The verses of Shiv Puran in Hindi highlight the importance of devotion and faith.
Shiv Puran in Hindi – रुद्र संहिता
सृष्टि खंड
एक समय शौनक आदि मुनियों ने नैमिषारण्य में सूतजी से अपनी जिज्ञासावश कुछ प्रश्न किए, उन्होंने पूछा :
- शिवजी का सर्वश्रेष्ठ रूप और पार्वती सहित उनका दिव्य चरित्र क्या है ?
- शिवजी किस रूप से प्रसन्न होते हैं और प्रसन्न होने पर क्या फल देते हैं ?
- ब्रह्मा, विष्णु और महेश शिवजी के अंश से उत्पन्न हुए। फिर इनमें पूर्णांश के रूप में महेश की स्वीकृति क्यों है ?
सूतजी ने मुनियों से कहा कि एक बार नारदजी ने ब्रह्माजी से इसी प्रकार के प्रश्न पूछे थे। नारदजी ने पूछा था कि शिवत्व का पूर्ण रूप क्या है ? कब ब्रह्माजी ने नारदजी को विस्तार से शिवत्व का वर्णन किया और सृष्टि की इच्छा, उत्पत्ति और स्वरूप पर प्रकाश डाला। ब्रह्माजी ने कहा कि प्रारंभिक प्रलयकाल में जब स्थावर जंगम का विनाश-काल आया था और सूर्य, ग्रह, तारे सब नष्ट हो गए थे और अंधकार का राज्य चारों तरफ फैला हुआ था, तब एक सद्रह्म ही शेष रह गया था।
वह सद्बह्म जो योगियों द्वारा ध्यानगम्य है, मन, वाणी और इंद्रियों के ज्ञान से परे है, नाम, रूप, वर्ण रहित है, सत-असत से परे है। वह सत्य ज्ञान अनंत स्वरूप है और अमूर्त्त परमतत्त्व सदा शिव का लिंग ही उनका स्वरूप है। इस स्वरूप को ही भक्त और ज्ञानी ईश्वर कहते हैं। यह परमेश्वर स्वरूप शिव ही अपने से अनश्वर शक्ति उत्पन्न करता है। इसी का नाम प्रकृति, त्रिगुणमयी माया, और निर्विकार बुद्धि के रूप में जाना जाता है। प्रकृति, शक्ति रूपा, अंबिका, त्रिदेव-जननी, नित्य तथा मूल प्रकृति कहलाती है। प्रकृति की अंबिका रूप में आठ भुजाएं और विचित्र मुख है। माया के संयोग से यह अन्य अनेक रूपों में हो जाती है।
परब्रहम शिव सिर पर गंगा और ललाट पर चंद्रमा धारण किए हुए हैं। उनके तीन नेत्र हैं, पांच मुख हैं और दस भुजाएं हैं। वे काल स्वरूप भगवान हैं और त्रिशूलधारी हैं। उन्होंने ही काशी रूप में ही अपने शिव क्षेत्र को स्थापित किया है। यह शिव क्षेत्र शिव और पार्वती से रहित कभी नहीं होता। इसलिए यह अविमुक्त क्षेत्र कहलाता है।
सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में ब्रह्माजी ने नारदजी को बताया कि सृष्टि की इच्छा होने पर शिवजी ने इसका भार अपने आप नहीं लिया, सृष्टि की इच्छा बलवती होने पर उनके दक्षिण भाग के दशमांश से एक पुरुष का आविर्भाव हुआ। इसका नाम शिवजी ने विष्णु रखा और उसे परम कार्य करने के लिए गहन तप करने का आदेश दिया। विष्णुजी ने बहुत समय तक तप किया, तब शिवजी की कृपा से विष्णु के शरीर से अनेक जलधाराएं निकलीं और उनपर मोहित होकर विष्णुजी सो गए।
इसी कारण नार अथात् जल पर सोने के कारण उनका नाम नारायण पड़ा। उत्त समय विष्णुजी से ही सारे तत्त्यों का जन्म और विस्तार हुआ। सबसे पहले प्रकृंति से महत्त्व उससे फिर तीन गुण, तीन गुणों से अहंकार, अहंकार से पांच तन्मात्राएं, शब्द, रूप, रस और गंध और उससे पंचभूत-पृथ्वी, जल, आकाश, तेज और वायु प्रकट हुए। इसके बाद पांच ज्ञानेंद्रियां-नेत्र, नाम, नाक. जिहा और त्वचा तथा पांच कर्मेंद्रियां-वाणी, चरण, हस्त, गुदा और उपस्थ उत्पन्न हुई। इस प्रकार शिवजी की इच्छा से ही यह 28 प्रकार का सार तत्त्व रूपक प्रकट हुआ। और सब एकत्र होकर ब्रह्म रूप जल में सो गए।
भगवान नारायण के सो जाने पर शिवजी की इच्छा से ही उनकी नाभि से एक कमल उत्पन्न हुआ और फिर उस कमल से शिवजी ने मुझे (ब्रह्मा) उत्पन्न किया। मुझे उस समय कुछ भी पता नहीं था। कुछ क्षण बाद मैंने अपने कर्त्ता को खोजने का प्रयास किया लेकिन मैं उसका मूल नहीं पा सका।
तब उस नाल के सहारे ऊपर जाने पर मुझे एक आकाशवाणी सुनाई दी और बारह वर्ष कंठिन तप करने के बाद विष्णुजी के दर्शन हुए। मैं उनको पहचान नहीं पाया और उनसे उनका परिचय पूछा। जब विष्णु ने अपने को सर्वज्ञ और मेरा पिता बताया तो मैंने उनका तिरस्कार किया और अपशब्द कहे। हमारे में विवाद छिड़ गया और विवाद ने संघर्ष का रूप ले लिया। सहसा हम दोनों के बीच स्तभ रूप में लिंग प्रकट हुआ और हमने युद्ध बंद करके उससे परिचय देने की प्रार्थना की।
शिवजी ने अपना परिचय दिया। उस समय हमने ॐ की गंभीर ध्वनि सुनी तथा शिवलिंग को विष्णुजी ने विशिष्ट रूप में देखा। उसके दक्षिण भाग में अकार, उत्तर भाग में उकार और मध्य भाग में मकार को देखा। सत्य. आनंद और अमृत स्वरूप परब्रह्म ही ॐ में दृष्टिगोचर हो रहा था। जब हम उसके विषय में विचार कर रहे थे तब एक महात्मा वहां आए और उन्होंने बताया कि ॐ शिवजी का ब्रहम स्वरूप ही है और वह अगोचर है। ॐ के अ, उ और म वर्ण ब्रहमा, विष्णु और महादेव के प्रतीक हैं।
और ये तीनों ही रूप सृष्टि मोहन तथा अनुग्रह कार्यों के प्रतीक हैं। अकार बीज है, उकार कारण रूप योनि है और मकार बीजी है। इस प्रकार महेश्वर की इच्छा से बीजी, बीज योनि में गिरकर चतुर्दिशाओं में विकसित होने लगा। उससे एक सुवर्णमय अंड उत्पन्न हुआ और यह वर्षों तक जल में स्थित रहा। इसके दो भाग हो गए, ऊपर के भाग से स्वर्गलोक और नीचे के भाग से पृथ्वीलोक प्रकट हुए। उस अंड से ही चतुर्भुज शिवजी का आविर्भाव हुआ। यही शिवजी त्रिरूपधारी ब्रहा विष्णु और महेश रूप में प्रभु हैं।
हम दोनों ने महादेव की वेदमंत्रों से स्तुति की और शिवजी के द्वारा दस भुज रूप परम कांतिमान पंचमुख रूप में अपने सामने प्रकट होते हुए देखकर हमें संतोष हुआ। शिवजी से ही ४५ अक्षरों वाला गायत्री मंत्र, आठ मात्राओं वाला शिव मंत्र, मृत्युंजय, चिंतामणि मंत्र तथा दक्षिणा मूर्ति मंत्र उत्पन्न हुए।
हम दोनों ने इन पांचों मंत्रों को ग्रहण कर शिवजी की स्तुति प्रारंभ की। इसी समय भगवान शंकर के प्रसन्न होनेपर विष्णु ने उनसे पूछा कि आप कृपा करके यह बताइए कि आप किस रूप में प्रसन्न होते हैं, क्या फल प्रदान करते हैं और आपका दिव्य रूप क्या है, इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए एक पूरा वृत्त जानना आवश्यक है।
एक समय हिमालय पर्वत की सुंदर कंदरा में नारदजी ने सुदीर्घ तप किया और अहं ब्रह्माऽस्मि की भावना से समाधिस्थ होकर ब्रह्म विधान को अपनाया। नारदजी के घोर तप से इन्द्र विचलित हो गया और उसने कामदेव से अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए सहायता मांगी। इन्द्र को यह भय था कि तपं सफल हो जाने पर नारद कहीं इंद्र पद की मांग न करने लगें।
कामदेव ने इन्द्र की बात मानकर नारदजी का तप भंग करने का विचार किया। कामदेव नारदजी के तपस्या क्षेत्र में गया और वहां जाकर अपने सभी कामपूर्ण प्रभावों का व्यापक प्रसार किया। लेकिन नारदजी में लेशमात्र भी विकार पैदा नहीं हुआ। नारदजी उसी स्थान पर तपस्या कर रहे थे जहां पर शिवजी ने कामदेव को भस्म किया और वह सारा क्षेत्र काम के प्रभाव से परे घोषित कर दिया गया था। जब इन्द्र को कामदेव की असफलता का समाचार मिला तो वह स्वयं आया और नारदजी की प्रशंसा करने लगा।
इन्द्र की प्रशंसा से नारदजी में गर्व उत्पन्न हो गया और वे अपने आपको कामजित मानने लगे। उनके मन में इतना मोह पैदा हुआ कि वे शिवजी के पास जाकर अपनी कामविजय की कथा सुनाने लगे। शिवजी ने नारदजी को आत्मप्रशंसा और आत्मविज्ञापन न करने का परामर्श दिया, लेकिन नारदजी नहीं माने और वह ब्रहाजी के पास पहुंच गए।
वहां भी उन्होंने कामविजय की कथा सुनाई। तदुपरांत विष्णुलोक में भी उन्होंने वही बात बताई। इस प्रकार नारदजी के मन में अपने कामविजयी होने का अहंकार पूर्ण रूप से भर गया। विष्णुजी ने नारदजी का यथोचित स्वागत किया। और जहां उनके ज्ञान, वैराग्य की प्रशंसा की वहीं नारदजी के इस आचरण के लिए शिव की मन-ही-मन स्तुति भी की।
नारदजी का मोह और अहंकार इतना बढ़ गया था कि उसका नाश होना आवश्यक था। अतः शिवजी की इच्छा से विष्णु ने नारद के मोह और अहंकार के नाश के लिए एक योजना बनाई। विष्णु ने नारदन के मार्ग में एक सुंदर नगर बनाया और वहां के शासक शीलनिधि द्वारा अपनी अद्वितीय सुंदरी कन्या का स्वयंवर करवाया। नारदजी वहां पहुंचे तो उस कन्या ने उन्हें प्रणाम किया। उसे देखते ही वह उसपर मुग्ध हो गए।
नारदजी ने उसकी भाग्य-रेखा पर पढ़ा कि उसका पति अजेय होगा। इसलिए नारदजी उसे प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठे। इस कार्य को संपन्न करने के लिए नारदजी विष्णु का रूप लेने के लिए उनके पास गए और उस कन्या को वरण करने की अपनी इच्छा व्यक्त की। तब विष्णुजी ने नारद को वानर का रूप देकर उनका मोह भंग करने के लिए उन्हें स्वयंवर में भेज दिया।
नारदजी स्वयंवर स्थल पर पहुंच गए। शिवजी की माया के कारण वहां उपस्थित सभी राजाओं ने नारदजी को उनके वास्तविक रूप में ही देखा, लेकिन शिवजी के दो गण वहां ब्राह्मण वेश में थे। और वे नारद से हास-परिहास करने लगे। जब कन्या वरमाला हाथ में लिए वहां पर उपस्थित हुई तो वे उचक-उचककर उसे देखने लगे। उस तरफ वह कन्या नारदजी को देखकर अत्यंत त्रस्त हो रही थी।
उसने जैसे ही एक राजा के रूप में विष्णुजी को द्वार पर देखा तो उनके गले में माला डाल दी। यह देखकर नारदजी बहुत दुःखी हुए तथा उन्होंने रुद्रगणों के कहने पर जल में अपना प्रतिबिंब देखा। नारदजी को बहुत क्रोध आ गया और समाप्त नहीं हुआ। वह सीधे विष्णु को खरी-खोटी सुनाने लगे। नारदजी ने विष्णु को स्त्री वियोग के दुःखी होने का शाप दिया और यह भी कहा कि इस वियोगजन्य दु:ख को दूर करने के लिए आपको बानर की सहायता ही लेनी होगी। विष्णुजी ने शिवजी की माया को समझते हुए शाप को शिरोधार्य किया।
शिवजी ने अपनी माया को समेट लिया और उसके तुरंत बाद नारदजी अपनी सहज स्थिति में आ गए और अपने आचरण के लिए विष्णु के चरणों में गिरकर क्षमा-याचना करने लगे। तब उन्हें पता चला कि उनके दर्प को समाप्त करने के लिए शिवजी ने ही माया का यह जाल रचा था। नारदजी को यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ और उन्हें अनुभव हुआ कि शिवजी के आदेश से विष्णु, ब्रह्मा तथा अन्य देवता कार्य करते हैं। शिव ही मूल रूप हैं और उस मूल के तीन विशिष्ट रूप हैं।
सृष्टि जन्मदाता ब्रह्मा, पालनकर्त्ता विष्णु और सहारकर्ता महेश या रुद्र। ऐसे शिबजी की पूजा करने से, रुद्राक्ष और भस्म धारण करने से शिवजी प्रसन्न होते हैं और साधक का अज्ञान दूर होता है। विष्णुजी ने बताया कि हे मुनि नारद, भगवान शिव आपका कल्याण करेंगे आप ब्रह्मलोक में जाइए और ब्रह्माजी से शिवस्तोत्र सुनिए तथा शिवजी की पूजा कीजिए। इसके उपरांत विष्गुजी अंतर्ध्यान हो गए और नारदजी पृथ्वी पर आकर विभिन्न स्थानों में शिवलिंगों की पूजा और अर्चना करने लगे।
यहीं पर ब्राह्मण वेशधारी गणों के दर्शन नारदजी को हुए। गणों के विषय में शाप देने के कारण नारदजी को पश्चात्ताप हुआ, किंतु उनकी वाणी असत्य नहीं हो सकती थी अतः नारदजी ने शाप के उद्धार का उपाय बताया। उन्होंने कहा कि श्रेष्ठ मुनि के घर उत्पन्न होकर तुम राक्षस बनोगे और अतुल बल, प्रताप, तथा ऐश्वर्य प्राप्त होगा। इस पर शिव-गण प्रसन्न होकर चले गए। मुनियों ने सूतजी से पूछा कि यह विस्तार से बताने की कृपा करें कि किस प्रकार शिव अनेक रूपों में आकर सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करते हैं। तब सूतजी ने शिवजी के द्वारा कही गई बात को विस्तार से बताया। इसके अनुसार चार हजार युग का ब्रह्मा रूपी मेरा एक दिन होता है और इतने ही परिमाण की एक रात्रि होती है।
इस परिमाण में ही मेरी सौ वर्ष की आयु होगी. प्रत्येक वर्ष में बारह महीने और महीने में तीस दिन और परिमाण पूर्व कथित होगा। मेरा एक वर्ष विष्णुजी का एक दिन होगा और इस रूप में उनकी सौ वर्ष की आयु होगी। विष्णु का एक वर्ष रुद्रजी के एक दिन के बराबर होगा और इसी क्रम में वे सौ वर्ष के होंगे। रुद्रजी का एक श्वास ब्रह्मा, विष्णु और हर, गंधर्व, राक्षस तथा सर्पों का २.१०० अहोरात्र का परिमाण होगा।
रुद्र के श्वास लेने से एक पल व्यतीत होगा और इस तरह ६० पलों की एक घड़ी और ६० घड़ियों का रुद्र का एक दिन होगा। रुद्र के श्वास लेने की कोई संख्या नहीं है। और समग्र, सृष्टि के प्रलय हो जाने पर भी रुद्र ही शासन करेंगे। ब्रह्मा और विष्णु ने शिवजी को प्रणाम किया और उनके आदेश को शिरोधार्य करने का निश्चय व्यक्त किया। इस पर शिवजी संतुष्ट होकर अंतर्धान हो गए। इस वृत्तांत को सुनाकर ब्रह्माजी बोले कि उसी समय से लोक में लिंगपूजा प्रचलित है।
सबसे पहले ब्रहा और विष्णु ने लिंग पूजा को अपनाया और उसके बाद अन्य लोगों ने। सूतजी बोले कि प्रतिष्ठित लिंग की सविधि उपासना ऋद्धि-सिद्धि देने वाली है। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र तीनों ही भगवान शिव के अंग रूप हैं। लेकिन गुणवत्ता की दृष्टि से रुद्र की श्रेष्ठता का आधार स्वयं शिव रूप में है। मुनियों ने सूतजी के प्रति कृतज्ञता प्रकट की और उन्होंने शिव-पूजन की विधि बताने का अनुरोध किया। ऋषियों के प्रश्न को सुनकर सूतजी बोले कि ब्रह्माजी से नारद ने, उपमन्यु से कृष्ण ने और सनतकुमार से व्यासजी ने यही प्रश्न किया। उन लोगों ने शिवलिंग की पूजा का जो विधान वर्णित किया है उसे मैं आप लोगों को बताता हुं।
प्रत्येक शिवभक्त को चाहिए कि वह ब्रह्ममुहूर्त में उठे और शिव, गुरुदेव और तीर्थो का रमरण करता हुआ शिवस्तोत्र का पाठ करे। दक्षिण दिशा में जाकर नित्य कर्म संपन्न करके हाथ-पैर मिट्टी से धोकर साफ करे। इसके बाद स्नान करके गणेशजी की पूजा करे और फिर शिवलिंग की स्थापना करके तीन बार. प्राणायाम करे और तीन बार आचमन करे। ‘व्र्यंबकम यजामहे।’ इस मंत्र का उच्चारण करके शिवजी का ध्यान करे और फिर प्रणव मंत्र से षड्न्यास करते हुए शिवजी की पूजा प्रारंभ करे।
भक्त को चाहिए कि वेद मंत्रों कां उच्चारण करते हुए वह सहस्र जल-धारा से शिवलिंग को स्नान कराए फिर चंदन और पुष्प आदि अर्पित करके वेदम्त्रों के द्वारा स्तुति करता हुआ अपना प्रणाम निवेदन करे। अंजलि में पुष्प लेकर आप्तकाम होने की प्रार्थना करे और इस प्रार्थना के साथ ही शिवलिंग पर फूलों की वर्षा करे। अपने अपराधों की क्षमा-याचना के लिए आचमन करे, उसके उपरांत प्रसन्न मन से व्यापार आदि करता हुआ सिद्धि को प्राप्त करे।
पूर्व समय की बात है कि ब्रह्मा देवताओं को साथ लेकर विष्णु लोक गए। विष्णुर्जी ने देवताओं के आने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि हम यह ज्ञान प्राप्त करने आए हैं कि दुरित-विनाश के लिए किस देवता की सेवा करनी चाहिए। उनके इस प्रश्न के उत्तर में विष्णुजी बोले कि भगवान शंकर सब दुःखों का निवारण करने वाले हैं इसलिए वे ही सेव्य हैं। शिवजी की पूजा से मनुष्य के सभी दुरित नष्ट होते हैं और उसे सभी सुख प्राप्त होते हैं तथा मुक्ति भी सुलभ हो जाती है।
विश्वकर्मा ने विष्णुजी के आदेश से और विभिन्न देवताओं के अनुरोध पर अनेक देवों को प्रदान करने के लिए अनेक शिवलिंगों की रचना की और उन्हें विभिन्न देवताओं को दे दिया। इन्द्र के लिए पदम राग मणि खचित, विश्वदेव के लिए रजतमय, कुबेर के लिए स्वर्णमय, अश्विनीकुमार के लिए पीतल का, नाग के लिए चंदन का, धर्मराज के लिए पीतमणि का, लक्ष्मी के लिए स्फटिक का, छाया के लिए मृत्तिकामय, वरुण के लिए श्यामवर्ण का, आदित्य के लिए ताम्रमय, विष्णु के लिए इंदु नीलमणि खचित, चंद्रमा के लिए मौक्तिक, यज्ञ के लिए दधिमय, ब्रह्मा के लिए सुवर्णमय, और देवी के लिए नवनीतमय लिंगों की रचना करके सब देवताओं को दे दिए।
