक्रांति के दिन दस गुना, तुला और मेष संक्रांति के दिन उससे दस गुना और चंद्र-ग्रहण में उससे भी दस गुना तथा सूर्य-ग्रहण में सर्वाधिक फल प्राप्त होता है। सूर्यग्रहण पूजा के लिए सर्वोत्तम समय है।
सूतजी से मुनियों ने पूछा कि हे महात्मन्! आप शिवजी की पार्थिव पूजा के विधान को बताने की कृपा करें। इस पर सूतजी बोले-हे मुनियों! मैं तुम्हें स्त्री-पुत्रादि प्राप्त करने वाला, अकाल मृत्यु को दूर करने वाला, धनधान्य देने वाला विधान बताता हूं। स्वयं निर्मित शिवलिंग पर एक सेर, देवताओं द्वारा बनाए शिवलिंग पर तीन सेर तथा स्वयं प्रकट शिवलिंग पर पांच सेर अन्न का नैवेद्य चढ़ाना चाहिए। लिंग का प्रमाण बारह अंगुल चौड़ा तथा पच्चीस अंगुल लंबा है। इस प्रकार पार्थिव रूप से की गई लिंग पूजा सभी अभीष्ट फलों को देने वाली है।
यह सारा बिंदु नादात्मक है। शक्ति का नाम बिंदु और शिव का नाम नाद है। इन दोनों का समन्यव शिवलिंग है और शिवजी के समाविष्ट होने के कारण योनि और लिंग दोनों रूप जगत के सृष्टा हैं। इसके साथ देवी रूप माता और बिंदु रूप पिता नाद की पूजा करने से परम आनंद की प्राप्ति होती है। आदित्यवार के दिन गोबर, गौमूत्र, गौ का दूध, घी और मधु को मिलाकर शिवलिंग को स्नान कराकर नैवेद्य अर्पण करन्रा चाहिए।
सूतजी बोले-हे मुनियो! प्रकृति में आठ बंधन होते हैं। पंचतन्मात्रा और बुद्धि, गुणात्मक अहंकार में बंधने के कारण आत्मा जीव कहलाती है। जीव देहात्मक है और उसकी क्रिया कर्म है। कर्म का फल होता है, और कर्मफल पाने के लिए बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है। शरीर के तीन रूप स्थूल, सूक्ष्म और कारण होते हैं। स्थूल शरीर व्यापार करता है, सूक्ष्म शरीर मांग करता है तथा कारण शरीर आत्मा के उपभोग का आधार है। कर्म के रज्जु से बंधा हुआ यह शरीर चक्रवत् घूमता रहता है। जीव का यह बंधन शिव की पूजा से ही दूर होता है। शिवलिंग में मन, वचन और कर्म से आस्था रखते हुए उसकी पूजा करते हुए मनुष्य शिव रूप और आत्माराम हो जाता है।
मुनियों ने पूछा कि लिंग आदि के भेद से पूजा का विधान क्या है? तब सूतजी ने बताया-सबसे पहला प्रणव लिंग है। यह स्थूल और सूक्ष्म दोनों हैं और इसे ही पंचाक्षर कहा गया है। पृथ्वी के विकास से पांच लिंग कहे गए हैं :-
स्वयंलिंग : देवता और ऋषियों के फलस्वरूप पृथ्वी को फोड़कर प्रगट होने वाला स्वयं लिंग कहलाता है। बिंदु लिंग : इसे पृथ्वी आदि की वेदिका पर प्रणव मंत्र से लिखा जाता है। प्रतिष्ठित लिंग : एक पात्र में रखकर घर में रथापित किया गया लिंग। चर लिंगः प्रत्येक पूजा काल में बनाया गया और फिर विसर्जित किया जाने वाला लिंग गुरु लिंग: गुरु द्वारा प्रतिष्ठापित किया गया शिव रूप लिंग। भक्त को सब कार्यों से पहले गणेशजी की वंदना करनी चाहिए और फिर दैहिक. दैविक, भौतिक तापों को दूर करने के लिए विष्णु का पूजन करना चाहिए।
इसके बाद शेवजी का महाभिषेक करके. उन्हें नैवेद्य समापेत करते हुए ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। एक लाख मंत्रों के द्वारा शंकर को नमस्कार करके १०६ मंत्रों द्वारा सूर्य को नमस्कार करना चाहिए। शिवजी की कृपा दृष्टि पाने के लिए अपने को बिलकुल अकिंचन समझकर विनती करनी चाहिए। मुनियों ने सूतजी से प्रार्थना की कि वे पार्थिव महेश्वर की महिमा का वर्णन करें, जिसे उन्होंने व्यासजी के मुंह से सुना। सूतजी बोले-पार्थिव लिंग सक्से श्रेष्ठ है। देवता, ऋषि, मनुष्य, गंधर्व, सर्प और स्वयं ब्रह्मा तथा विष्णु पार्थिव महेश्वर के पूजन से पूर्णकाम हुए हैं। जिस तरह से नदियों में श्रेष्ठ गंगा है, मंत्रों में ओंकार है, वर्णों में ब्राह्मण, पुरियों में काशी है और शक्ति में दैवी शक्ति श्रेष्ठ है।