जब सब देवताओं को लिंग प्राप्त हो चुके, तब विष्णुजी ने उनसे फिर कहा कि ब्रह्म की प्राप्ति का एकमात्र उपाय प्रतिमा-पूजन है। जिस तरह मूल के सीचने से शाखाएं हरी-भरी हो जाती हैं, उसी प्रकार शिवलिंग की पूजा से सभी देवता अपने आपप्रसन्न हो जाते हैं। इस प्रकर विष्णुजी से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके देवता लोग पुनः अपने धाम लौट आए और निष्ठापूर्वक शिवलिंग की उपासना करने लगे। ब्रहाजी ने नारदजी से कहा कि यह जानना भी बहुत आवश्यक है कि किन पत्र-पुष्पों से शिवजी की पूजा करने से क्या फल मिलता है। कमलपत्र, बेलपत्र, शंखपुष्पी से शिवजी का पूजन लक्ष्मीदायक है। 40 कमल-पुष्पों से शिवजी का पूजन रोगनिवारक है और एक सहर्त कमलों से की गई पूजा भार्यादायक है।
जो व्यक्ति मुक्ति का इच्छुक है उसे कुशा से शिवजी की पूजा करनी चाहिए और जिसे आयु की इच्छा है, उसे दूर्वा से तथा पुत्र के इच्छुक को धतूरे से शिव की पूजा करनी चाहिए। जो व्यक्ति शत्रुनाश का फल पाना चाहता है उसे शिवजी की पूजा आक के फूलों से करनी चाहिए। और प्रताप का इच्छुक भी आक के फूलों से शिवजी की पूजा करे। कनेर के फूलों से की गई पूजा दरिद्रता दूर करने वाली होती है तथा हारसिंहार से की जाने वाली पूजा सुख-समृद्धिदायक होती है। शत्रुनाश के लिए जिसमें शत्रु की मृत्यु अभीष्ट हो, वहां राई के फूलों से शिवजी की पूजा करनी चाहिए। केतकी और चंपा पुष्प शिव की पूजा के विधान से बहिष्कृत हैं।
नारदजी ने ब्रह्माजी से शिवजी के अंतर्हित हो जाने के बाद के वृत्तान्त को जानना चाहा। तब ब्रह्माजी ने बताया कि शिवजी के अन्तर्ध्यान हो जाने पर मैंने हंस का और विष्णुजी ने वराह का रूप धारण कर लिया तथा सृष्टि-रचना पर विचार किया। हंस और वराह का रूप धारण करने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए और नारदजी की जिज्ञासा का शमन करते हुए ब्रह्माजी बोले कि हंस की गति ऊपर जाने की निश्चल होती है। और क्षीर-नीर जैसी विवेक बुद्धि तत्त्व-अतत्त्व के ज्ञान में जैसी हंस की होती है, वैसी किसी और पक्षी की नही। हंस ही ज्ञान और अज्ञान के निर्धारण में सर्वाधिक सक्षम है। इसलिए मैंने हंस रूप धारण किया।
वराह की नीचे जाने की निश्चल गति होती है अतः विष्णु ने वराह का रूप धारण किया। इसके बाद नारदजी को सृष्टि-रचना के विवरण से परिचित कराते हुए ब्रह्माजी ने कहा कि शिव के अंतर्हित हो जाने पर विष्णुजी ब्रह्माण्ड से बाहर निकलकर बैकुंठ में चले गए। और उस समय मैंने शिव और विष्णु को प्रणाम करके सबसे पहले जल का निर्माण किया। उस जल में एक अंजलि डालकर २४ तत्त्वों वाला एक अंडा प्रकट किया। वह फिर बिराट हो गया।
उस विराट अंडे में चैतन्य लाने के लिए मैंने बारह वर्ष तप किया। उसके फलस्वरूप विष्णुजी ने उस अणु के अनंत में प्रविष्ट होकर उसे चैतन्य दिया। इसके बाद जब मैंने सृष्टि निर्माण प्रारंभ किया, तब सबसे पहले अविद्या और अंधकार प्रधान पाप की सृष्टि ही मेरे सामने प्रगट हुई।
उससे मैंने स्थावरों की रचना की और पुनः मुख्य सृष्टि की रचना के लिए शिवजी का ध्यान करने लगा। उसके बाद तिरछे चलने वाले जीव पैदा हुए। जिससे असंतुष्ट होकर मैंने सतोगुणी देवों की सृष्टि की। उसके बाद शिवजी के आदेश से रजोगुण प्रधान मानवीय सृष्टि की। इस प्रकार तामसी स्थावर, त्रिर्यक देव तथा मानव सृष्टि हो जाने के बाद मैंने सर्गों की रचना करने का विचार कियां। सर्ग-रचना का विचार आने पर तीन सर्ग उत्पन्न हुए, महत् सर्ग, सूक्ष्म भौतिक
सगे. तथा वैचारिक सर्ग। वैचारिक सर्ग से अष्टविध प्राकृतिक सृष्टि उत्पन्न हुई। इस प्रकृति में विकृति के आने पर अवर्णनीय कुमार सर्ग उत्पन्न हुआ। इसके उपरांत द्विजात्मक सर्ग के अस्तित्व में आने पर मानसपुत्र सनक उत्पन्न हुए। सनक आदि की वैराग्य भावना के कारण जब उन्होंने सृष्टि-रचना की मेरे आदेश की अवज्ञा की तो मुझे क्रोध के साथ इतना अधिक दुःख हुआ कि मेरे नेत्रों में आंसू भी आ गए।
तब भगवान विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने मुझे सांत्वना दी तथा भगवान शिव का ध्यान करने को कहा। मैंने शिवजी का ध्यान किया और मेरे ध्यान से प्रसन्न होकर अर्धनारीस्वर तेजराशि, नीललोहित शिव प्रकट हुए और मेरी प्रार्थना पर उन्होंने अपने तुल्य रुद्रों की सृष्टि की। मैंने हाथ जोड़कर उनसे मानवीय सृष्टि करने की प्रार्थना की जो मरणधवर्मा हो। इस प्रार्थना के बाद भगवान महादेव ने दुःख-सागर में निमग्न होनेवाली और शुभ न लगने वाली सृष्टि करने की अनिच्छा प्रकट की। उन्होंने कहा कि मैं शरणागतों को तत्त्वज्ञ कराने वाला हूं और दुखियों का उद्धारक हूं। इसलिए मैं सुख-दुःखमय प्रजा की सृष्टि नहीं करूंगा। इस सृष्टि का कार्यभार तुम्हीं संभालो। यह बात अलग है कि माया की बाधा तुम्हें इस कार्य में नहीं होगी।
शिवजी के अंतर्ध्यान हो जाने के बाद ब्रह्माजी ने सृष्टि-रचना का कार्य जारी रक्खा। उन्होंने बताया कि मैंने पंचभूतों के पंचीकरण के द्वारा पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, अग्नि, पर्वत, समुद्र और वृक्ष आदि तथा कालादि से पर्यन्त कालों की सृष्टि की। इस पर भी मैं असंतुष्ट रहा और मैंने भगवान शिव का ध्यान किया।
अंबिका सहित शिव का ध्यान करने के बाद जो शक्ति मुझे मिली, उसके द्वारा नेत्रों से मरीचि को, भृगु को हृदय से, अंगिरा को सिर से, पुलह को कर्ण से, पुलस्थ को उदान वायु से, वसिष्ठ को समान वायु से, ऋतु को अपान वायु से, अत्रि को श्रौत से, दत्र को प्राण से, और क्रोड़ से हे नारद तुम्हें और अपनी छाया से कर्दम को उत्पन्न किया। इस कार्य के साथ ही मैंने जब साधनों के आधारभूत धर्म को अपने संकल्प से जन्म दिया। और इस कार्य से मुझे परम संतोष अनुभव हुआ।
इतनी सारी सृष्टि के बाद मैंने पुरुष और नारी के रूप में अपने को ही विभक्त किया। इसमें मनु रूप पुरुष और शतरूपा रूप स्त्री का रूप धारण करके दोनों का विवाह करके मैथुनी सृष्टि उत्पन्न की। मनु के शतरूपा से दो पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद तथा तीन पुत्रियां आकूति, देवहूति, और प्रसूति उत्पन्न हुई। आकूति को रुचि ने, देवहूति को कर्दम ने ग्रहण किया और दक्ष प्रजापति ने प्रसूति को स्वीकार किया। फिर इनकी संतानों से चराचर जगत भर गया।
आकूति ने दक्षिण और यज्ञ को, फिर यज्ञ ने दक्षिण के बारह पुत्रों को जन्म दिया, देवहूति ने भी अनेक संतानें उत्पन्न कीं। दक्ष के चौबीस कन्याएं उत्पन्न हुई। इसमें उसने श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वायु, शांति, सिद्धि, और कीर्ति इन तेरह पुत्रियों को यम को दे दिया और शेष ख्याति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, संतति, अनुरूपा, स्वाहा और स्वधा, भृगु, भव, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, ऋतु, अत्रि, वसिष्ठ, आदि को क्रम रूप से सौंप दीं। इसके बाद तो शिवजी की कृपा से असीमित, सृष्टि उत्पन्न हुईं। असंख्य जातियां उत्पन्न हुईं। इनमें ब्राह्मण, जाति ही सर्वोत्कृष्ट है।
नारदजी से ब्रह्माजी बोले कि हे नारद, मैं और विस्तार से शिव रूप की व्याख्या करता हूं। निगुर्ण भगवान शिव का बाायां अंग विष्णु है, ब्रह्मा उनका सेव्य अंग हैं, और उनका हृदय रुद्र है। इसी क्रम से तीन गुण, सत्त्व, रज और तम की स्थिति है। शिवजी की ही सतोगुणी माया सती रजोगुणी, माया सरस्वती और तमोगुणी माया लक्ष्मी हैं। सतोगुणी माया का सती रूप में शिवजी से ही विवाह हुआ है, जिसने अपने पिता के यज्ञ में अपने पति शिव (रुद्र) का भाग न देखकर उसी समय अपने प्राणों का त्याग कर दिया।
उसके बाद देवताओं की प्रार्थना पर उन्होंने हिमाचल सुता के रूप में पुनः जन्म लिया और तपस्या करके शिवजी को प्राप्त किया। यह सुनकर नारदजी बोले, हे पूज्य पितामह, आप मुझे भगवान शंकर के कैलास गमन और वहां उन्होंने जो महत्त्वपूर्ण कर्म किए, उनको बताने की कृपा करें। ब्रह्माजी बोले-हे नारद, मैं एक वृत्तांत सुनाता हूं। पुराने समय में कांपिल्य नगर में वेद-वेदांगों का ज्ञाता एक राजपुरोहित यज्ञदत्त नाम का एक विद्वान् रहता था। उसका यश चारों ओर फैला हुआ था। उसके एक लड़का था गुणनिधि।
गुणनिधि बचपन में ही बुरी संगति में पड़कर जुआ आदि खेलने लगा था। वह घर का समान चुराकर जुए में हारने लगा। प्रारंभ में गुणनिधि की माता ने जानते हुए भी इसके इस दुर्गुण को पिता से छिपाया। जब भी यज्ञात्त अपने पुत्र के विषय में पूछता था तभी वह कुछ बहाना बनाकर कुछ भी कह देती थी। वह बताती कि गुणनिधि देवपूजन, विद्या-अध्ययन में व्यस्त है। इस प्रकार वह झूठ बोल देती थी। समय आने पर गुणनिधि का विवाह भी हो गया। विवाह के बाद गुणमिधि की माता ने अपने पुत्र से कहा कि अब तुम इन कुकर्मों को छोड़ दो और पिता की ही तरह अपने परपरागत कार्य को करने लगो और शिक्षा प्राप्त करो।
गुणनिधि की माता ने यह भी कहा कि यदि उसके दुष्क्रों का पता राजा को चल गया तो वह उसके पिता की जीविका भी समाप्त कर देगा और पिता दुःखी होंगे। किन्तु इस समय माता के निवेदन का गुणनिधि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह चोरी कर मदिरापान अधिक-से-अधिक करने लगा। इसके साथ दिन-प्रतिदिन घर के आभूषण चुराकर और मां से छीनकर जुए में हारने लगा। माता ने पुत्र के अवगुण छिपाने का दुष्परिणाम देखकर अपना सिर पीट लिया। पर उसके पिता को फिर भी कुछ भी नहीं बताया। भाग्य से एक दिन यज्ञात्त ने अपनी एक अमूल्य अंगूठी एक जुआरी के हाथ में देखी और उस पर चोरी का अभियोग लगा दिया।
तब जुआरी ने गुणनिधि का सारा भेद उसके पिता के सामने खोल दिया। जब पिता ने सारी बातें सुनी तो उसे क्रोध आया, किन्तु साथ-ही-साथ वह लज्जा से पानी-पानी हो गया। उसे अपने ऊपर बहुत क्षोभ हुआ। वह अपने घर आया और अपनी पत्नी से उसी अंगूठी की मांग की। जब उसने देखा कि उसकी पत्नी अंगूठी न देकर तरह-तरह के बहाने कर रही है तो उसने पत्नी को डांटा और बहुत बुरा-भला कहा। किन्तु बाद में अपने भाग्य को कोसने लगा। इस दुःख से दुखी होकर यज्ञदत्त ने यह सोचा कि वह पुत्रहीन ही होता तो ठीक था।
अपने पिता के विवशता से भरे हुए विलाप को सुनकर गुणनिधि को भी लज्जा आई और वह चिंता से भर उठा। उसे इतनी ग्लानि हुई कि वह घर छोड़कर कहीं और चला गया। वहां भूख-प्यास से तंग होकर पश्चात्ताप करने लगा। एक दिन आभाव से पीड़ित गुणनिधि ने शाम के समय पास के एक नगर मैं शिवरात्रि व्रत धारण किए हुए कुछ शिवभक्तों को अपने मित्रों सहित शिवालय में जाते हुए देखा। वह भी उनके पीछे-पीछे चला गया। वहां गुणनिधि ने देखा कि वे पूजा-अर्चना कर रहे हैं।
वह मिठाई की सुगंध से आकृष्ट होकर बाहर दरवाजे पर इसलिए बैठ गया कि जब ये लोग पूजा करते-करते सो जाएंगे तो वह खाद्य-सामग्री चुराकर खा लेगा। यही हुआ। जब शिव-भक्त नृत्य आदि गायन समाप्त करके सो गए तो गुणनिधि ने अपने दुपट्टे की रस्सी बनाई और दीपक में जलाकर शिव निर्माल्य की वस्तुओं को चुराकर भागने की चेष्टा की, तभी उसका एक पैर सोते हुए शिवभक्त से टकराया। शिवभक्त ने चोर-चोर कहकर चिल्लाना शुरू किया तो और लोग भी जाग गए और सब उसे पकड़ने लगे। इसी पकड़-धकड़ में गुणनिधि की मृत्यु हो गई।
जब यमदूत गुणनिधि को पकड़ने के लिए आए तो शिव गणों ने भी उपस्थित होकर उसका विरोध किया और वे गुणनिधि को शिवलोक ले जाने लगे। दोनों में विवाद हुआ, यमदूतों ने गुणनिधि के द्वारा किए गये पाप-कर्म गिनाने शुरू किए. तब गणों ने कहा कि इसने श्रद्धापूर्वक शिव-पूजन देखा है, कीर्तन सुना है और अपने दुपट्टे से दीपदान किया है। इसलिए इसके पापकर्म समाप्त हो गए। यमदूतों ने शिव-गणों से पराजय स्वीकार कर ली।
वे धर्मराज के पास आए और उन्हें सारा वृत्तांत सुनाया। धर्मराज बोले-हे गणो! मैं अपनी सभी आज्ञाओं का उल्लंघन सहन कर सकता हूं लेकिन इस आज्ञा का उल्लंघन कभी नहीं सहन कर सकता कि श्वेत विभूतिधारी, रुद्राक्षधारी त्रिपुंडधारी, और शिव में आस्थावान किसी भी व्यक्ति को भूलकर भी यहां न लाया करो। जो शिव में आस्था रखता है उसे शिवलोक में भेजने की मेरी स्थायी आज्ञा है।
गुणनिधि शिलोक में पहुंचने के बाद कुछ समय तक बहुत सुख भोगता रहा, इसके बाद कलिंग नरेश, अरिंदम के घर दम नामक पुत्र के रूप में पैदा हुआ। वह बचपन से ही शिवभक्ति में अनुरक्त था। और बाद में पिता की मृत्यु के उपरांत सारे प्रदेश में सभी देवालयों में दीपदान का राजकीय आदेश निकलवाया। भगवान शिव की कृपा से मरने पर दम अलका देश का शासक बना। वह पूर्वजन्म का गुणनिधि था।
जब से गुणनिधि अलका का राजा बना, तब से उसने भगवान शिव की बहुत ही भावनापूर्ण आराधना की और ११,००० वर्षों तक तपस्या करते हुए शिवजी को इस रूप में अपने वश में किया कि वे अंबिका सहित उसे वरदान देने के लिए अलकापुरी पधारे। उन्होंने ध्यान में लीन गुणनिध को आंखें खोलने के लिए कहा और अपने को देखकर दर्शन से लाभान्वित होने का आदेश दिया। गुणनिधि ने नेत्र खोलकर भगवान शंकर और भगवती उमा को देखा। भगवती उमा के रूप-सौंदर्य और सौभाग्य के प्रति कुदृष्टि रखने के कारण उसका बायां नेत्र फूट
गया। सीधे नेत्र से अपने प्रति उसे घूरते हुए देखकर भगवती उमा ने शिवजी की ओर जिज्ञासापूर्वक देखा तो उन्हें पता चला कि वह उनका पुत्र है और उनके सौभाग्य की प्रशंसा कर रहा है। इसके बाद शिवजी ने उसे यक्षपति कुबेर बनने का वर दिया और यह आज्ञा दी कि वह अलकापुरी को अपना स्थायी निवास बना ले। इसके बाद गुणनिधि से शिवजी ने उमा के चरण स्पर्श करने के लिए कहा। उसके वैसा करने पर उमा ने गुणनिधि को अटूट शिव-भक्ति का वरदान दिया और साथ में यह भी कहा कि मेरे रूप के प्रति द्वेष के कारण तुम्हारा फूटा हुआ यह नेत्र पीतवर्ण हो जाएगा और तुम्हारा नाम कुबेर होगा। इस प्रकार कुबेर भगवान शिव के आदेश पर विश्वकर्मा द्वारा बनाए गये एक नगर में जो अलकापुरी के समीप ही था. रहने लगा।
विश्वकर्मा ने कैलास पर एक सुंन्दर और सुविधाजनक रहने के आवास का निर्माण किया। जहां शंकर कभी आत्मस्थ होकर योगलीन हो जाते और कभी अपने गणों से विभिन्न चर्चा-वार्तालाप करते। इस प्रकार शिवजी कैलास में रहकर अनेक प्रकार से लीलाएं करने लगे।
सती खण्ड
एक दिन ब्रह्माजी से नारदजी ने पूछा कि उन्होंने शिव को साक्षात् निर्विकार ब्रहम बताया है। निर्विकार ब्रहम्म किस प्रकार सती से विवाह करके गृहस्थ धर्म को अपनाकर जीवन-यापन करने लगा? विष्णुजी की प्रार्थना पर महादेव ने सती से विवाह किया, सती और पार्वती एक ही शरीर से दो स्थानों पर कैसे पैदा हुई और सती पार्वती के रूप में पुनः शिवजी को किस प्रकार प्राप्त हुई ? शिव चरित्र का यह रूप समग्रतः मुझे बताने की कृपा करें।
नारदजी के इस प्रश्न को सुनकर ब्रह्माजी बोले-जब मैं कामवश पागल होकर अपनी कन्या संध्या से मैथुन की इच्छा करने लगा तो धर्मराज ने भगवान शिव का स्मरण किया। तब शिवजी ने मेरे सामने प्रकट होकर मुझे प्रबोधित किया। शिवजी ने मुझे मेरे पुत्रों के सामने धिक्कारा और अपमानित किया. ऐसा मैंने शिवजी की माया से मुग्ध होकर ही सोचा और मेरे मन में प्रतिशोध की भावना बलवती हो गई।
मैंने अपने पुत्रों से विचार किया, किन्तु शिवजी से बदला लेने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझा। इस संदर्भ में भगवान विष्णु ने मुझे समझाने का प्रयास किया किन्तु, मैं अपने हठ पर अड़ा रहा। भगवान शिवजी को मुगध करने के लिए दक्ष की स्त्री से शक्ति के जन्म लेने के लिए मैं उपासना करने लगा।
मेरी साधना सफल हुई और उसके फलस्वरूप उमा के रूप में शक्ति ने ही दक्ष के घर में जन्म लिया। उसी शक्ति रूपा उमा ने कठोर तप करके रुद्र का वरण किया और शिवजी उमा सहित कैलास पर विहार करने लगे। शिवजी की माया से विमोहित दक्ष गर्व से भरकर शिवजी की निंदा करने लगा और उसने अपने यहां एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में दक्ष ने अनेक देवी-देवताओं को निमंत्रित किया, किन्तु शिवजी को न तो न्योता दिया और न यज्ञ में उनका भाग रखा।
दक्ष इतना अभिमानी हो गया था कि उसने अपनी पुत्री तक को निमंत्रण नहीं भेजा किंतु उमा शिवजी से आज्ञा लेकर अपने पिता के यज्ञ में आईं। यज्ञ में पहुंचकर उसने देखा कि न तो वहां उसके पति का भाग है और न उन्हें किसी और रूप से सम्मानित किया गया है। क्योंकि वह अनिमंत्रित और हठ पूर्वक पति से आज्ञा लेकर आई थीं। इसलिए वापस लौटने की अपेक्षा उन्होंने वहीं शरीर को यज्ञ की अग्नि को सौंप देना अच्छा समझा।
जब भगवान शिव को पता चला कि उमा ने अपने शरीर को यज्ञ के समर्पित कर दिया है, तब उन्होंने अपनी जटा से वीरभद्र को उत्पन्न किया और दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने का आदेश दिया। वीरभद्र शिवजी के आदेश के अनुसार दक्ष की यज्ञ-रथली में गया और ब्रह्मा. विष्णु आदि सभी देवताओं को पराजित करके दक्ष का सिर काटने में सफल हो गया। उसके बाद सब देवता शिव के पास आए और उन्होंने शिवजीं को पूजा से प्रसन्न किया। तब शिवजी ने दक्ष को जीवित कर दिया।
दक्ष ने भी अपने अपराध को मानते हुए शिवजी की पूजा की और यज्ञ संपन्न हुआ। यज्ञ कुंड से सती के शरीर से उत्पन्न ज्वाला जहां पर गिरी उसी को ज्वालामुखी पर्वत करते हैं। ज्वालामुखी का दर्शन पापनाशक है। यही सती हिमालय के घर में पार्वती के रूप में उत्पन्न हुई और फिर से कठोर तपस्या करके पति रूप में शिवजी को प्राप्त किया।
ब्रहाजी ने कहा-सबसे पहले निर्गुण, निराकार, निर्विकार सत्य, असत्य, सदाशिव, भगवान के बायें अंग से विष्णु की और सव्य अंग से मेरी और हृदय से रुद्र की उत्पत्ति हुई। मैंने शिवजी के आदेश से सृष्टि की रचना की और मेरे मन में संध्या नामक एक रूपवती स्त्री उत्पन्न हुई। इस स्त्री पर मैं और मरीचि आदि मेरे पुत्र मुग्ध हो गए। इसी समय मेरे मन से एक सुंदर पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसके उत्पन्न होते ही हम सब का मन विकृत हो गया और हम संध्या के प्रति काम में आतुर हो गए।
जो पुरुष उत्पन्न हुआ था, उसने मुझे प्रणाम करके अपने योग्य स्थान और कार्य पूछा। मैंने उसका स्थान प्राणियों का हृदय निश्चित किया और उसका कार्य सृष्टि की रचना में सहायक होना बताया। मैंने उसको यह भी कहा कि विष्णु, रुद्र और मैं तथा अन्य देवता भी उसके वंश में रहेंगे। मेरे पुत्रों ने उसके अनेक नाम रखे। जैसे मदन. मन्मथ, कर्दप, कामदेव। कामदेव ने हर्षण, रोचन, मोहन, शोषण तथा मारन के प्रभाव की परीक्षा के लिए उनका प्रयोग किया। उसके बाणों के प्रभाव से मैं तथा मेरे पुत्र विमुग्ध हो गए।
संध्या में भी कामवासना पैदा हो गई। जब कामदेव ने हमारी यह दशा देखी तो उसे अपनी शक्ति में अधिक विश्वास हो गया। इस ओर धर्म ने हमारी विकृति की अवस्था देखकर भगवान शिव का स्मरण किया। शिवजी प्रकट हुए और उन्होंने इस बात के लिए मेरी भत्सेना की कि मैं अपनी कन्या के प्रति अनुरक्त हो गया हूं। उन्होंने कहा कि ब्रहा, तुम वेदों को प्रकट करने वाले हो और यह वेद विरुद्ध कार्य है।
वेदों की आज्ञा है कि माता, बहन, भाई की स्त्री और पुत्री के प्रति कभी भी काम-मुग्ध दृष्टि नहीं रखनी चाहिए। मैंने अपनी कामभावना पर तो विजय प्राप्त कर ली थी लेकिन मेरा वीये स्वेद के रूप में नीचे गिर गया और उसके गिरने से अग्नि ध्वांत आदि पितर पैदा हुए। दक्ष के पसीने से गिरने से रति नाम की रूपसी कन्या उत्पन्न हुई और इस प्रकार भगवान शिव ने हमें पतन से बचाया।
कुछ समय बाद दक्ष ने अपनी पुत्री रति का विवाह काम से करने का विचार किया। रति के सौंदर्य पर मुग्ध कामदेव ने ब्रह्माजी के श्राप को भुला दिया और उससे विवाह करके आनंद मनाने लगा। संध्या स्वयं को मेरी कामवासना का और शिवजी के द्वारा किये गए मेरे अपमान का तथा काम के श्राप का कारण मानकर व्यग्र हो उठी। उसने भयंकर प्रायश्चित्त करके एक ऐसे आदर्श की स्थापना करने का निश्चय किया, जिससे कोई भी पिता अपनी पुत्री में अनुरक्त न हो सके।
अपनी भावना को पूरा करने के लिए संध्या ने पास में ही चंद्रभागा नदी के किनारे पर्वत पर तप करना शुरू कर दिया। मैंने वसिष्ठ का रूप धरकर संध्या को दीक्षा लेने का आदेश दिया। मेरे रूप बदलने का कारण दीक्षा-गुरु में श्रद्धा उत्पन्न करना था। क्योंकि मेरे पहले चरित्र के कारण संध्या का मेरे प्रति श्रद्धावान होना संभव नहीं था।
वसिष्ठ ने ब्रह्मचारी का भेष धारण कर, उसे दीक्षा दी और ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र दिया। संध्या मंत्र का मौन रूप में जाप करती हुई भगवान शिव को प्रसन्न करने लगी। शिवजी प्रसन्न हुए और उसे वर मांगने के लिए कहा। संध या ने तीन वर मांगे-
- कोई भी प्राणी पैदा होते ही काम-वासना से परिपूर्ण न हो
- मेरा पति मुझे बहुत अधिक स्नेह करे और मुझे भी वह निश्चित रूप से प्रिय हो
- जो व्यक्ति मुझे काम-दृष्टि से देखे वह नपुंसक हो जाए।
संध्या की यह मांग सुनकर शिवजी ने घोषणा की कि इस समय से मनुष्य के तीन आयु रूप होंगे. बालकपन, किशोर अवस्था और युवावस्था। कामवासना का उद्भव किशोर रूप के समाप्त होने पर और यौवन के उदय होने पर ही होगा। शिवजी ने यह भी कहा कि तुम्हारा पति तुम्हारा ही अनन्य प्रेमी होगा और तुम्हारे पति के अतिरिक्त जो भी व्यक्ति तुम्हारे प्रति काम-भावना रखेगा वह भी पतित हो जाएगा। अगले जन्म में तुम मेधातिथि की पुत्री बनकर अभीष्ट फल को पाओगी।
शिवजी अंतर्ध्यान हो गए और संध्या ने अग्नि में स्वयं को विसर्जित कर दिया। जहां पर संध्या ने आत्मोत्सर्ग किया था, वहां पर एक सुंदर कन्या उत्पन्न हुई, मेधातिथि ने उसका नाम अरुंधती रखा और उसका पालन-पोषण किया। फिर समय पर वसिष्ठजी के साथ उसका विवाह कर दिया। जब शिवजी वहां से अंतर्ध्यान हो गए तो मैंने दक्ष आदि पुत्रों से अपने अपमान का बदला लेने का उपाय खोजने के लिए कहा और कामदेव के प्रति मैंने बहुत आशा से देखा।
कामदेव ने शिवजी को मोहित करने का सुझाव दिया। कामदेव के इस सुझाव को मानकर मैंने बसंत को उसका साथी बनाया और उसे भी शिवजी के चित्त को विकारग्रस्त करने के लिए कामदेव के साथ भेज दिया। कामदेव ने कैलास पर जाकर अपनी सारी विद्याओं का प्रयोग किया, किंतु वह सफल नहीं हुआ और उसने वापस आकर सारी असफलता की गाथा कही। मैं इस बात से बहुत चिंतित हुआ और मैंने विष्णुजी का स्मरण किया। विष्णुजी प्रकट हुए और उन्होंने मुझे शिवजी से द्रोह न करने की सलाह दी।
साथ ही विष्णुजी ने शिवजी को स्त्री-संयुक्त करने के लिए उमा की उपासना करने के लिए कहा। विष्णुजी ने बताया कि शिवजी ने ही उनसे कहा हुआ है कि शिवजी का रूद्ररूप धारण करने के बाद सती उनकी पत्नी होंगी। इसके बाद मैंने जदम्बिका शिवा को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा की और उनसे निवेदन किया कि वे दक्ष की पुत्री होकर शिवजी की पत्नी बनें। पहले तो शिवा ने मुझे दुत्कारा लेकिन बाद में मेरी तपस्या के गौरव के कारण मेरी बात स्वीकार कर ली। दूसरी ओर दक्ष ने भी शिवा की प्रार्थना करके अपने यहां पुत्री बनकर शिवजी की पत्नी बनने का वरदान प्राप्त किया।
दक्ष प्रजापति मानसी दृष्टि से भी प्रजा की वृद्धि न होते देखकर मेरे पास आए। मेरी आज्ञा से दक्ष ने अश्विनी से विवाह करके मैथुन द्वारा हर्याश्व नाम से समान धर्मशील और गुण वाले दस हजार बालक प्राप्त किए। दक्ष ने उन्हें आगे संतान-वृद्धि करने का आदेश दिया। हर्याश्व ने नारायण तीर्थ में भगवान की पूजा करने का निश्चय प्रकट किया। वहां उनसे तुम्हारा (नारद का) मिलन हुआ। तुमने ही उन्हें ब्रह्म-प्राप्ति का सच्चा सुख बताया और ज्ञान का उपदेश दिया।
इसके बाद वह प्रजा की उत्पत्ति के दायित्व से मुक्त हो गए। इसके बाद फिर दक्ष ने सबलाश्वगण नामक एक हजार अन्य पुत्रों को जन्म दिया क्योंकि वे अपने पहले पुत्रों से निराश हो चुके थे। लेकिन इन पुत्रों ने भी ईश्वर-चिंतन करने का अपना निर्णय व्यक्त किया। और इन्हें भी हे नारद, तुमने सांसारिकता से विरक्त किया। दक्ष ने तुम्हें श्राप दिया कि तुम एक स्थान पर अधिक देर तक स्थिर न रह सकोगे।
कुछ समय बाद दक्ष ने साठ कन्याएं उत्पन्न कीं। इनमें धर्म से दस कन्याओं का, कश्यप मुनि से तेरह का और चन्द्रमा से सत्ताईस कन्याओं का विवाह कर दिया। इसके बाद दो-दो कन्याओं का भूत, अंगिरा और वृश्शाश्व से तथा शेष कन्याओं का विवाह गरुड़जी से कर दिया। इन कन्याओं से उत्पन्न हुई संतानों से चराचर जगत भर गया। इधर कुछ समय बाद शिवा ने अपने दिए हुए वरदान की रक्षा करते हुए दक्ष के यहां अश्विनी के उदर में प्रवेश किया और समय आने पर जन्म लिया चारों ओर बहुत आनन्द छा गया।
अनेक बाल-लीलाएं करती हुई शिवा बढ़ती गई और युवती हो गई। उसे युवती हुआ देखकर, दक्ष इस बात की चिंता करने लगे कि किस प्रकार शिवजी का शिवा विवाह से हो। शिवा ने अपने पिता की आज्ञा से और माता की अनुमति लेकर भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए अपने घर में ही नंदा व्रत किया। शिवा शिवजी के ध्यान में तन्मय हो तप करने लगी। उसके इस तप से ब्रह्मा आदि देवता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कैलास पर्वत आकर लोक-लोकेश्वर भगवान महादेव को श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया और उनका आराधन किया।
शिवजी ने देवताओं से आने का कारण पूछा। मैंने सबसे पहले शिवजी के समक्ष निवेदन किया-भगवन्! आपकी सहायता के बिना मैं सृष्टि-रचना का कार्य संपन्न नहीं कर सकता। जब तक आप राक्षसों का संहार नहीं करेंगे, और जब तक उनके उत्पातों का क्षरण नहीं होगा तब तक नई सृष्टि-रचना संभव नहीं है। आपने रुद्र रूप में अवतार धारण किया है। और अपने रूप भेद से कर्म भेद का हमें ज्ञान कराया है। आपने ही बताया है कि मैं सृष्टिकता हुं विष्णु पालक हैं और आप रुद्र रूप में संहारकर्ता हैं।
हे परमतत्त्व शिव! हम दोनों ने विवाह कर लिया है और आप भी अब विवाह कर लीजिए। यही हम सबका निवेदन है। विष्णुजी ने मेरा समर्थन किया और शिवजी को प्रसन्न किया। इस पर भी शिवजी बोले कि मुझे योग में ही आनंद आता है, किंतु मैं आप लोगों की इच्छा का भी आदर करना चाहता हूं। क्या आप लोगों की दृष्टि में ऐसी कोई कन्या है जो मेरे तेज को सहन कर सके और मेरे समान ही योगिनी हो सके ? यह सुनकर मैंने शिवजी के सामने उमा के घोर तप और उसकी योग्यता का वर्णन किया। शिवजी ने हमारा अनुरोध स्वीकार कर लिया और हम प्रसन्न हो गए।
नंदा व्रत का उपस्थापन करते हुए उमा को काफी समय व्यतीत हो गया था। शिवजी उनके सामने प्रकट हुए और वर मांगने का अनुरोध करने लगे। उमा ने उन्हें देखा और देखती रहीं। वह कुछ भी नहीं बोल पाईं। जब शिवजी ने दोबारा वर मांगने के लिए कहा तो उमा ने कहा कि जो आपको अच्छा लगे वही वर दे दीजिए। यह सुनकर शिवजी ने उमा को अर्धांगिनी बनने का वर दिया। उमा ने उनसे निवेदन किया कि वे विधिपूर्वक उसे उसके पिता से मांगें।
तब शिवजी ने मुझे दूत के रूप में दक्ष के पास कन्या मांगने के लिए भेजा। दक्ष ने मेरा प्रस्ताव मान लिया। दक्ष की स्वीकारोक्ति की सूचना मैंने शिवजी को दी। इसके बाद शिवजी ने मेरे अनुरोध पर शुभ मुहूर्त निकलवाकर विष्णु तथा मेरे अनेक पुत्रों को और अपने गणों को आमंत्रित किया।
उन्होंने चैत्र शुक्ल त्रयोदशी रविवार के दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में दक्ष के घर की ओर प्रस्थान किया। दक्ष ने यथासाध्य अत्यंत आदर-सत्कार से बारात का स्वागत किया और वैदिक विधि से कन्यादान किया। इसके बाद एक घटना और घटी। जिस समय शिवजी और उमा विवाह के लिए यज्ञमंडप में बैठे थे तो मैं सती की रूप आभा को देखने के लिए बहुत उत्सुक हो गया।
मेरी उत्सुकता, व्याकुलता की सीमा तक बढ़ गई। मैंने उमा के मुख को देखने की बहुत चेष्टा की। जब मुझे अपनी कामुकता पर अंकुश लगता हुआ अनुभव नहीं हुआ तो मैंने सती का मुंह देखने के लिए चाल चली। मैंने यज्ञकुंड में गीली समिधाएं डालकर धुआं उत्पन्न कर दिया। धुएं के कारण सती को अपना घूंघट खोलना पड़ा और सती के इस प्रकार खुले हुए मुख को देखकर मैं स्खलित हो गया। शिवजी को मेरा यह पापकर्म ज्ञात हो गया और वे अपना त्रिशूल उठाकर मुझे मारने दौड़े। जब मेरे पुत्रों ने मेरी सहायता के लिए हाहाकार किया तो दक्ष सहायता के लिए आए। लेकिन उसका भी कोई फल नहीं निकला।
फिर विष्णुजी ने बहुत विनम्र भाव से उनकी स्तुति की, जिससे शिवजी का क्रोध शांत हुआ। मैंने भी उनकी अनेक प्रकार की स्तुति करके पश्चात्ताप का उपाय पूछा। शिवजी ने पश्चात्ताप रूप में मेरे सिर पर आसन जमा लिया और मनुष्य बनकर पृथ्वी पर विचरण करने का उपाय सुझाया, जिससे पृथ्वी के प्राणी दूसरे की पत्नियों पर कुदृष्टि न डालें।
जब मैंने शिवजी के द्वारा दिये गए दंड को स्वीकार कर लिया तो शिवजी प्रसन्न हो गए। इसके बाद शिवजी ने दक्ष से उमा सहित कैलास पर जाने की अनुमति मांगी। कैलास पर आकर शिवजी सती के साथ पचीस वर्षों तक विहार करते रहे। इसके बाद सती की अनुमति से शिवजी हिमालय के एक अत्यंत सुंदर और एकांत स्थल पर चले गए।
वहां जाकर सती ने शिवजी से एक दिन पूछा कि इस संसार में विषयी जीव किस प्रकार परम पद की प्राप्ति कर सकता हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए शिवजी बोले, ‘हे देवी! जीव को सद्गति के दो उपाय हैं। ब्रह्म का ज्ञान और ब्रह्म का र्मरण। इन दोनों में ज्ञान दुर्गम है, क्योंकि परब्रह्म जानने से परे है, ज्ञानातीत है। ज्ञान का साधन ही स्मरणमूलक भक्ति है अतः जो भक्त भक्ति की महिमा नहीं जानता वह ब्रह्म तत्त्व को नहीं जान सकता। निर्गुण ब्रह्म की भक्ति सरल नहीं है और उसके लिए जो ध्यान अपेक्षित है
वह सब जीवों में नहीं होता, इस कारण सगुण भक्ति ही सुलभ है और इसे अपनाकर ही भक्त आत्मकल्याण कर सकता है। इसके साथ अधम भी भक्ति को अपनाकर संसार को पार कर सकता है। मैं भक्ति के लिए भक्ति के तमाम विरोध का विनाश करके सिद्धि के मार्ग में उसका सहायक बनता हूं। इस प्रकार भक्ति परम विज्ञान है। ब्रह्माजी ने इसके उपरांत शिव के परमपावन चरित्र का वर्णन करते हुए सती के त्याग की कहानी सुनाई। ब्रह्माजी बोले-
हे नारद! एक समय तीनों लोकों का भ्रमण करते हुए शिवजी सती के साथ दंडक वन में आए। वहां पर उन्होंने देखा कि भगवान राम सामान्य व्यक्ति की तरह पशुओं, पक्षियों से सीता का परिचय और पता पूछते हुए वियोग में घूम रहे थे। जब भगवान शंकर ने आगे बढ़कर राम को नमस्कार किया तो सती ने अनुभव किया कि पत्नी के वियोग से पीड़ित एक अज्ञानी व्यक्ति को शिवजी क्यों प्रणाम कर रहे हैं।
इस समय सती शिव माया से विमोहित हो गई थीं. उन्होंने शिवजी से पुछा कि यह कैसा आश्चर्य है कि आप एक सामान्य व्यक्ति को प्रणाम कर रहे हैं। तब शिवजी बोले – हे देवी! श्याम वर्ण वाले राम और गौर वर्ण वाले लक्ष्मण ये शेष के अवतार हैं। ये लोग पृथ्वी का भार हरने के लिए मेरी ही आज्ञा से यहां लीला कर रहे हैं। यदि तुम्हें मेरा विश्वास नहीं है तो तुम स्वयं जाकर इनकी परीक्षा ले लो। मैं यहां वट वृक्ष की छाया में प्रतीक्षा करता हूं।