उसी प्रकार पार्थिव महेश्वर सबसे अधिक श्रेष्ठ और पूजनीय हैं। पार्थिव महेश्वर की पूजा करने वाला भक्त शिव लोक का वासी होता है। और जो ब्राह्मण होकर भी पार्थिव महेश्वर की पूजा नहीं करता, वह नरक में जाता है। पार्थिव महेश्वर की संख्या इच्छा के अनुसार ही मानी गई है।
विद्या पाने के लिए एक सहस्र, पुत्र की प्राप्ति के लिए डेढ़ सहस्र और भूमि की प्राप्ति के लिए एक सहर्त्र तथा धन-वस्त्र की प्राप्ति के लिए पांच सौ पार्थिव महेश्वर बनाकर उनका पूजन करना चाहिए। इन सबसे महत्त्वपूर्ण है मोक्ष की अभिलाषा। इसके लिए एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाकर पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार पूजा करने से ब्राह्मण और ऋषि के शाप से पीड़ित व्यक्ति भी त्रिजगन्मयी अष्टमूर्ति-शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, ईश्वर, महादेव, पशुपति का पूजन करने से शापमुक्त होकर भगवान शिव के सायुज्य को प्राप्त करता है।
मुनियों ने शिवपूजा के अन्य साधारण और असाधारण विधानों को जानना चाहा तो सूतजी बोले कि भक्त को चाहिए कि वह पवित्र स्थान से गृहीत मिट्टी से पिंड बनाए। पिंड बनाने से पहले उसे जल से शुद्ध कर ले और पार्थिव महेश्वर की रचना करे। ॐ नमः शिवाय मंत्र से पूजा की सामग्री को शुद्ध करे, भुरक्षी मंत्र से सिद्ध करे और आपोऽस्मान् मंत्र से जल का संस्कार करे।
‘नमः ते रुद्य’ से स्फटिकबंध करे और नमः करते हुए पंचामृत से प्रोक्षण करे तथा नमोनीलग्रीवाय मंत्र से महेश्वर की प्रतिष्ठा करे और एतते रुद्वाय मंत्र से सुंदर आसन समपिंत करे। ‘नमो महान्तम्’ मंत्र से ‘याते रुद्र’ उच्चारण करते हुए पाथिव महेश्वर को आसन पर बिठाए। इसके बाद इस मंत्र से स्नान, रुद्र, गायत्री से अर्घ्य अर्पित करे। फिर दाधिकादयो घतयावः प्रथथव्याम् मंत्रों से दही, घो और दूध से स्नान कराए। इस प्रकार वेद विधि से पार्थिव लिंग की पूजा करे।
यह विधि अपेक्षाकृत कठिन है। इसलिए एक साधारण विधि का उल्लेख भी किया गया है। सूतजी कहते हैं कि शिव का भक्त हर. शंभु, शूलपाणि, शिव, पशुपति आदि अनेक नामों का स्मरण करके मिट्टी से शिवलिंग की रचना करे। फिर स्नान-पूजन कराकर क्षमा-याचना करे तथा ऑ नमः शिवाय का जाप करते हुए शिवजी का ध्यान करे। हाथ में पुष्प और अक्षत लेकर भगवान शंकर से इस प्रकार याचना करे-हे शिव! मैं आपका ही हुं, क्योंकि आपमें चित्त लगाया हुआ है।
आप वेदों. शास्त्रों, ऋषियों के द्वारा भी अगम्य, अज्ञेय हैं। में आपकी माहेमा का पार कैसे पा सकता हूं। अज्ञान और ज्ञान से मैंने जो भी आपको भक्ति समर्पित की है वह आपकी ही कृपा का फल है। आप मेरी रक्षा करें, मैं आपका शरणागत हूं। इस प्रकार विनम्र प्रार्थना करते हुए भक्त को चाहिए कि वह शिवलिंग की प्रदक्षिणा करे और शिवलिंग का विसर्जन करे। सत्यवृत्ति आचारवान शिव भक्त के लिए नैवेद्य अग्राह्य नहीं है। शिव नैवेद्य के दर्शन मात्र से पाप भाग जाते हैं।
उसका भक्षण करने से तो पुण्य प्राप्त होते हैं। शिव भक्त को बहुत अधिक श्रद्धा के साथ शिव नैवेद्य का भक्षण करना चाहिए। हां, जहां पर पवित्रता और सात्विकता नहीं है और जहां चांडालों का अधिकार है, यदि वहां कोई नैवेद्य का भक्षण नहीं करता तो उसे क्षमा किया जा सकता है। एक बात और जान लेनी चाहिए कि बाणलिंग. लोहलिंग, सिद्धिलिंग और स्वयंभूलिंग में तथा संपूर्ण प्रतिमा के पूजन में चांडालों का अधिकार नहीं है। इसके साथ बिल्य महादेवजी का रूप है। बिल्व पूजा में शिवजी का जल से अभिषेक करनेवाला भक्त ब्राह्मण को भोजन करानेवाला भक्त अनंत सुख और विभूति को प्राप्त होता है।