सती ने राम की परीक्षा लेने का निश्चय किया और वह सीता का रूप धारण कर राम के समाने उपस्थित हुईं। राम ने बिना किसी संदेह के सती की वास्तविकता पहचानकर उनसे सीता के रूप में अकेले विचरण करने का कारण जानना चाहा। इस पर सती का संदेह दूर हो गया और उन्होंने पूछा कि आपके प्रणाम करने का रहस्य क्या है? इसके? बाद राम ने शिवजी का स्मरण करके यह बताया कि एक समय भगवान शंकर ने विश्वकर्मा द्वारा एक मनोहारी और विस्तृत भवन में एक दिव्य सिंहासन और एक सुंदर छत्र बनवाया।
इसके बाद अनेक देवों, मुनियों, गंधर्वों की उपरिथति में बैकुठ वासी भगवान विष्णु को उस आसन पर बिठाया। शिवजी ने उन्हें अभिषिक्त करते हुए अपना संपूर्ण ऐश्वर्य और सौभाग्य प्रदान करके सृष्टि का कर्ता बनाया। और उन्हें अनेक अवतार लेने वाला बनाया। शिवजी ने उसी समय विष्णु को यह वरदन भी दिया कि वे पृथ्वी पर जब विचरण करेंगे, तब शिवभक्त उनके प्रत्येक अवतार का सम्मान करेंगे। इसलिए हे देवी, मेरी इस अवतार-अवस्था में भगवान शिव ने अपने वर के गौरव को रखने के लिए मुझे प्रणाम किया और सम्मान व्यक्त किया।
मैं पिता की आज्ञा से वन में आया हूं। यहां किसी राक्षस ने मेरी पत्नी का हरण कर लिया है, किंतु अब भगवान शिव के दर्शन के बाद मुझे यह विश्वास हो गया है कि में अपनी पत्नी को पुनः पाने में सफल हो जाऊंगा। भगवती सती राम के उत्तर से बहुत संतुष्ट हुईं और शिवजी के पास लौटने लगी। लेकिन उन्हें एक बात की चिंता सताने लगी कि वह इस सारी बात को शिवजी से किस प्रकार कहेंगी। क्योंकि शिवजी त्रिलोकी के स्वामी हैं सब कुछ जानते हैं, फिर भी मैंने उन पर विश्वास नहीं किया और संशय किया।
मेरे इस पातक का प्रक्षालन कैसे होगा। यही सोचते हुए वह शिवजी के पास पहुंचीं तो उन्होंने परीक्षा का विवरण जानना चाहा। सती ने बात टालनी चाही तब सब कुछ जानने वाले शिवजी ने ध्यानमग्न होकर वास्तविकता जाननी चाही। उन्होंने सीता वेश धारण किए हुए सती को अपनाने के कारण प्रतिज्ञा के भंग होने से चिंता अनुभव की। सती को त्यागने के निश्चय से जब सर्वत्र प्रशंसा होने लगी तो सती को बहुत दुःख हुआ और शिवजी ने सती के क्षोभ को दूर करने के लिए उन्हें अनेक आख्यान सुनाए।
शिवजी कैलास पर जाकर ध्यानस्थ हो गए और सती उनके वैसा बने रहने तक उनके पास ही बैठी रहीं। जब शिवजी की समाधि खुली तब शिवजी ने फिर से सती को अनेक कथाएं सुनाईं लेकिन अपनी प्रतिज्ञा नहीं त्यागी। इस स्थिति को अज्ञानी जन शिव और पार्वती (सती) का वियोग मान लेते हैं, जबकि ऐसा है नहीं। यह भी विलक्षण शिव चरित्र का एक रूप ही है।
ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा-मैं तुम्हें पूर्वकाल का एक वृत्तान्त सुनाता हूं। बहुत समय की बात है कि अनेक मुनियों ने प्रयाग में एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। मैं इस यज्ञ में परिवार सहित सम्मिलित हुआ था। सती और अपने गणों सहित शंकरजी भी आए थे। सबने उन्हे प्रणाम किया और उनके दर्शनों से लाभान्वित हुए। शिवजी के आसन ग्रहण करने के बाद दक्ष भी वहां पहुंचे और मुझे प्रणाम करके बैठ गए। अनेक उपस्थित ऋषि-मुनियों ने दक्ष की पूजा की लेकिन भगवान शिव अपने आसन पर बैठे रहे।
उनके इस व्यवहार पर क्रुद्ध होकर दक्ष ने पुत्रवत् होने पर भी अपने को प्रणाम न करने के लिए उनकी बुराई की और अपशब्द कहे तथा यह घोषणा भी की कि शिवजी को देवों के घर से अलग किया जाता है। दक्ष के इस बात पर नंदीश्वर को गुस्सा आ गया और उन्होंने अनेक ऋषियों को श्राप दे डाला। उन्होंने कहा कि तुम सब ब्राह्मण लोग देव शब्द का वास्तविक अर्थ समझने में असमर्थ हो। अतः केवल अर्थवाद पर ही विश्वास करते रहोगे। शिवजी ने नंदीश्वर को याद दिलाया कि उसे ब्राह्मणों को श्राप नहीं देना चाहिए।
नंदीश्वर तो ठीक हो गया पर दक्ष शिवजी का विरोधी बन गया। अपने विरोध को प्रकट करने के लिए और शिवजी को अपमानित करने के लिए दक्ष ने कनखल तीर्थ में एक बड़ा यज्ञ किया और इसमें अनेक देवी-देवताओं को बुलाया। वामदेव, अत्रि, भुगु, दधीचि, व्यास, भरद्वाज, गौतम, पराशर, वैशंपायन आदि सभी ऋषियों को बुलाने के साथ-साथ विष्णुजी को भी निमंत्रित किया। दक्ष ने सभी आमंत्रित देवता और ऋषि-मुनियों को अच्छे-अच्छे स्थानों पर ठहराया और उनका बहुत सम्मान किया।
शिवजी को दक्ष ने बुलाया तक नहीं। शिवजी की माया से मोहित होकर देवताओं को भी इस बात का ध्यान नहीं रहा कि शिवजी आमंत्रित नहीं हैं। केवल शिवभक्त दधीचि ने दक्ष को बताया कि शिव के अभाव में यज्ञ पूर्ण रूप से सफल नहीं होगा, तो दक्ष ने शिवजी को अनेक अपशब्द कहे। उन्हें श्मशान वासी, कपाली, अमंगलमूल कहकर विष्णु को सब देवों का मूल बताया। दधीचि शिव की निंदा नहीं सुन सके और वहां से अकेले ही उठकर अपने आश्रम में आ गए।
दधीचि का अनुगमन करते हुए अनेक शिवभक्तों ने यज्ञ का बहिष्कार किया। इस पर दक्ष बोले कि यह बहिष्कार हमारे लिए सुख का कारण है और हमें उनका यज्ञ-परित्याग करना बहुत अच्छा लगा। दक्ष की यह बात सुनकर भी ऋषि और देवताओं का विवेक नहीं जागा, क्योंकि वे शिवजी की माया से मोहित थे। वे सब प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ के कार्य में लग गए और किसी ने भी शंकरजी की उपेक्षा को गंभीरता से नहीं लिया।
इस ओर पार्वती (सती) गंधमादन पर्वत पर क्रीड़ा कर रही थीं तो उन्होंने अनेक ऋषियों और देवताओं को आकाश मार्ग से एक ही तरफ जाते हुए देखा और इसका पता लगाने के लिए अपनी सखी विजया को भेजा। विजया ने आकर बताया तो सती शिवजी के पास पहुंच गईं। शिवजी गणों से घिर हुए बैठे थे। सती ने शिवजी से कहा कि वह अपने पिता के यज्ञ में सम्भिलित होना चाहती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि शिवजी उनके साथ चलें। सती की बात पर शिवजी क्षुब्ध हुए लेकिन उन्होंने अत्यंत संयत स्वर में कहा कि संबंधियों के यहां आने-जाने से निश्चित रूप से प्रेम बढ़ता है, किंतु जहां वैमनस्य हो वहां बिना बुलाए नहीं जाना चाहिए। वहां जाने से अपमान होता है।
और सत्य यह है कि बंधुजनों के अपमान से जो घोर दु:ख मिलता है वह बहुत प्रबल होता है। सती ने जब यह सुना तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि शिवजी तो यज्ञ को सफल बनाने वाले हैं, मगलविधान संपन्न करने वाले हैं, उन्हें क्यों नहीं बुलाया गया है। तब वह यह जानने के लिए कि क्यों पिता ने ऐसा दुष्ट कर्म किया, वहां जाने की अनुमति मांगी। और वह यह भी जानना चाहती थी कि ऋषि, मुनि दक्ष के प्रति उसके इस व्यवहार के लिए कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। शिवजी ने सती के अभिप्राय को जानकर उन्हें जाने की अनुमति दे दी और उनके साथ अपने रुद्र गणों को भी सुरक्षा के लिए भेज दिया।
अपने घर पहुंचने पर सती की मां और बहनों ने सती का बहुत प्रेमपूर्वक अभिवादन किया लेकिन दक्ष और दक्ष की तरफ के लोग सती की उपेक्षा करने लगे। यझ्ञ-स्थल पर जाकर सती ने यह भी देखा कि अलग-अलग देवों का भाग रखा हुआ है लेकिन शंकर का भाग कहीं नहीं है। तब सती ने बहुत क्रोधित होकर अपने पिता से पूछा कि उन्होंने शंकर को निमंत्रित क्यों नहीं किया। सती ने भरी सभा में सारे देवताओं के सामने यह घोषणा की कि सारी हवन-सामग्री और मंत्र शिवमय हैं इसलिए शिवजी के बिना यह यज्ञ सफल नहीं हो सकता।
इसके साथ सती ने विष्णु आदि देवताओं को शिवविहीन यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए खरी-खोटी सुनाई। जब दक्ष ने देखा कि सती आमंत्रित देवताओं का भी अपने क्रोध में ध्यान नहीं कर रही हैं, तब उनसे नहीं रहा गया और उन्होंने अपनी पुत्री को कठोर वचन सुनाए और ये कहा कि तू यहां क्यों आई और तुझे किसने बुलाया ? तेरा पति अकुलीन है। मैंने दुष्ट ब्रह्मा के कहने से तेरा विवाह किया, मैं उसे अब नहीं अपना सकता।
तुम मेरी पुत्री हो और यहां आई हो इसलिए तुम्हारा भाग दिया जा सकता है लेकिन तुम्हारे पति को मैं मुंह नहीं लगाऊंगा। अब तुम स्वस्थ होकर बैठ जाओ। दक्ष के वचन सती को तीर की तरह लगे ओर वह बोली कि या तो शिव की निंदा करने वाले की जीभ काट लेनी चाहिए या वहां से चला जाना चाहिए। शिव-निंदा सुनने वाले और करने वाले दोनों ही पाप के भागी होते हैं। पिता के व्यवहार को देखकर सती को शिवजी के वचन याद आए और उन्होंने यह अनुभव किया कि वह ऐसे पापी पिता की संतान हैं जो शिवजी का निंदक है।
अतः इस शरीर को भी बचाकर क्या करना ? यह सोचकर उन्होंने भरी सभा में आत्मदाह करने की घोषणा की और अपने पिता को नरकगामी होने का श्राप दिया। योग के द्वारा अपने ही शरीर से अग्नि उत्पन्न कर, उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। यह देखकर सभा में हाहाकार मच गया, सभी लोग चिंतित हो उठे। २०,००० गण ठगे से रह गए और बाकी दक्ष पर प्रहार करके उसे मारने के लिए दौड़े। इधर महर्षि भृगु यज्ञ में आहुतियां देते रहे और उन्होंने शिव गणों को रोकने के लिए अनेक असुरों को पैदा किया।
असुरों से लड़ते हुए शिव गणों की शक्ति कुछ क्षीण हो गई। इन्द्र, विष्णु आदि मौन होकर यह दृश्य देखते रहे। किसी ने भी इस सब कुछ को समाप्त करने की शक्ति संचित नहीं की। तभी एक आकाशवाणी हुई कि सबके ईश्वर शिवजी से विमुख प्राणी की कोई देवता सहायता नहीं कर सकता। पूज्यों की अवमानना पाप है। और जो व्यक्ति महान परामर्श की उपेक्षा करता है वह आत्महत्या का भागी बनता है।
दक्ष ने सती की अवमानना की है, शिवजी का अपमान किया है और दधीचि के परामर्श की उपेक्षा की है, इसलिए दक्ष का मुख जल जाएगा। देवता लोग यज्ञ-मंडप से बाहर आ जाएं। इस आकाशवाणी को सुनकर सारे देवता बहुत चिंतित हुए और उनके मुख से एक भी शब्द नहीं निकला। सारे देवता शिव की माया से विमोहित होकर संशयग्रस्त-से खड़े रहे।
आगे ब्रह्माजी बोले-हे नारद, ऋभु नामक असुरों से परास्त होकर शिवजी के गण शंकरजी के पास पहुंचे और उन्होंने सती के भस्म होने की दुःख कहानी सुनाई। घटना का सारा विवरण जानकर शंकरजी ने (तुम्हें ज्ञात है) तुम्हारा स्मरण किया था, तुमने वहां जाकर सारा वृत्तांत विस्तार से सुनाया। तुमसे वृत्तान्त सुनकर शिवजी को इतना क्रोध आया कि उन्होंने अपनी जटा से एक केश उखाड़कर पर्वत पर दे मारा। उसके एक भाग से प्रबल पराक्रम वाला वीरभद्र और दूसरे भाग से महाकाली उत्पन्न हुई। भगवान शिव ने वीरभद्र को आदेश दिया कि वह इसी समय जाकर अहंकार से भरे हुए दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दे और जितने भी गंधर्व, यक्ष. देवता आदि वहां हैं, उन्हें भी भस्म कर दे।
शिवजी ने वीरभद्र को आज्ञा दी कि वह पत्नी सहित दक्ष को मार डाले और दधीचि के द्वारा बताए गये सारे शिव-विरोधियों को नष्ट करके जल्दी ही लौट आए। शिवजी की आज्ञा प्राप्त करके बहुत बड़ी सेना लेकर वीरभद्र दक्ष के यज्ञ-विनाश के लिए चल पड़ा। दूसरी ओर के महत्त्व को नहीं जानते? तुम उस यज्ञ में कैसे आए, जिसमें शिवजी की उपेक्षा हुई है? शिवजी से अलग होकर तुम किस प्रकार पूज्य हो सकते हो? मैं अभी तुम्हारा वक्ष अपने शस्त्र से घायल कर दूंगा। वीरभद्र की बातें सुनकर हंसते हुए विष्णुजी बोले कि हे वीरभद्र, मैं तो शंकर का सेवक हूं और शंकर के समान ही अपने भक्तों के वश में हूं। तुम निर्द्वंद्व होकर मुझसे युद्ध करो।
ब्रहाजी ने नारदजी से कहा-हे नारद! यह कहकर विष्णुजी ने अपने योग बल से शंख. चक्र. गदा और पद्मधारी अनेक वीर उत्पन्न किए और वे एक साथ वीरभद्र से युद्ध करने लगे। लेकिन वीरभद्र ने शंकरजी का स्मरण करके त्रिशूल से सबको मार डाला। वीरभद्र ने अत्यंत क्रोधित होकर विष्णु के वक्ष में भी त्रिशूल से प्रहार किया और विष्णु मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर पुनः चेतना आई और उन्होंने जैसे ही चक्र से आक्रमण करना चाहा, वैसे ही वीरभद्र ने उनका स्तंभन कर दिया। विष्णुजी वहीं निश्चेष्ट हो गए। तब अनेक मंत्रों के उच्चारण से उनका स्तंभन छुड़वाया गया। वीरभद्र ने विष्णु के धनुष को काट डाला।
विष्णुजी ने वीरभद्र के तेज को ठीक प्रकार से समझ लिया और अंतर्धान होकर अपने लोक में चले गए। ब्रह्माजी ने आगे बताया कि हे नारद! मृत्यु लोक से व्याकुल होकर मैं भी सत्यलोक को चला गया। हमारे चले जाने पर वीरभद्र ने मग का रूप धारण करके भागते हुए दक्ष को पकड़कर उसका सिर काट डाला और नाखूनों से सरस्वती की नाक काट डाली। धर्म, कश्यप, प्रजापति आदि मुनियों को लातों से पीटा और देवताओं को पृथ्वी, पर पटक-पटककर पीड़ा दी। मणिभद्र ने भृगुजी की छाती पर पैर रखकर उनकी दाढ़ी नोच ली।
चंडिका ने दांत उखाड़ डाला और इसके साथ ही अनेक शिवगणों ने यज्ञस्थल में मल-मूत्र की वर्षा करके उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इस सबके बाद वीरभद्र ने दक्ष की छाती पर पैर रखा और उसके शरीर को मरोड़ दिया। इसके बाद अपनी विजय की दुंदुभि बजाता हुआ वह कैलास पहुंचा। शिवजी उस पर बहुत प्रसन्न हुए और उसे अपने गणों का अध्यक्ष बना लिया।
सूतजी ने शौनकजी से कहा कि ब्रहाजी से यह सारी बात सुनकर नारदजी ने पूछा कि विष्णुजी उस यज्ञ में क्यों गए थे ? क्योंकि विष्णु स्वयं शिवभक्त हैं। और उन्होंने शिवजी के गणों से युद्ध क्यों किया ? इस प्रश्न के उत्तर में ब्रहाजी बोले कि हे नारद! वस्तुतः विष्णुजी दधीचि के श्राप से ज्ञानभ्रष्ट हो गए थे और दक्ष के यज्ञ में गए। एक बार बहुत पहले दधीचि का अपने मित्र क्षुब राजा से विवाद छिड़ गया था। वह बहुत अनर्थेकारी हुआ।
क्योंकि क्षुब ने तीनों वर्णों में ब्राह्मण के होते हुए भी राजा को श्रेष्ठ बताया और अपने को श्रेष्ठतम प्राणी घोषित किया। वह लक्ष्मी के मद में बहुत बुरी तरह डूब गया था और दधीचि के द्वारा अपने को पूज्य बताने लगा। महर्षि दधीचि ने क्षुब के सिर पुर एक जोरदार चांटा मारा। वह मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा किंतु कुछ समय बाद मूर्छा टूटने पर उसने दधीचि पर वज्ज से प्रहार कर दिया। इस पर दधीचि ने शुक्राचार्य का स्मरण किया और उन्होंने प्रकट होकर दधीचि को विजय प्राप्त करने के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जाप करने का परामर्श दिया। दधीचि ने वन में जाकर इस मंत्र है जाप से शंकरर्जी को प्रसन्न किया और तीन वरदान प्राप्त किए।
- दधीचि के शरीर की हड्डियों का वज्ज के समान होना।
- किसी भी रूप में दीन-हीन न होना।
- और किसी के द्वारा न मारा जाना।
शिवजी से वर प्राप्त करने के बाद दधीचि क्षुब के पास गए और उसके सिर पर अपने चरणों से प्रहार किया। क्षुब ने क्रोधित होकर अपने वज्ज से दधीचि की छाती पर प्रहार किया लेकिन उसने देखा कि उस प्रहार का कोई प्रभाव नहीं हुआ। तब वह अपनी पराजय का बदला लेने के लिए वन में जाकर विष्णुजी की आराधना करने लगा।
विष्णुजी प्रकट हुए और उन्होंने क्षुब को बताया कि जो प्राणी शिवजी के भक्तों को पीड़ा देता है वह शापग्रस्त होता ही है। दधीचि पर तुम जो विजय पाना चाहते हो उसकी कोशिश में मुझे भी शाप से पीड़ित होना पड़ेगा। दक्ष के यज्ञ में मेरा पराभव और फिर उत्थान होगा। लेकिन तुम मेरी आराधना करने के कारण मेरे भक्त हो चुके हो इसलिए मैं कुछ-न-कुछ अवश्य करूंगा।
विष्णुजी अपने भक्त की इच्छा को रखने के लिए ब्राह्मण का वेष धारण कर दधीचि के आश्रम में पहुंचे और उनसे एक वर देने के लिए कहा। दधीचि ने शिवजी की कृपा से विष्णुजी के वास्तविक रूप को पहचान लिया था। उन्होंने विष्णुजी से यह कपट और छल छोड़ने के लिए कहा। सत्य के प्रकट होने पर विष्णुजी ने दधीचि से प्रार्थना की कि वे क्षुब के पास जाकर एक बार यह कह दें कि तुम मुझसे अधिक शक्तिशाली हो और मैं तुमसे भयभीत हूं।
दधीचि ने विष्णुजी का यह निवेदन मानने से असहमति प्रकट की. तब विष्णुजी ने अपने चक्र का प्रहार किया, लेकिन उसका भी कोई प्रभाव नहीं हुआ। विष्णुजी ने अन्य शस्त्रास्त्रों से प्रहार किया तथा इन्द्र, वरुण आदि देव भी उनकी सहायता के लिए आ गए। दधीचि ने और कुछ नहीं किया, केवल थोड़ी-सी कुशा उठाकर देवताओं पर फेंक दी।
वह कुशा त्रिशूल बन गई और उस त्रिशूल से देवताओं के सारे आयुध कुंठित हो गए। देवता वहां से भाग गए लेकिन विष्णुजी वहीं रह गए और युद्ध करते रहे। विष्णुजी ने अपनी माया का प्रसार किया, दधीचि ने उसे भी प्रभावरहित करते हुए विष्णु को दिव्य नेत्र दिए और अपना सारा रूप दिखाया। इस रूप में पूरा ब्रह्मांड विद्यमान था।
यह जानकर भी कि दधीचि साधारण नहीं हैं, विष्णुजी युद्ध से विरत नहीं हुए। तब वहां मैं क्षुब को लेकर पहुंच गया और क्षुब ने दधीचि के सामने अपनी दीनता प्रकट की। दधीचि क्षुब पर तो प्रसन्न हो गए, पर विष्णुजी पर उनका क्रोध समाप्त नहीं हुआ। मैंने भी विष्णुजी को शिवभक्त ब्राह्मण के साथ युद्ध न करने का परामर्श दिया। इधर दधीचि ने विष्णु सहित सभी देवताओं को समय आने पर पराभव का सामना करने का श्राप दे डाला। इसीके फलस्वरूप दक्ष के यज्ञ में विष्णुजी का पराभव हुआ।
नारदजी ने इसके बाद वीरभद्र के द्वारा यज्ञ-विध्वंस के बाद का वृत्त जानना चाहा, तो ब्रह्माजी ने उन्हें बताया कि मैं, जब देवताओं के मुख से यज्ञ के विध वंस का समाचार सुन चुका तो बहुत चिंतित हुआ और देवों के कल्याण के लिए मैं परामर्श करने के लिए विष्णुजी के पास गया। विष्णुजी ने हम सभी को इस बात का अपराधी ठहराया कि यज्ञ में शिवजी का भाग नहीं था। और इस पाप का प्रायश्चित्र करने के लिए उन्होंने शिवजी की शरण में जाने के लिए कहा। उसके बाद विष्णुजी के नेतृत्व में में भी सभी देवताओं को साथ लेकर शिवजी
के यहां गया और दंडवत् होकर उनकी स्तुते की। हमारी स्तुति से शिवजी प्रसन्न हुए और तब उन्होंने विष्णु सहित हमसे कहा कि जो व्यक्ति अपराधी है उसे दंड देना सत्य का मार्ग है। मै तुम्हें क्षमा करता हूं और दक्ष भी बकरे का सिर धारण करके पुन: जीवित हो जाएगा। भृगु देवता सूर्य के नेत्रों से यज्ञ भाग को तथा पूषा के टूटे हुए दांत उग आएंगे जिससे वे यज्ञ का भाग प्राप्त कर सकेंगे। भुगु की दाढ़ी भी जम जाएगी और देवताओं के जितने भी अंग-भंग हुए हैं सब ठीक हो जाएंगे।
यह सुनकर सबने प्रसन्नतापूर्वक शिवजी को आदर दिया और उन्हें निमंत्रित करके हम सब यज्ञस्थल कनखल में आए। भगवान शिव ने ही दक्ष के धड़ पर बकरे का सिर लगाकर, उन्हें जीवित कर दिया। भगवान शिव के दर्शनों से सभी लोग कृतकृत्य हो गए। सबकी बुद्धि स्वच्छ हो गई। भगवान शिव ने दक्ष को तत्त्वज्ञान दिया और यज्ञ संपन्न करने का आदेश दिया। तदुपरांत सब देवताओं के साथ शिवजी को यज्ञ का भाग दिया गया। सब देवता लोग आनंदपूर्वक अपने-अपने घर वापस आ गए।
नारदजी! इस प्रकार दक्ष की पुत्री सती ने यज्ञ में अपना शरीर त्याग दिया और अगले जन्म में वह हिमालय के घर मैना के गर्भ से पार्वती के रूप में पैदा हुई। उसने भयंकर तप करके शिवजी को प्रसन्न किया और फिर उसे उन्हें पति रूप में प्राप्त किया।
पार्वती खण्ड
नारदजी ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि वे विस्तार से, पर्वतराज के घर में उत्पन्न होने वाली सती और उनकी माता का चरित्र सुनाने की कृपा करें। ब्रह्माजी ने उन्हें बताया कि शैलराज के नाम से उत्तर दिशा में एक अत्यंत सुंदर सर्वगुण संपन्न, . वीरता से परिपूर्ण तेजस्वी हिमालय नाम का एक राजा था। उसने धर्म के अनुरूप कुल की स्थिति और मर्यादा बढ़ाने के लिए विवाह करने की इच्छा की। देवताओं के अनुरोध पर पितृगणों ने अपनी एक बेटी मैना का विवाह पर्वतराज हिमालय से कर दिया।
नारदजी ने ब्रह्माजी से प्रश्न किया हे महाप्रज्ञ! आप कृपा करके विस्तार से मुझे मैना की उत्पत्ति के साथ श्राप का विवरण बताने का कष्ट करें। ब्रह्माजी बोले-हे नारद! तुम्हें हम पहले बता चुके हैं कि दक्ष के साठ पुत्रियों का जन्म हुआ था। इन साठ पुत्रियों का विवाह दक्ष ने कश्यप आदि ऋषियों से कर दिया। इन्हीं में से एक कन्या का नाम स्वधा था और उसका विवाह पितृगण से हुआ। स्वधा से तीन कन्याएं उत्पन्न हुईं, मैना, धन्या, और कलावती।
कुछ समय उपरांत कभी ये तीनों बहने विष्णुजी का दर्शन करने के लिए श्वेत द्वीप में गईं। वहां पर एक बड़ी सभा में जहां अनेक लोग एकत्रित थे, सनक आदि मुनि लोग आए। उनके स्वागत के लिए सभी लोग खड़े हो गए। लेकिन शिवजी की माया से विमोहित ये तीनों बहनें बैठी रहीं और उन्होंने मुनियों को उठकर प्रणाम भी नहीं किया। इस पर क्रुद्ध होकर सनक कुमार ने इन तीनों बहनों को मनुष्य-योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया।
यह जानकर तीनों बहनें बहुत दुःखी होकर मुनि के चरणों में गिर पड़ी और क्षमा-याचना करने लगी। उनकी प्रार्थना से सनक कुमार जी करुणा से भर गए और उन्होंने कहा कि मैना हिमाचल की पत्नी बनकर पार्वती को जन्म देगी और धन्या से जनक के यहां सीता का जन्म होगा और वृषभानु से विवाह करके कलावती राधा को जन्म देगी। अपनी इन पुत्रियों के कारण ही तुम अपना उद्धार करके स्वर्ग में लौट सकोगी।
समय आने पर मैना का विवाह हिमालय से हो गया। जब इन्द्र आदि देवताओं को पता चला तो वे मैना के पास गए और उनसे अनुरोध किया कि वे तप के द्वारा भगवती दुर्गा को पुत्री के रूप में प्राप्त करें। देवताओं का यह निवेदन मानते हुए मैना और पर्वतराज हिमालय ने सत्ताईस वर्षों तक कठोर तपस्या की। इस तपस्या के उपरांत वे भगवती दुर्गा को पुत्री रूप में प्राप्त करने के योग्य बन गए। हिमालय और मैना ने शिव और शिवा की मूर्ति बनाकर उसका अखंड पूजन किया।
भगवती दुर्गा हिमालय और मैना की तपस्या और पूजन से बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने उन्हें दर्शन दिए। उनकी निष्ठा और साधना से प्रसन्न हुई दुर्गा ने उनसे वर मांगने के लिए कहा, तब मैना ने भगवती को बहुत आदरपूर्वक प्रणाम किया और उनसे दीर्घात्मा सौ पुत्र मांगे तथा यह भी प्रार्थना की कि स्वयं भगवती पुत्री रूप में उनके गर्भ से उत्पन्न हों। मैना की बात सुनकर भगवती दुर्गा तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गईं। हिमालय और मैना अपने घर वापस आ गए।
समय आने पर मैना के गभे से सौ पुत्रों का जन्म हुआ। सबसे बड़े पुत्र का नाम मैनाक रखा गया। इसके उपरांत पुन: गर्भ धारण करके मैना ने जगदम्बा, भगवती दुर्गा को जन्म दिया। जब गिरिराज ने कन्या के जन्म का समाचार सुना तो उसने एक बहुत बड़े उत्सव का आयोजन किया। इसमें गिरिराज ने अनेक भिक्षुकों को धनधान्य देकर सम्मानित किया और मुनियों ने नवजात कन्या का काली महाकाली, दुर्गा आदि नाम रखा। पार्वती का धीरे-धीरे विकास होने लगा और वे गुरु से विद्याध्यन करने लगीं।
ब्रहाजी बोले-हे नारद! तुम्हें याद होगा कि एक समय तुम हिमाचल के घर गए थे और हिमाचल ने तुम्हारा अत्यधिक सत्कार किया था तथा तुमसे अपनी एक पुत्री का हाथ दिखाकर उसके भविष्य के विषय में जानना चाहा था। तुमने बताया था कि इस कन्या के सभी लक्षण बहुत शुभ हैं। लेकिन एक रेखा ऐसी है, जिसके अनुसार इसका पति योगी, दिगंबर, अकामी, पितृविहीन और अमंगलवेष वाला होगा। तुम्हारी बात सुनकर गिरिराज और मैना बहुत दुःखी हुए थे। लेकिन दुर्गा बहुत प्रसन्न हो गई थीं। हिमालय ने अत्यंत दुखित मन से तुमसे एक उपाय पूछा था। तुमने उन्हें बताया था कि एक ही देवता ऐसा है जिसमें यह सारे रूप हैं लेकिन अवगुण के रूप में नहीं, गुण के रूप में हैं।
और उन्हें भगवान शिव कहते हैं। यदि पार्वती को शिवजी ग्रहण कर लें तो तुम्हारा कल्याण होगा। उन्हें प्राप्त करने के लिए पार्वती को तप करना पड़ेगा। शिवजी इस कन्या को ग्रहण करने के बाद, अर्धनारीश्वर कहलाएंगे। ब्रह्माजी के मुख से अपने और पर्वतराज हिमालय के मध्य हुए कथा खंड को जानकर नारदजी ने ब्रह्माजी से कहा कि हे पितामह! जब में वहां से लौट आया
तब के बाद से आप मुझे सारा वृत्तान्त सुनाने की कृपा करें। यह सुनकर ब्रह्माजी बोले – तुम्हारे लौट आने के बाद मैना ने अपने पति पर्वतराज से पुत्री के लिए वर देखने का अनुरोध किया।
इस पर गिरिराज ने अपनी पत्नी को तुम्हारी कही हुई बातों में विश्वास और आस्था रखने के लिए कहा और यह भी कहा कि वह अपनी पुत्री से कह दें कि शिवजी को पाने के लिए वह तप करना प्रारम्भ कर दे। वह पार्वती के पास संदेश लेकर पहुंची। पार्वती ने स्वयं अपने एक स्वप्न की बात अपनी माता से बताई और कहा कि स्वप्न में एक ब्राह्मण ने मुझे शिव-प्राप्ति के लिए तप करने का आदेश दिया है। हिमाचल ने भी रात को एक स्वप्न देखा कि एक ब्राह्मण उनके नगर के पास तप करने आया है।
थोड़े समय के बाद ही शिवजी अपने अनेक गणों को लेकर उस नगर में तप करने के लिए पहुंचे। पार्वती उनकी नित्य प्रति अनेक रूप से सेवा करने लगी। पार्वती और शिव का साक्षात्कार तो होता था लेकिन शिवजी के मन में. पार्वती को देखकर कोई विकार उत्पन्न नहीं होता था। इस स्थिति के लिए देवताओं ने कामदेव को शिवजी का मन काम से भरने के लिए भेजा। लेकिन शिवजी ने कामदेव को भस्म कर दिया। इसके बाद पार्वती के अत्यंत कठोर तप से प्रसन्न होकर शिवजी ने पार्वती से विवाह कर लिया। इस विवाह के लिए विष्णु आदि देवताओं ने भी शिवजी से अनुरोध किया।
ब्रह्माजी से नारदजी ने पूछा कि हे प्रभु. सती से विरक्त होने पर शिवजी ने क्या किया और कैसे उन्होंने कामदेव को भस्म किया तथा वे तपस्या करने के लिए हिमालय के क्षेत्र में कब गए ? पार्वती ने तप के द्वारा शिवजी को कैसे प्राप्त किया? यह सारा वृत्तांत आप मुझे विस्तार से बताइए।
ब्रह्माजी बोले-अपनी प्रिया के वियोग में वे इधर-उधर घूमने लगे। उनकी दशा इतनी विचित्र हो गई कि वे मनुष्य के समान विक्षिप्त और उन्मुक्त होकर इधर-उधर विचरण करने लगे। उन्होंने अपने मन को शांति देने के लिए हिमालय पर जाकर कठोर तप किया। जब उनकी समाधि खुंली तो उनके सिर से पसीने के कुछ कण धरती पर गिर गए। पसीने की उन बूंदों से चार भुजाओं वाला एक अत्यंत तेजवान बालक शिवजी के सामने प्रकट हुआ।
और वह एक सामान्य मनुष्य के समान रोने लगा। इसी समय पृथ्वी स्त्री का वेष धारण करके शिवजी के पास आईं और उस बालक को गोदी में लेकर दूध पिलाने लगीं। शिवजी ने यह देखकर पृथ्वी की बहुत प्रशंसा की और उस बालक को पृथ्वी को ही दे दिया तथा उसके पालन-पोषण का आदेश दिया। यही बालक आगे चलकर भौम के नाम से विख्यात हुआ और उसने शिवजी को तप के द्वारा प्रसन्न किया तथा आगे का लोक प्राप्त किया।
पार्वती की आठ वर्ष की आयु होने के बाद-शिवजी को पता चला कि वह हिमाचल के यहां पैदा हुई है। शिवजी हिमालय के क्षेत्र में अपने गणों सहित तपस्या के लिए पहुंचे। वहां पर्वतराज हिमाचल ने उनका स्वागत किया। गंगा के अवतरण वाले क्षेत्र में तप करते हुए शिवजी से हिमालय ने पूछा कि वह उनकी क्या सेवा करे। उसके बार-बार अनुरोध करने पर शिवजी ने हिमालय से कहा कि वह गंगावतरण वाले क्षेत्र को सुरक्षित क्षेत्र बना दें और वहां शिवजी की निविघ्न तपस्या के लिए किसी का भी प्रवेश निषिद्ध कर दें। यहां तक कि मुनि और ऋषि, देव, गंधर्व आदि भी वहां प्रवेश न कर पाएं। शिवजी के इस अनुरोध को मानकर पर्वतराज हिमालय ने अपने नगर में पहुंचकर इसी प्रकार का आदेश प्रचारित कर दिया।
कुछ समय के बाद पर्वतराज हिमालय स्वयं अपनी पुत्री पार्वती एवं अनेक सुंदर उपहारों को लेकर शिवजी की सेवा में उपस्थित हुए। शिवजी समाधि में लीन थे अतः हिमालय उनकी समाधि के खुलने की प्रतीक्षा करने लगे। समाधि के खुलने पर उनकी अनेक प्रकार से स्तुति की और उनसे प्रार्थना की कि वे हिमालय को प्रतिदिन अपने दर्शन करने की अनुमति देने की कृपा करें और साथ ही पुत्री को सेवा करने का अवसर दें। शिवजी ने पर्वतराज के आने और दर्शन करने की प्रार्थना तो मान ली लेकिन उन्होंने पार्वती को वहां आने से मना कर दिया। शिवजी ने कहा कि स्त्री पुरुष के वैराग्य में बाधक है। स्त्री को बाधक के रूप में कहे जाने पर भी पार्वती सन्तुष्ट नहीं हुई।
पार्वती ने शिवजी से पूछा कि मैं यह जानना चाहती हूं कि प्रकृति के बिना लिंग रूपी महेश्वर का अस्तित्व कैसे विद्यमान रह सकता है। इस पर शिवजी ने उत्तर दिया कि सत्यपुरुष प्रकृति से दूर रहता है। इस पर पार्वती हंस पड़ीं और बोलीं-हे योगीराज, आपका यह कथन ही क्या प्रकृति नहीं है और यदि आप अपने को प्रकृति से परे मानते हैं तो यहां एकांत में तप की आवश्यकता क्या है ? प्रकृति से विरक्त होकर आप स्वयं को नहीं जान सकते।
और यदि जानते हैं तो इस तप की अनिवार्यता क्या है ? यदि आप प्रकृति से परे हैं तो मेरे यहां रहने पर आपका कोई अहित नहीं होगा। और यदि आप प्रकृति से परे नहीं हैं तो निषेध का कोई कारण नहीं। पार्वती की तत्त्वपूर्ण बातें सुनकर शिवजी ने उन्हें भी आने की अनुमति दे दी।
शिवजी से अनुमति पाकर पार्वती अपनी सखियों के सहित उस तप-क्षेत्र में प्रतिदिन आतीं और शिवजी की षोडशोपचार आराधना करतीं। शिव के मन में पार्वती की सेवा से और समीपता से कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ। उन्होंने पार्वती द्वारा मद्य से विगलित हो जाने पर ही उसे स्वीकार करने का निश्चय किया।
कामदेव उनको मोहित करने के लिए भेजे गए लेकिन वह भी शिवजी के मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं कर सके, अपितु स्वयं अपना नाश कर बैठे। कामदेव को भी असफल देखकर पार्वती ने तपस्या का आश्रय लिया और घोर तपस्या के बाद उन्होंने शिवजी को प्रसन्न किया और फिर तपस्या से पवित्र पार्वती को शिवजी ने पत्नी के रूप में ग्रहण किया। पार्वती से कार्तिकेय की उत्पत्ति हुई और कार्तिकेय तारकासुर को मारकर देवताओं का उद्धार करने वाले देवसेना के सेनापति बने।
ब्रह्माजी से नारदजी ने तारकासुर के विषय में विस्तार से जानना चाहा। तब ब्रहाजी ने बताया कि हे नारद! दिति ने जब देखा कि हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नरहरि रूप विष्णु के द्वारा मारे गए हैं तो उसने पुनः अपने पति कश्यप को प्रसन्न करके पुनः गर्भ धारण किया। लेकिन इन्द्र ने छिद्र देखकर दिति के गर्भ में प्रवेश किया और वज्ज से गर्भ के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इसपर भी अपनी तपस्या के कारण दिति का गर्भपात नहीं हुआ।
समय आने पर दिति ने अपने गर्भ से ४६ मरूद् गणों को उत्पन्न किया, किंतु उनको इन्द्र ने अपना मित्र बना लिया। इसके बाद शिव पुराण दिते ने फिर पति की सेवा का आश्रय लिया, कश्यप ने देति को बताया कि वह कठोर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न करे। अपने पति से यह जानकर कि तपस्था से ही अत्यंत बलशाली पुत्र प्राप्त किया जा सकता है, दिति ने तप किया और बज्ञांग नाम के अत्यंत बलशाली पुत्र को उत्पन्न किया।
बज्ञांग ने अपनी माता कि की आज्ञा से इन्द्र आदि देवताओं को पकड़ लिया और उन्हें दंडित किया। कुछ समय के बाद बजांग ने अत्यंत उत्पात मचाने वाला तारकासुर नाम का भयंकर पुत्र पैदा किया। यही बाद में सारे उत्पात मचाते हुए ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगा। ब्रहा (मैं) उसके तप से प्रसन्न हुआ और मैंने उसे देवताओं से अजेय होने का वर दे दिया। इसके बाद उस अत्यत बलशाली तारकासुर ने इन्द्र से ऐरावत हाथी छीन लिया, कुबेर से नवनिधि प्राप्त कर ली.