मुनियों ने रुद्राक्ष की महिमा के विषय में बताने के लिए सूतजी से प्रार्थना की। सूतजी ने कहा-रुद्राक्ष विभूति और शिवजी का नाम इन तीनों का फल त्रिवेणी फल के समान माना गया है। जो भक्त शिव नाम का स्भरण करता है, रुद्राक्ष धारण करता है और भस्म कां अपने शरीर पर धारण करता है, वह पार्पनाशक और पुण्यदायक भक्त के रूप में औरों को भी पुण्य प्राप्त कराता है। ऐसे भक्त का दर्शन त्रिवेणी के दर्शन के समान है।
शिवजी के अनेक नामों में सुरसरि, विभूति, सूर्यतनया, यमुना, तथा रुद्राक्ष भागीरथी और सारे पापों को नष्ट करनेवाकी सरस्वती है। भस्म तीर्थ रूप है। महाभस्म और स्वल्प भस्म इसके दो रूप हैं। श्रौत, स्मार्त और लौकिक भेदों से महाभर्म कई प्रकार का होता है। इसी प्रकार स्वल्प भस्म के भी कई भेद होते हैं। द्विजों के लिए श्रौत और स्मार्त तथा अन्यों के लिए लौकिक भस्म धारण करने का विधान कहा गया है। गोबर से युक्त भस्म आग्नेय कही जाती है। और इससे भी त्रिपुंड बनाना चाहिए। त्रिपुंड में तीन रेखाएं होती हैं। तीन अंगुलियों के बीच से प्रयत्नपूवेक भस्म को लेकर त्रिपुंड धारण करना चाहिए और उसके बाद ही शिव नाम का जाप करना चाहिए। रुद्राक्ष की मॉहमा बहुत विंचंत्र है।
सहस्रों वर्ष पहले जब सहस्रों वर्षों तक तप करने के बाद भी शिवजी को संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने अपनी लीला के वशीभूत होकर नेत्र बंद कर लिए। उस समय उनके नेत्रों से जल के कुछ कण पृथ्वी पर गिरे और वे रुद्राक्ष के रूप में उत्पन्न हुए। अयोध्या, मथुरा, लंका, मलयाचल, काशी और सह्याद्रि में पैदा होने वाले रुद्राक्ष शिवजी के चारों वर्णों और विष्णु के भक्तों को दे दिए। शिवजी ने ही रुद्राक्ष की अनेक जातियों का विधान किया। आवले के परिमाण वाला रूद्राक्ष सर्वोत्तम माना। बद्रीफल जैसा मध्यम और चने के आकार वाला अधम माना। आवले के आकार
वाला रूद्राक्ष अरिष्टनाशक और दूसरा सौभाग्य वर्धक तथा तीसरा सिद्धिदायक होता है। स्वयं छिद्र रुद्राक्ष बहुत अच्छा होता है। 9900 रुद्राक्षों को धारण करने वाला शिव रूप, ५५० रुद्राक्षों को धारण करने वाला महान् भक्त और ३०० रुद्राक्षों को तीन सूत्री यज्ञोपवीत के रूप में धारण करने वाला पवित्र आत्मा और 90c रुद्वाक्षों को धारण करने वाला दृढ़्रती कहलाता है।
यह विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि रुद्राक्ष धारण किए बिना शिय नाम की भक्ति फलदायक नहीं होती। रुद्राक्ष के एक से लेकर 9४ तक मुख होते हैं। एकमुखी रुद्राक्ष शिव रूप होता है, और मुक्ति तथा भुक्ति प्रदाता है। द्विभुखी रुद्राक्ष पापनाशक होता है। त्रिमुखी सिद्धिदायक होता है। और चतुर्मुख फलदायक होता है। इस तरह रुद्राक्ष के जितने मुख होंगे उनको धारण करने वाला उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होता जाएगा। रुद्राक्ष को धारण करने की एक विधि है। निम्नलिखित जाप करके ही रुद्राक्ष धारण करना चाहिए :
- ॐ हीं नम:
- ॐ नम:
- ॐ क्ली नम
- ॐ ॐ ही नम
- ॐ क्लीं नम:
- ॐ ही हं नम:
- ॐ हैं हैं नम:
- ॐ है हीं नम:
- ॐ ॐ हं नम:
- ॐ क्लीं हुं नम:
- ॐ हीं क्लीं नम:
- ॐ हुं क्रुं नम:
- ॐ हुं क्रुं क्षु रूं नम
- ॐ क्षु क्लुं नम:
इस मंत्र के बिना रुद्राक्ष नहीं धारण करना चाहिए। रुद्राक्ष सें देवता लोग प्रसन्न होते हैं और भूत-पिशाच भी डरते हैं।