सूर्य से उसका अश्व और देवताओं के पास जो-जो भी अच्छी-अच्छी वस्तुएं थी उन सब को छीन लिया तथा देवताओं को स्वर्ग से ही निकालकर दैत्यों को बसा दिया। उसकी वीरता के आगे कोई देवता ठहर नहीं पाया। उसके उत्पातों से, भयंकर रूप से त्रस्त होकर देवता लोग इन्द्र को नेता बनाकर मेरे पास आए। मैंने देवताओं की पीड़ा के विषय में द्रवित होने के बाद ही उनसे कहा कि तारकासुर की शक्ति मेरे वरदान के कारण है इसलिए उसका उच्छेद मेरे द्वारा असंभव है।
यह काम शिवजी का पुत्र कर सकता है। आप लोग शिवजी के पास जाइए और उनसे निवेदन कीजिए कि वे हिमालय की पुत्री को पत्नी के रूप में ग्रहण करें और पुत्र उत्पन्न करें। इस प्रकार मैंने देवताओं को शिवजी की सेवा में भंज दिया और तारकासुर ने देवताओं को स्वर्ग वापस करने के बाद शोणितपुर को अपनी राजधानी बनाया और वहीं राज्य करने लगा।
अपना स्वर्गलोक वापस पाने के बाद देवताओं ने शिवजी के पुत्र होने की संभावनाएं खोजनी शुरू कर दीं। इन्द्र ने कामदेव को बुलाया और उसकी शक्ति की बहुत प्रशंसा की तथा देवों की सहायता करने का अनुरांध किया। इन्द्र ने कामदेव को स्पष्ट बताया कि भगवान शिव से उत्पन्न पुत्र ही तारकासुर का वध कर सकता है। शिवजी के पुत्र तब होगा जब वह विवाह करेंगे। और विवाह वह तब करेंगे जब उनके योग्य पार्वती के प्रति उनमें आसक्ति जागेगी।
है कामदेव. तुम कुछ ऐसा करो जिससे शिवजी की समाधि टूटे और वे पार्वती में आसक्ति भाव रखते हुए उनसे विवाह कर लें। कामदेव ने इन्द्र की आज्ञा को स्वीकार करते हुए अपनी सेना के साथ शिवजी के क्षेत्र की ओर प्रस्थान किया। कामदेव ने चारों ओर अपने मित्र बसंत की सहायता से बहुत मादक और मनमोहक वातावरण उत्पन्न कर दिया। लेकिन शिवजी के ऊपर कामदेव के इस प्रयास का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
कामदेव ने शिवजी के भीतर प्रवेश करने के लिए कोई छिद्र दूंढ़ना चाहा लेकिन उसे जरा-सी भी सफलता नहीं मिली। थोड़ी देर में ही कामदेव ने देखा कि पार्वती ने पत्र-पुष्प लाकर शिवजी की पूजा की और शिवजी थोड़ी देर के लिए अपने तप को छोड़कर पार्वती के रूप और सौंदर्य का अवलोकन करने लगे। बस यहीं पर कामदेव को एक छिद्र मिल गया और उसने शिवजी के शरीर में प्रवेश किया।
जैसे ही शंकरजी ने पावेती के अनुपम रूप और सुंदर शरीर पर दृष्टि स्थापित की, वैसे ही पार्वती लज्जा से भर गई। लज्जा के कारण उभरे संकोच से पार्वती का सौंदर्य दो गुना होकर शिवजी के सामने आया और शिवजी पार्वती की ओर अधिक आकृष्ट हो गए। पार्वती थोड़ी दूर खड़ी होकर शिवजी की ओर कटाक्षपूर्ण दृष्टि से देखने लगीं और उन्हें मुग्ध करने की चेष्टा कीं। शंकरजी पार्वती की इन सुंदर चेष्टाओं को देखकर सुख अनुभव करने लगे और उनके मन में पार्वती को स्पर्श करने की तथा आलिंगन करने की इच्छा जागी। लकिन एक क्षण बाद ही उनमें चेतना जाग गई और वे अपनी इस विकृति पर पश्चात्ताप करने लगे और सहज रूप में अपने पूर्ववर्ती भाव पर आ गए।
मन में इस प्रकार विकार का भाव आने पर शिवजी विचार करने लगे कि ऐसा क्यों हुआ। तब उन्होंने अपने बाएं भाग में कामदेव को उपस्थित पाया। शिवजी क्रोधित हुए और उन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया। कामदेव के भस्म हो जाने पर देवता लोग अत्यंत दुःखी होकर विलाप करने लगे और पार्वती का शरीर भयग्रस्त हो गया तथा कामदेव की पत्नी रति मूच्छित हो गई। देवताओं ने शंकरजी को प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रार्थना-स्तुति करनी शुरू कर दी और उन्होंने कहा कि हे प्रभु!
आप प्रसन्न हों और रति के शोक का हरण करें। तब शिवजी बोले कि मेरे क्रोध से दग्ध हुआ कामदेव फिर से शरीरधारी तो नहीं हो सकता। अब तो वह अशरीरी ही रहेगा। लेकिन एक उपाय मैं बताता हूं कि द्वापर में श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी के गर्भ से प्रद्युम्न नाम का एक बालक होगा, जिसे शंबर दैत्य चुराकर समुद्र में फेंक देगा। तब रति समुद्र से निकले हुए प्रद्युम्न को पति रूप में प्राप्त करेगी। यह सुनकर रति शंबर क्षेत्र में और देवता लोग अपने-अपने क्षेत्र में चले गए।
ब्रह्माजी ने कहा कि हे देवताओं में श्रेष्ठ नारदजी, शंकरजी के नेत्रों से निकली आग को, जो बहुत तीव्र थी और जो लोक को विचलित कर रही थी, मर्यादित करने को मैंने समुद्र से अनुरोध किया। समुद्र ने उस अग्नि को अपने में समाहित कर लिया। शिवजी के अंतर्ध्यान होने के बाद पार्वती वियोगग्रस्त हो गई और उनके माता-पिता बहुत चिंतित हो गए। सबने वहां जाकर उन्हें धैर्य बंधाया।
इस प्रकार कामदेव के प्रयास विफल होने के बाद पार्वती ने शिव की प्राप्ति के लिए तप का मार्ग अपनाया और अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर गंगोत्री के पास गंगावतरण नामक स्थान पर भृंगी तीर्थ में जप करने लगी। पहले वर्ष में पार्वती ने केवल फलों का भोजन लिया, दूसरे वर्ष में केवल पत्तों से निर्वाह किया और तीसरे वर्ष पत्तों को छोड़कर पूरी तरह से निराहार रहकर तप करती रहीं। इस कारण उनका अपर्णा नाम भी पड़ा।
पार्वती ने कठोर तपस्या करते हुए एक पैर पर खड़े होकर निराहार रहकर ३०००० वर्ष तक शिवमंत्र का जाप करते हुए शिवजी को प्रसन्न करने की चेष्टा की। इतनी गहन तपस्या के बाद भी शिवजी जब प्रकट नहीं हुए, तब पार्वती के माता-पिता ने और अनेक बंधुओं ने उन्हें समझाया और कहा कि जो शिव कामदेव के वश में नहीं आ सकते, जिन्होंने उसे भी भस्म कर दिया, उनकी प्राप्ति के लिए तुम्हारा उपाय व्यर्थ जाएगा। लेकिन पार्वती ने अपने निश्चय को दोहराया और कहा कि मैं भक्तों को प्रसन्न करने वाले शिवजी को अवश्य प्रसन्न करूंगी।
पार्वती अपने तप पर दृढ़ रहीं और उन्होंने इतना कठोर तप किया कि उससे दु:खी होकर इन्द्र आदि देवता मेरी शरण में आए और मैं उनको साथ में लेकर विष्णुजी के पास गया। विष्णुजी ने परामर्श दिया कि हम सब साथ चलकर शिवजी से प्रार्थना करें। पहले हमने पार्वती के दर्शन किए और उन्हें साक्षात् सिद्धि स्वरूप देखा। हमने उनकी बहुत प्रशंसा की और शिवलोक में आकर शिवजी का वेदमंत्रों से स्तवन किया। हमारी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने हमारे आने का कारण पूछा। हमने तारकासुर के उपद्रवों और देवताओं के हित के लिए शिवजी से पार्वतीजी के साथ विवाह करने का अनुरोध किया।
शिवजी ने कहा कि गिरिजा से विवाह करके मैं कामदेव को पुन: जीवित तो कर दूंगा लेकिन तुम सब देवता लोग अपने ही तप और अपने ही साधनों से अपने कष्टों का निवारण करने पर बल दो। यह कहकर शिवजी फिर आत्मलीन हो गए। हमने अत्यंत श्रद्धापूर्वक दीनहीन भाव से शिवजी की पूजा की। उनका स्तवन किया और इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने ध्यान भंग किया और देवताओं से उनकी इच्छा जाननी चाही।
विष्णुजी ने सब कुछ जानने वाले शंकर से प्रार्थना की कि वह पार्वती से विवाह करें और उनके गर्भ से पुत्र उत्पन्न हो, तब वही पुत्र तारकासुर का वध कर सकता है। ब्रह्माजी ने इसी प्रकार का वरदान तारकासुर को दिया हुआ है। नारदजी के उपदेश से पार्वती भी आपको पाने के लिए तपस्यारत हैं और रति को जो आपने वरदान दिया था उसकी पूर्ति का समय भी आ गया है।
विष्णुजी की यह बात सुनकर शिवजी ने उनसे कहा कि स्त्री का संग कुसंग है, वह निगूढ़ बंधन है और मुझे विहार और रमण की कोई इच्छा नहीं है। फिर भी आपके कहने से तारकासुर के अत्याचारों से आपको मुक्त कराने के लिए में पार्वती से विवाह करूंगा। जब हम लोग वापस आ गए तो भगवान शंकर ने सप्त ऋषियों को बुलाकर पार्वती की परीक्षा के लिए भेजा। सातों ऋषियों ने पार्वती के पास जाकर उनसे तप करने की जानकारी प्राप्त करनी चाही। उन्होंने नारदजी के द्वारा निर्देशित विधि से शिवजी की प्राप्ति को अपनी साधना का लक्ष्य बताया।
जब ऋषियों को यह पता चला तो उन्होंने सबसे पहले पार्वती के सामने नारदजी की बुराई की और कहा कि नारदजी तो मन के काले हैं और शरीर के उजले हैं। वे दूसरे घर को फोड़ने वाले हैं। इसके बाद पार्वती के सामने ऋषियों ने शंकर को भी निर्लज्ज, अमंगलवेषधारी, भूत-प्रेतों का साथी, दिगंबर बताकर यह भी बताया कि उन्हीं के कारण दक्ष की पुत्री जलकर मरने पर विवश हो गई। पार्वती से उन्होंने अपने निश्चय पर पुनर्विचार करने और हठ छोड़ने के लिए कहा। लेकिन पार्वती ने ऋषियों की बात को मानने से इनकार कर दिया। सप्त ऋषि शिवजी के पास आए और उन्होंने सारी बातें शिवजी को सुना दीं। इसके बाद शिवजी ने स्वयं पार्वती की परीक्षा लेने का विचार किया।
भगवान शिव ब्रह्मचारी का रूप धारण कर पार्वती की परीक्षा लेने के लिए पहुंचे। पावंती के पास जाकर ब्रह्मचारी शिव ने उनके तप का कारण पूछा। पार्वती ने उन्हें बताया कि वह जन्म-जन्मांतर के लिए शिवजी को पति के रूप में पाने के लिए कृतसंकल्प हैं और यदि उनके लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई तो वह जलकर भस्म हो जाएंगी। भगवान शिव ने पार्वती के इस विचार को अविवेकपूर्ण बताया और शिव की अनेक प्रकार से निंदा की।
ब्रह्मचारी ने शिव को कपाली. भस्मधारी. सर्पों को लपेटने वाला, विष पीने वाला, और तीनों आंखों वाला बताया और कहा कि वह गृहस्थ भोग के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं। ब्रहाचारी ने कहा कि कहां कपाली शिव. और कहां स्त्रियों में तुम जैसी रत्न। तुम विष्णु, इन्द्र आदि देवताओं को छांड़कर शिव में क्यों अनुरक्त हो, तुम्हारी यह अनुरक्ति अज्ञानपूर्ण है।
पार्वती ने इस प्रकार की बातें सुनकर बेचैनी अनुभव की और उसने शिव-निंदक ब्रहाचारी के लिए मृत्यु को ही सही दंड बताया। उसने कहा कि तुम मुझे पथभ्रष्ट करना चाहते हो, तुम्हें शिव की वास्तविकता का ज्ञान नहीं है। शिव के मूल तत्त्व से अपरिचित हो, अन्यथा शिव, जो सगुण और निर्गुण ब्रह्म के आत्मा रूप हैं, उनकी ऐसी निंदा नहीं करते।
जब ब्रहाचारी ने फिर कुछ कहना चाहा तो पार्वती ने अपनी सखी द्वारा उस शिव निंदक से दूर जाने का आदेश दिया। जब वह वहां से नहीं गया तो उन्होंने स्वयं उस सथान को छोड़ने का संकल्प किया। पार्वती के इस रूप को देखकर शिव ने अपना वास्तविक रूप व्यक्त किया और अपने रूप का दशंन कराकर पार्वती के मनोरथ को पूरा करने की घोषणा की।
शंकरजी से वर प्राप्त करने के बाद पार्वती अपने पिता के घर वापस आ गईं। उसने अपने माता-पिता और संबंधियों से सारी बातें कहीं। एक दिन शिवजी एक नर्तक के रूप में पार्वती के घर में आकर सुंदर और मोहक नृत्य करने लगे। उन्होंने भिक्षा में पार्वती को मांगा। नर्तक की मांग पर मैना क्षुध्ध हो उठीं। थोड़ी देर बाद हिमालय भी वहां आ गए। उन्होंने नर्तक के तेजर्वी रूप को देखा. लेकिन उसकी मांग को स्वीकार नहीं कर सके।
ब्रह्माजी बोले कि हे नारद! इन्द्र इस बात से बहुत चिंतित हो गये कि पवेतराज हिमालय और शिव की प्रीति बढ़ रही है। वह बृहस्पति के पास आये और उसने हिमालय की शिवजी के प्रति बढ़ती हुई आदर-भावना का विरोध करते हुए उसमें बाधा डालने का उपाय पूछा। लेकिन देवगुरु ने ऐसा कुछ भी करने से मना कर दिया। फिर इन्द्र निराश होकर मेरे पास आये और मैंने भी शिवजी के विरोध में कुछ भी करने की अस्वीकृति दी।
फिर वह विष्णुजी के पास गया पर विष्णु ने कहा कि मैं शिव-निंदा का पाप नहीं करूंगा। तुम यदि चहते हो कि हिमालय को मुक्ति न मिले तो शिवजी के पास जाओ और उन्हें प्रसन्न करो और यह कहो कि वह अपनी निंदा अपने आप करें। क्योंकि कोई और शिवजी की निंदा करने का संकट नहीं उठा सकता। इन्द्र ने शिवजी का द्वार खटखटाया और उनसे अपनी निंदा करने के लिए कहा।
शिवजी ने इन्द्र का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और वे ज्योतिषी के वेष में हिमालय के घर गए। उन्होंने शिव को कुरूप, अगुण, विकट, जटाधारी, श्मशानवासी आदि बताकर शिवजी की निंदा की और पर्वतराज हिमालय से कहा कि वे ऐसे शिव को अपनी लडकी न दें। ज्योंतिषी की बातों में आकर मेना ने पवतराज हिमालय से कहा कि वे उसकी पुत्री को चाहे आजीवन अविवाहित रखें. लेकिन उसका विवाह शंकर से न करें। मैना ने यहां तक कहा कि यदि उसकी बात नहीं मानी गई तो वह विष खाकर पर्वत से कूदकर या समुद्र में डूबकर अपने प्राण दे देगी।
इधर शंकरजी ने सप्त ऋषियों का रमरण किया और समरण करते ही वसिष्ठ आदि सप्त ऋषि अरुधती के साथ वहां उपस्थित हो गए और शिवजी को प्रणाम करके उनसे सेवा की मांग की। शंकरजी ने सप्तर्षियों को बताया कि किस तरह से पार्वती ने कतोर तप किया और कैसे शिवजी ने स्वयं अपनी निंदा की और किस तरह तारकासुर के वध से देवताओं के उद्धार के लिए संतान उत्पत्ति की आवश्यकता है और किस तरह मैना पार्वती का उनसे विवाह न करने का प्रण कर चुकी है। शिवजी ने सप्तर्षियों को मैना और हिमालय को समझाने के लिए भेजा। उन्होंने कहा कि सप्तर्षि हिमालय के पास जाएं और उन्हें पार्वती तथा शंकर का विवाह करने का आदेश दें।
सारे ऋपि अरुंधती को साथ लेकर हिमालय के यहां आए। उन्होंने मैना और हिमालय को बताया कि लोक में और वेद में तीन प्रकार के वचन हैं।
- शास्त्रवाक्य
- स्वयं सुविचारित और विवेक से परिपूर्ण वाक्य
- श्रुतवाक्य या तत्चज्ञाताओं द्वारा कहे गए वाक्य।
इन तीनों वचनों में से किसी भी दृष्टिकोण से भगवान शिव के संबंध में विचार करते हुए शिव को अत्यंत विलक्षण, अनुपम, और अविकारी माना जाता है। भगवान शकर रजोगुण से रहित होने पर ही पूर्ण तत्त्व के ज्ञाता हैं। जिन शकर का सेवक कुबेर जैसा देवता हो, उसे दरिद्र कहने का साहस कौन कर सकता है। भगवान शंकर ही मूल रूप से सृष्टि के सृजन और संहार में समर्थ हैं। शिवजी से र्थापित किया गया संबंध किसी भी देवता को गौरव देता है। वसिष्ठजी ने पर्वतराज को सचेत करते हुए कहा कि आप हठ मत कीजिए। जिस प्रकार अरण्यराज ने ब्राह्मण को अपनी कन्या देकर उसके भय से अपनी संपत्ति बचा ली थी। उसी प्रकार आप भी शिवजी को अपनी पुत्री सौंपकर अपने को संकटों से मुक्त कर लें।
पर्वतराज ने ऋषियों से अरण्यराज का वृत्तांत विस्तार से जानना चाहा। वसिष्ठजी ने कहा कि पुराने समय की बात है। तेजस्वी अरण्यराज के अनेक पुत्र और एक रूपवती कन्या थी। कन्या का नाम पद्मा था। राजा अपनी पुत्री से बहुत प्रेम करता था। पुत्री के युवती होने पर राजा ने उसके लिए सुंदर और सुयोग्य वर की खोज की। एक दिन रूपवती पद्मा जल में विहार कर रही थी कि दूसरी तरफ से पिप्पलाद मुनि आए और वह पद्मा को देखकर उस पर मुगध हो गए।
उन्होंने अरण्यराज के पास आकर उनकी कन्या की याचना की। राजा ने उनके बुढ़ापे को देखकर बहुत चिंता अनुभव की, परंतु पुरोहित के समझाने पर ऋषि के श्राप से कुल की रक्षा करने के लिए उन्होंने कन्या पिप्पलाद को दे दी। पिप्पलाद उसे लेकर अपने आश्रम में आ गए। पदमा ने इस जीवन को ईश्वर का विधान मानकर र्वीकार किया और अपने पति की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया। एक दिन धम ने एक सुदर युवक के रूप में विचरण करते हुए पद्मा को
अपनी काम-भावना का शिकार बनाने की चेष्टा की। पतिव्रता सती ने युवक की भर्त्सना करते हुए उसे नष्ट हो जाने का श्राप दे दिया, तब धर्म ने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया और बताया कि वह कामुकतापूर्ण व्यवहार ब्रह्माजी की आज्ञा से कर रहा था जो पद्मा की परीक्षा लेना चाहते थे। यह सुनकर पद्मा विचलित हो उठी। उसे दो बातों ने व्यग्र कर दिया। एक तो उसका श्राप अन्यथा नहीं हो सकता दूसरे कि धर्म के बिना लोकयात्रा का प्रवर्तन कैसे हो सकता है।
अंत में पदमा ने इस प्रकार व्यवस्था की कि धर्म को द्वापर में एक चरण और त्रेता में दो चरण और कलियुग में तीन चरण होकर रहना पड़ेगा। और वह सतयुग में पुनः चारों चरणों से युक्त हो सकता है। इस ओर धर्म ने पिप्पलाद को यौवन का वरदान दिया, जिसके कारण उसने पद्मा के साथ सुख-विलासपूर्वक रहते हुए अपना जीवन आनंददायक बनाया।
वसिष्ठजी पर्वतराज से बोले कि एक सप्ताह के बाद ही सुंदर लग्न का योग है। इस लग्न में चंद्रमा बुध के साथ रोहिणी तारागण के साथ है। मार्गशीर्ष का महीना है तथा चंद्रमा सारे दोषों से रहित है। ऐसे सुंदर योग में मूल प्रकृति रूप भगवती जगदम्बा और जगतपिता शंकर का विवाह करके तुम कृतकृत्य हो जाओ। सप्तर्षियों के वचनों को सुनकर पर्वतराज हिमालय ने अपने और साथियों सुमेरु, गंधमादन, मंदर, मैनाक और विंध्याचल आदि को बुलाया और ऋषियों के प्रस्ताव पर विचार किया। उनकी स्वीकृति मिलने पर हिमालय ने सप्तर्षियों को अपनी स्वीकृति दे दी। सप्तर्षियों ने हिमालय के प्रति शुभकामनाएं अर्पित कीं और कैलास आकर शिवजी को सारा वृतांत यथावत् सुना दिया।
सप्तर्षियों ने शिवजी को विवाह की तैयारी करने के लिए कहा। उधर दूसरी ओर हिमाचल ने अपने पुरोहित को बुलाकर लग्न की पत्रिका लिखवाई और अनेक सुंदर तथा उत्तम सामग्रियों के साथ भेंट स्वरूप शिवजी के पास भिजवाई। हिमालय विवाह की तैयारियां करने लगा। उसने विवाह से संबंधित सामग्री संचित करने का काम शुरू कर दिया। नगर को बहुत सुंदर रूप में सजाया, विश्वकर्मा को बुलाकर दूल्हा और बरातियों के लिए सुख-सुविधा से संपन्न निवासों का प्रबंध कराया।
ब्रह्माजी से नारदजी ने पूछा कि हे महाप्रभु! आप शिवजी के विवाह का वर्णन करने की कृपा करें। तब ब्रह्माजी बोले कि हे नारद! जब भगवान शंकर के पास लग्न की पत्रिका पहुंच गई, तब उन्होंने तुम्हें याद किया और जब तुम वहां पहुंचे (तुम्हें मालूम ही है) शिवजी ने तुम्हें ही अनेक देवों और किन्नरों, गंधर्वों, अपसराओं को निमंत्रण देने का कार्यभार सौंपा। तुमने सबको निमंत्रण दिया और जब सारे अतिथि कैलास पर पहुंच गए, तब शिवजी ने सबका स्वागत किया।
फिर शिवजी को वर के रूप में सजाया गया और सप्तमात्रिकाओं ने शिवजी का दूल्हे के रूप में श्रृंगार किया। शिवजी के सिर पर मुकुट सुशोभित होने लगा, मुकुट के ऊपर चंद्रमा और तिलक के स्थान पर तीसरा नेत्र शोभित हुआ। शिवजी के दोनों कानों पर सर्प के कर्णाभूषण बने। हाथी के चर्म का दुकूल बना और चंदन से ही उनका
अंगराग बनाया गया। जब शिवजी दूल्हे के रूप में श्रृंगार पूरा कर चुके, तब देवता, नाग, गंधर्वों के द्वारा सजी बारात ने कैलास से प्रस्थान किया। शंकरजी की यह बारात अत्यंत विलक्षण थी, क्योंकि इसमें विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र आदि के साथ अनेक सिद्ध, भूत-प्रेत, बैताल, ब्रह्म राक्षस, यक्ष, गंधर्व, किन्नर और अपसराएं अकेले और अपने परिवार सहित सम्मिलित हुए थे।
बारात जब नगर के समीप आई तब पार्वती की माता मैना अपनी पुत्री के भावी पति को देखने के लिए बहुत उत्सुक हुईं।
हे नारद! उस समय तुम्हीं उनकी सहायता कर रहे थे। जैसे-जैसे मैना पुत्री के भावी पति को देखने के लिए आगे बढ़ती गई वह प्रत्येक सजे हुए रूपवान युवक को देखकर उनके शिव होने का अनुमान करतीं और जब वह पूछती तो तुम मना करते हुए परिचय देते कि यह शिव नहीं हैं यह तो गंधर्व हैं, किन्नर हैं, यम हैं, अग्नि हैं, ब्रह्मा हैं, या और कोई देवता है। तुमने उनको बताया कि यह सब शिवजी के बंधु जन हैं और शिवजी इन सबसे अधिक सुंदर, तेजमय, और कांति वाले हैं तो मैना बहुत प्रसन्न हो गई, लेकिन शिवजी को देखते ही उनकी सारी प्रसन्नता तिरोहित हो गई और वह शोकाकुल हो उठी। उसने शिवजी को बैल पर चढ़े हुए देखा जिनके पांच मुख थे, तीन नेत्र थे और उनके शरीर पर भभूत मली हुई थी। यह देखकर मैना मूच्छित हो गईं और उनकी सखियां उन्हें चेतना में लौटाने की कोशिश करने लर्गी।
जब मैना को होश आया तो वह विलाप करने लगी और तिरस्कारपूर्ण बातें कहने लगीं। उसने इस तरह के पति को पाने के लिए तप करने वाली पार्वती को बहुत बुरा-भला कहा और इस विवाह को संपन्न कराने के लिए जिन लोगों ने भी प्रयास किया था. उन सबको अपशब्द कहे। वह विवाह के लिए जो सामान खरीदने आई थी उसे भूल गईं. उन्हें लगा कि पार्वती की साधना बिलकुल ऐसी ही है जैसे सोना देकर कांच खरीदना या चंदन को छोड़कर धूल लपेटना, या गंगाजल को छोडकर गंदला पानी पीना। उसने नारदजी से कहा कि हे नारद! मैंने तो पहले ही समझाया था लेकिन वह नहीं मानी।
इसपर मैंने मैना को समझाने की कोशिश की, तब उसने मुझे भी दुष्ट और अधम शिरोमणि कहकर दूर हो जाने के लिए कहा। मैना को अनेक देवताओं ने भी समझाया लेकिन वह नहीं मानी, और उसने घोषणा की कि शंकर से उसका विवाह नहीं होगा। यह सुनकर सब लोगों में बेचैनी फैल गई। हाहाकार मच गया। स्थिति को नाजुक देखकर पर्वतराज हिमालय ने मैना को समझाना चाहा। उन्हों ने कहा कि सत्य को स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है। लेकिन मैना ने अपने पति को बात भी नहीं मानी। इसके बाद स्वयं पार्वती ने माता को समझाने का प्रयास किया। लेकिन पार्वती की बात सुनकर मैना और भी क्रोधित हो गई और उसे अपशब्द कहने के साथ-साथ मारने-पीटने भी लगीं।
उसकी यह हालत देखकर मैं फिर मैना के पास गया और उसे शिव के महत्त्व को समझाने की कोशिश की, शिवत्व का सार बताने का प्रयास किया लेकिन वह अपनी मान्यता से विचलित नहीं हुई। जब विष्णुजी ने मैना को कई तरह से समझाया तो उन्होंने आग्रह किया कि मैं तभी मान सकती हूं जब शंकर सुंदर वेश में आना स्वीकार करें। उसके बाद शिवजी को अत्यंत सुंदर और सुसज्जित वेष में मैना के सामने उपरिथत किया गया। उन्हें देखकर वह अपनी पुत्री का विवाह करने के लिए तैयार हो गईं।
इस सारी घटना के बाद अपने गणों को साथ लेकर शिवजी हिमाचल के दरवाजे पर आए। अपनी संपूर्ण निष्ठा और भक्ति के साथ मैना ने शिवजी की आरती उतारी, वह बार-बार मंत्रमुगध होकर उन्हें देखती जाती थी और अपनी कन्या के भाग्य की सराहना भी करती जाती थी। वह शिवजी की रूप सुषमा पर मुभध्ध हो गई। अनेक संस्कारों के संपन्न होने के साथ-साथ पार्वती का यज्ञोपवीत संर्कार भी किया गया और उन्हें वे सभी आभूषण और वस्त्र पहनाए गए. जो शिवजी के द्वारा लाये गए थे। पंडितों में शिवजी की ओर से गुरु बृहस्पति ने और पर्वतराज की ओर से गर्ग ने शुभ लग्न में शिवजी और पार्वती का विवाह संपन्न कराया। हिमाचल और मैना ने कन्यादान किया।
विवाह संस्कार के बीच जब गोत्र आदि के उच्चारण करने का अवसर आया, तब पर्वतराज हिमाचल के पंडित गर्ग ने शिवजी से गोत्र और कुल के विषय में जानना चाहा। तुम वहां थे और तभी तुमने शिवजी की महिमा का गान किया और उन्हें परब्रहम, अरूप, निराकार, मायातीत बताकर कन्या पक्षवालों को इस प्रकार की लौकिक बातों में न पड़ने का परामर्श दिया। कन्यादान का समय व्यतीत हो रहा था, इसलिए मेरु आदि अनेक संबंधियों के कहने पर कुल-गोत्र के बंधन को छोड़कर हिमालय ने कन्यादान किया और शिवजी को अनेक वस्तुएं तथा अतुल धनराशि के साथ संतुष्ट किया।
ब्रह्माजी बोले कि हे नारद! यज्ञ-मंडप में जब शिव और पार्वती का विवाह संपन्न हो रहा था तब मेरा मन पार्वती का मुख देखने के लिए लालायित हो उठा। कोई और उपाय न देखकर मैंने यज्ञ में गीली समिधाएं डाल दीं और पार्वती को अपना मुख अनावृत्त करने को विवश कर दिया। मैंने पार्वती की रूपराशि को देखकर काम-मोहित हो संयम खो दिया। मेरा मन इतना अधिक क्षुब्ध हो गया कि वहीं स्खलित हो गया। मेरा यह कर्म शिवजी से नहीं छिपा और वे मुझे मारने के लिए दौड़े लेकिन देवताओं की स्तुति से किसी प्रकार शांत हुए। किंतु मेरा अंश धरती पर गिर गया और सहस्र कणों में विभाजित हो गया। उससे सहस्रों बालखिल्य ऋषि उत्पन्न होकर तत्काल मुझे पिता-पिता कहने लगे।
तुमने इस सारी स्थिति से कुपित होकर उनको गंधमादन पर्वत पर तपस्या करने के लिए भेज दिया। फिर मैंने शिवजी के प्रति अपनी निश्चल भक्ति अर्पित की और वह प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रसन्न होकर मुझे सृष्टि-रचना का वरदान दिया। सांसारिक रीति से विवाह संपन्न हुआ। इसी अवसर पर रति भी वहां आई और उसने प्रसन्न शिवजी से अपने भस्मी-भूत पति कामदेव को जीवित करने की प्रार्थना की। शिवजी ने जैसे ही भस्म पर दृष्टि डाली वैसे ही वहां कामदेव आविर्भूत हो गया। यह देखकर रति बहुत प्रसन्न हुई. लेकिन शिवजी ने कामदेव को विष्णुलोक से बाहर ही रहने का आदेश दिया। विवाह का सारा कार्य संपन्न होने के बाद बारात कैलास आ गई। बाराती शिवजी की अनुमति लेकर अपने-अपने धाम को लौट आए।
कुमार खण्ड
शिव और पार्वती के विवाह का वृत्तांत सुनने के बाद नारदजी ने विवाह के उपरांत शिव और पार्वती ने क्या किया और किस प्रकार पुत्र उत्पन्न हुए तथा तारकासुर का वध कैसे हुआ। यह महत्त्वपूर्ण वृत्तांत सुनाने के लिए ब्रह्माजी से कहा। सूतजी बोले कि हे मुनियो! ब्रह्माजी ने विस्तार से जो वृत्तांत नारदजी को सुनाया. वही मैं आपको सुना देता हूं। ब्रह्माजी ने तारकासुर का कार्तिकेय के द्वारा हुए वध का वृत्तांत इस प्रकार बताया:
विवाह के उपरांत शंकरजी पार्वती को लेकर कैलास पर पहुंचे और फिर एक सुरम्य एकांत र्थल को चले गए। वहां सहस्रों वर्ष तक रति विहार करते रहे। इतने वर्षो तक भी शिवजी के द्वारा पार्वती से कोई संतान उत्पन्न न होते हुए देखकर देवता लोग बहुत चिंतित हुए। फिर वे मुझे साथ लेकर विष्णुजी के पास गए और उन्होंने विष्णुजी से प्रार्थना की कि वह शिवजी को रस-क्रीड़ा से असंपृक्त करके संतान-उत्पत्ति के लिए प्रवृत्त होने की प्रार्थना करें। विष्णुजी ने देवताओं से कहा कि स्त्री-पुरुष के रति विहार के बीच बाधा डालना महापाप होता है। उन्होंने देवताओं को प्राचीन इतिहास का उदाहरण देकर यह बताया कि शिवजी के रति विहार में बाधा बनकर वे पाप के भागी न बनें।
विष्णुजी ने बताया कि दुर्वासा ने पुराने समय में रंभा और इन्द्र के बीच बाधा बनकर उन दोनों का वियोग कराया था, जिसके फलस्वरूप उनका अपनी स्त्री से वियोग हुआ। दूसरी स्थिति में बृहस्पति ने कामदेव का घृताची से वियोग कराया था जिसके फलस्वरूप छः महीने के भीतर ही चंद्रमा ने उनकी स्त्री का हरण कर लिया था। रति पीड़ित चंद्रमा का मोहिनी से वियोग कराने के कारण गौतम को बहुत समय तक अपनी पत्नी का वियोग सहना पड़ा था। राजा हरिश्चंद्र ने एक निजेन वन में एक किसान का एक शूद्रा के साथ वियोग कराया तो उसे विश्वामित्र के क्रोध का पात्र बनना पड़ा और अपनी स्त्री तथा पुत्र आदि से अलग होना पड़ा।
इस प्रकार हे देवताओ! इन सब उदाहरणों से तुम्हें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि रति-सुख में बाधा डालना महापाप है और उसका फल भोगना पड़ता है। तुम लोग शिव और पार्वती को वियुक्त करने की कोशिश मत करो। मैं जानता हूं कि १००० वर्ष पूरे हो जाने पर शिवजी अपने आप इस रति-भोग से विराम पाएंगे।
विष्णुजी की यह बात सुनकर देवता लोग अपने-अपने धाम को लौट गए। शिव और पार्वती (शक्ति और शक्तिमान) के विहार से पूरी पृथ्वी भय से ग्रस्त हो गई। तीनों लोकों में प्रकंपन पैदा हो गया। सभी देवता फिर बहुत चिंतित हुए और मेरे पास आए और मैं उन्हें लेकर विष्णुजी के पास गया। हम लोग विष्णुजी को साथ लेकर कैलास पर गए और वहां भगवान शंकर की पूजा-स्तुति करने लगे।
भवानी-शंकर की स्तुति करते हुए विष्णुजी के नेत्रों में आंसू आ गए और उन आंसुओं से प्रभावित होकर तथा देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर शिवजी बाहर आए और बोले कि मेरे सिर से स्खलित शक्ति को ग्रहण करने की क्षमता हो तो उसे ग्रहण करो और इससे पुत्र उत्पन्न करके तारकासुर का विनाश करो। यह कहकर उन्होंने अपना शक्ति रूप वीर्य पृथ्वी पर फेंक दिया, देवताओं के प्रार्थना करने पर अग्नि ने कबूतर बनकर उसको चुग लिया।
इधर जब यह सारा वृत्तांत पार्वती को पता चला और उन्हें स्थिति का ज्ञान हुआ तो उन्हें अपना मातृत्व और रति-भोग नष्ट होता हुआ प्रतीत हुआ। पार्वती ने क्रोध में देवताओं को सुखी न रहने का श्राप दिया और देवांगनाओं को रति-पीड़ा के साथ वंध्या होने का श्राप दे डाला। अग्नि में होम हुए अन्न का भक्षण करते रहने से देवताओं के गर्भ रह गया। यह अत्यंत अप्राकृतिक था। इससे सभी देवताओं के पेट में दर्द होने लगा। इस बात की निवृत्ति के लिए हम लोग फिर शिवजी की शरण में गए और उनकी स्तुति की। हमारी स्तुति से प्रसन्न होकर शिवजी ने वमन के द्वारा वीर्य को बाहर निकालने का आदेश दिया। जब ऐसा हुआ तो वह वीर्य सोने के समान चमकता हुआ पर्वताकार होता हुआ आकाश को छूने लगा।
इस स्थिति से देवता लोग बहुत चिंतित हुए। अग्नि को अत्यंत वेदना हुई और उसकी वेदना पर द्रवित होकर शिवजी ने एक उपाय बताया कि इस भक्षित शक्ति को किसी स्त्री में स्थापित किया जाए। उसी समय हे नारद! तुम वहां पहुंच गए थे और तुम्हारे बताए हुए ढंग से ही अग्नि ने माघ के महीने में प्रयाग में स्नान करके सप्तर्षियों की पत्नियों (अरुधती को छोड़कर शेष छहों) के रोमों द्वारा शिवजी का वीर्य उनकी योनियों में स्थापित कर दिया। छ: ऋषि-पत्नियां गर्भवती हो गईं और उनके पतियों ने उन्हुं परित्यक्त कर दिया। वे सब-की-सब हिमालय पर आकर रहने लग्गी और समय आने पर अपने गर्भ को पर्वतराज पर छोड़ आई।
पर्वतराज के द्वारा उस गर्भ की शक्ति सहन नहीं हुई। उसने उसे गंगा में फेंक दिया। गंगा से भी उसकी शक्ति सहन नहीं हुई। उसने उसे उछालकर सरकंडों के बन में फेंक दिया। वहां मार्गशीर्ष शुक्ला षष्ठी के दिन शिवजी के पुत्र का प्रादुर्भाव हुआ। जब त्रिलोक में यह पता चला तो आनंद का वातावरण छा गया। ब्रह्माजी कार्तिकेय का परिचय देने लगे तो उन्होंने कहा कि कार्तिकेय के पैदा होने के बाद वहां सरकंडों के वन में विश्वामित्र का आगमन हुआ, तब कार्तिकेय ने उनसे अपने सारे संस्कार कराने को कहा।
विश्वामित्र पहले तो नवजात शिशु के मुख से यह बात सुनकर आश्चर्यचकित हुए फिर उन्होंने उससे कहा कि वे क्षत्रिय हैं और गाधि के पुत्र हैं। क्षत्रिय होने के कारण वे पुरोहित का कर्म नहीं कर सकते। तब कुमार ने विश्वामित्र को ब्राह्मण होने का वरदान दिया। ब्राह्मणत्व पाने के बाद विश्वामित्र ने कुमार के विधिपूर्वक जातकर्म आदि संस्कार कराए। कार्तिकेय के उत्पन्न होने के बाद एक अन्य महर्षि श्वेत ने कार्तिकेय का चुंबन किया और उसे अत्यंत शक्तिशाली शस्त्र आदि दिए। कार्तिकेय ने उन शस्त्रों को
ग्रहण किया और उन्हें लेकर वह क्रौच पवेत पर आया और उसके शिखर गिराने लगा। उसके इस कर्म को देखकर वहां अनेक राक्षस प्रतिरोध करने के लिए आए। किंतु कुमार के भीषण प्रहार से परास्त होकर समाप्त हो गए। यहां तक कि इन्द्र भी वहां पहुंचा और उसने कुमार के दायें-बायें भागों पर और हृदय पर बज से प्रहार किया तो उन स्थानों से शाख, विशाख और निगम नामक तीन अत्यंत बलशाली पुरुष पैदा हुए। वे सब चारों स्कंध हुए और इन्द्र पर प्रहार करने के लिए तत्पर हुए। इन्द्र इतना भयभीत हुआ कि अपने प्राणों की रक्षा के लिए उन्हीं की शरण में गया।
जब यह बालक स्वर्ग में पहुंचा, तब एक तालाब में स्नान करती हुई छ: कृत्तिका उसे पकड़ने के लिए दौड़ीं। कुमार के एकदम छ: मुख हो गए और वह अपने छहों मुखों से छहों स्त्रियों का दुग्धपान करने लगे। ये कृत्तिकाएं उसे अपने घर ले गईं और उसका पालन-पोषण करने लगीं।
ब्रह्माजी ने नारद को यह सारी घटनाएं सुनाईं और उसके बाद बोले कि हे नारद! शिवजी के पूत्र कार्तिकेय अत्यंत सहज, ज्ञानवान और अद्भुत पराक्रम से संयुक्त तेजस्वी हैं। वह साक्षात् भगवान शंकर के ही अवतार हैं। एक दिन भगवान शंकर से पार्वती ने पूछा कि हे प्रभु! जिस दिन आप देवताओं के द्वारा रति-सुख से विरत होने के बाद बाहर आए थे उस दिन आपका जो वीर्य पृथ्वी पर गिरा था उसका क्या हुआ? क्या उससे कोई बालक उत्पन्न हुआ या वह नष्ट हो गया ? शिवजी ने पार्वती के पूछने पर तत्काल देवताओं को बुलाकर इस बात की खोज-खबर की तब उन्हें पता चला कि शिवजी की शक्ति से उत्पन्न पुत्र स्कंद के रूप में जाना जाता है।
शिवजी ने अपने गणों को कहा कि नंदीश्वर के नेतृत्व में जाएं और कुमार को लेकर आएं। नंदीश्वर कृत्तिकाओं के पास गए और उनसे कहा कि जिस कुमार का वे पालन-पोषण कर रही हैं वह साक्षात् शिवजी के पूत्र हैं। इसके बाद नंदीश्वर ने क्मार को पार्वती के द्वारा भेजे गए संदर रथ पर बिठाया और शिवलोक आ गए। शिवलोक पहुंचने पर कुमार का हादिक स्वागत हुआ। शिव और पार्वती ने कार्तिकेय के सम्मान में एक उत्सव का आयोजन किया तथा उसके बाद एक शुभ दिन, मुहूर्त और तिथि देखकर कार्तिकेय का यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया गया। गंगा, यमुना और सरस्वती तथा अनेक अन्य नदियों और समुद्रों के जल से कुमार को स्नान कराया गया।
फिर एक अत्यंत सुंदर आसन पर बिठाकर उनका स्तवन किया गया। यज्ञोपवीत के इस अवसर पर अनेक देवताओं ने अपनी-अपनी श्रेष्ठ वस्तुएं कुमार को उपहार में दीं। विष्णु ने गदा, चक्र और इन्द्र ने ऐरावत और शंकर ने त्रिशूल और भगवती लक्ष्मी ने कमल तथा अन्य देवी-देवताओं ने अपनी अलग-अलग प्रिय वस्तु कुमार को दीं। इसके बाद देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की और उनसे कुमार को तारकासुर को मार देने वाली तथा प्रस्थान के लिए तैयार, देवताओं की सेना का नेतृत्व करने के लिए आदेश देने की प्रार्थना की।
भगयान शिव ने देवताओं की प्राथंना को स्वीकार किया और कातेंकंय का अभिषेक करते हुए देवसेना का सेनापति बनाया। इसके बाद कार्तिकेय तारकासुर के वध के लिए देवसेना का नेतृत्व करते हुए रवाना हो गए। इधर तारकासुर ने जब अपने नगर के आसपास देवताओं की सेना की उपस्थिति का ज्ञान प्राप्त किया तो उसने अपनी सेना को भी सावधान किया और युद्ध के लिए तैयार कर दिया। थोड़े समय उपरांत दोनों सेनाओं में घमासान लड़ाई होने लगी। सबसे पहले इन्द्र ने तारकासुर से युद्ध किया, किंतु तारकासुर ने इन्द्र की संपूर्ण शक्ति और युद्धकौशल को परास्त करते हुए उसके युद्ध-विद्या को निरर्थक कर दिया। इन्द्र के परास्त होने के बाद विष्णु तारकासुर से लड़ने के लिए आए और उन्होंने उस पर गदा से प्रहार किया।
तारकासुर ने अपने त्रिशिख बाण से गदा के दो टुकड़े कर दिए। इस प्रकार अन्य कई शस्त्र-अस्त्रों के साथ दोनों में युद्ध हुआ लेकिन असुरराज तारकासुर ने विष्णु को धराशायी कर दिया। इसके उपरांत यीरभद्ध ने त्रिशूल से तारकासुर को घायल कर दिया और अत्यंत पराक्रम से आक्रमण करके उसे मारने की चेष्टा की लेकिन मायायी अस्रराज ने वीरभद्र की भी एक न चलने दी और उसे भगा दिया।
तारकासुर की शक्ति बढ़ती ही जा रही थी। तब मैं (बहमा) कार्तिकेय के समीप गया और उनसे यह बात बताई कि मेरे द्वारा दिए गये वर के प्रभाव से तारकासुर को कार्तिकेय के अतिरिक्त और कोई भी देवता नहीं मार सकता। यह कहकर मैंने कुमार से तारकासुर के साथ युद्ध करने का निवेदन किया। मेरी बात सुनकर कुमार युद्ध के लिए तैयार हो गए और जैसे ही वे तारकासुर के सामने आए उसने कुमार को देखकर देवताओं की हंसी उड़ाइ, उनकी भत्सेना की और कहा के अपने आप हारकर इस छोटे से लडके को लड़ने के लिए आगे कर दिया।
तारकासुर ने कुमार से कहा कि वह युद्ध-भूमि से भाग जाए लेकिन उसकी बात अनसुनी करके क्मार ने उसपर जैसे ही प्रहार किया वैसे ही विष्ण आदि अन्य देवता आक्रमण करने लगे। दोनों ने एक-दूसरे के ऊपर शक्ति से प्रहार किया, किंतु तारकासुर की शक्ति के आघात से कुमार थोड़ी देर के लिए मूच्छित हो गए। मूच्छा के टूटने पर उन्होंने अत्यंत क्रोधित होकर तारकासुर पर प्रहार किया। इन दोनों यीरों का युद्ध इतना भयानक और दुर्धर्ष था कि अन्य सभी देवता और राक्षस युद्ध छोड़कर चकित होकर केवल इन दोनों का युद्ध देखने लगे।
काफी देर तक कुमार राक्षस से लड़ते रहे. किंतु अंत में उन्होंने शिव और पार्वती का स्मरण करके एक अत्यंत भीषण शक्ति तारकासुर के वक्ष पर मारी जिससे उस दैत्य का वक्ष फट गया और वह पृथ्वी पर गिर पड़ा और मर गया। देवताओं में हर्ष की लहर दौड़ गई और उन्होंने फूलों से कुमार की पूजा करते हुए उनका अभिनंदन किया। उसी रथल पर राजा क्रॉँच आए और उन्होंने कुमार से बाणासुर के अत्याचार और उत्पातों का वण्णन किया तथा उनसे प्राथेना की कि वे बाणासुर को मारकर
उससे मुक्ति दिलाएं। कार्तिकेय ने वहीं से एक शक्तिशाली शक्ति को छोड़कर वाणासुर के संनिक साथियों के साथ उसका विनाश कर दिया। इसके बाद तो अनेक लोग कुमार के पास आए। जैसे शेषजी के पुत्र कुमुद ने प्रलंबासुर से पीड़ा की कथा कुमार सं कही कुमार ने शेष के पुत्र को भी निर्भय कर दिया और प्रलंब का संहार कर दिया। इस प्रकार जो भी कार्तिकेय के पास सहायता के लिए आया उसे उन्होंने कृतार्थ कर दिया।
सूतजी ने स्कंद के इस दिव्य चरित्र को मुनियों को सुनाया। बाद में वे बोले कि स्कंद के इस दिव्य चरित्र को सुनने के बाद नारदजी ने गणेशजी के चरित्र को सुनना चाहा, तब ब्रह्माजी बोले कि कुमार ने आततायियों का संहार करने के बाद कैलास की ओर प्रस्थान किया। सभी देवता कुमार को साथ लेकर कैलास पर आए और भगवान शंकर के प्रति आभार व्यक्त करते हुए उनका स्तवन करने लगे। भगवान शंकर ने कुमार को बहुत स्नेह दिया और देवताओं से कहा कि मैं सबका कर्ता, भर्ता और हर्ता हूं। देवताओं के लिए मेरे मन में हमेशा कृपा का कोष रहता है। जब कभी भी तुम लोगों पर कोई आपत्ति आए और स्वयं उसका निराकरण न कर सको, तब मेरे पास आना, मैं तुम्हें दुःखमुक्त कर दूंगा। इन वचनों को सुनकर लोग बहुत प्रसन्न हुए और शिवजी का पुनः-पुनः स्तवन करते हुए उन्हें प्रणाम करके अपने-अपने लोक. चले गए।
हे नारद! शिवजी के चरित्र में और शिवजी के कथानक में तुम्हारी निष्ठा से मैं प्रसन्न हुआ हूं। शिवजी में तुम्हारी जितनी प्रीति है, वह बहुत मंगलविधायिनी और क्लेशनाशक है। यह कहकर ब्रह्माजी ने गणेश का चरित्र-वर्णन प्रारंभ किया। उन्होंने कहा कि कल्प के भेद से गणेशजी की उत्पत्ति और उनके चरित्र का वृत्तांत सुनाता हूं। एक बार पार्वती जया और विजया नाम की अपनी दो सखियों के साथ विचरण कर रही थीं। तब उन्होंने कहा कि हे महादेवी, शंकर के द्वार पर जितने भी असंख्य गण द्वारपाल के रूप में विद्यमान हैं, उनके ऊपर हमारा कोई अधिकार नहीं है। यदि हमारा भी कोई एक गण होता और उसपर हमारा भी अधिकार होता तो हम भी अपनी इच्छा के अनुरूप कुछ कह-सुन सकती थीं।
पार्वती इस बात को भूल गईं। लेकिन एक बार जब पार्वती स्नान कर रही थीं, तब भगवान शंकर भीतर आ गए और भगवती पार्वती को लज्जा का अनुभव करना पड़ा। इस समय उन्हें अपनी सखियों की बात याद आ गई और अपने लिए एक विश्वासपूर्ण अनुचर की आवश्यकता का अनुभव होने लगा। इस पर उन्होंने अपने शरीर के मेल से एक रूपवान. गुणवान और अत्यंत बलशाली बालक पैदा किया। पार्वती ने उस नये शिशु के हाथ में एक यष्टि देकर उसे द्वार का रक्षक बना दिया। पार्वती ने उसे आदेश दिया कि उनकी आज्ञा के बिना कोई भीतर न आने पाए। यह कहकर पार्वती फिर नहाने के लिए चली गइं। इसी बीच भगवान शंकर फिर भीतर जाने लगे तो उस बालक ने उन्हें रोक लिया।
शिवजी ने इस आश्चयंजनक बात पर बहुत क्षोभ अनुभव किया। उन्होंने कहा कि मैं घर का स्वामी हूं और पार्वती का पति हूं तुम मुझे अपने घर में जाने से कैसे रोक सकते हो! तुम्हारा यह कार्य अनधिकार चेष्टा है और मूर्खतापूर्ण भी है। यह कहकर भगवान शंकर अधिकारपूर्वक घर में जाने लगे। बालक ने उन्हें फिर रोका तो शिवजी ने अपने गणों से उसको समझाने के लिए कहा।
शिवजी के गण बालक को समझाने-बुझाने लगे और उन्होंने कहा कि वह शंकर से द्रोह न करे. शंकर से द्रोह करना अच्छा नहीं है। लेकिन उस बालक ने उन्हें मारकर भगा दिया। इस प्रकार कई बार शिवजी के गणों ने उसे समझाने की चेष्टा की। वह पार्वती के आदेश पर टिका रहा कि बिना पार्वती की आज्ञा के किसी को भी अंदर नहीं जाने देगा। इस पर शिव गणों ने उस पर प्रहार किया लेकिन वे सब उसे न हरा सके। उलटे उन्हें स्वयं भागना पड़ा।
इधर हे नारद, यह घटना जब मुझे और तुम्हें ज्ञात हुई और फिर तुमने इस घटना को इन्द्र आदि देवताओं को बताया तो हम सब-के-सब मिलकर शिवलोक चले गए। वहां सबसे पहले मैंने बालक को समझाने का प्रयास किया लेकिन मेरी बात को मानना तो दूर, उसने मेरी दाढ़ी नोचनी शुरू कर दी। मैंने उसे अपना परिचय दिया लेकिन इसका भी कोई प्रभाव उसपर नहीं हुआ। और उसने एक परिघि उठाकर मुझ पर प्रहार किया। मैंने वापस आकर सारी बातें शिवजी को कह दी तो भगवान शिव अपने आप उससे युद्ध करने के लिए तत्पर हुए। शिवजी के पीछे सेना भी चलने लगी। वहां पहुंचकर विष्णु उस बालक पर भयानक अस्त्रों से प्रहार करने लगे, लेकेन वह बिलकुल भी विचलेत नहीं हुआ।
इसके विपरीत उसने विष्णुजी को अपने भयानक आक्रमण से परास्त कर दिया। विष्णुजी को परास्त होते हुए देखकर शिवजी ने स्वयं उस बालक पर प्रहार किया। परंतु बालक ने अपनी शक्ति फेंककर शिव का धनूष गिरा दिया। इसके बाद बालक ने अपने शूल के प्रहार से शिवजी के हाथों पर प्रहार किया। शिवजी और शिवजी के गण तथा विष्णु आदि सभी देवी-देवता उस बालक के पराक्रम को देखकर आश्चर्यचकित हो गए। अंत में शिवजी को बहुत क्रोध आया और उन्होंने अपने त्रिशूल से उसका सिर काट डाला। उस बालक का सिर कटा हुआ देखकर देवता और गण शांत हो गए।
ब्रहमाजी बोले कि हे नारद! तब तुमने पार्वती के पास जाकर उनको यह बात सुनाई। यह सुनते ही अपने पुत्र की हत्या के कारण पार्वती बहुत क्षुब्ध हुईं और उन्होंने एक लाख शक्तियों की रचना करके अपने पुत्र के हत्यारों को नष्ट करने का आदेश दे दिया। उन्होंने गणों, देवों, ब्रह्मा, विष्णु को खा जाने का आदेश दे दिया। पार्वती से उत्पन्न शक्तियों ने बहुत उत्पात मचाया और देवता लोग भयाक्रांत हो गए। पावेती इतनी क्रोधित थीं कि शिवजी को घर में जाने का साहस संचित करना कठिन पड रहा था।
सारे देवी-देवता उस समय निष्प्राण, निस्तेज और चिंता में डूबे हुए थे। थोड़ी ही देर में तुम वहां पहुंचे और तब देवताओं ने अत्यंत आशा से तुम्हारी ओर देखा। तुमने पार्वती और हमारे बीच समझौता कराने के प्रयास में पार्वती की अनेक प्रकार से स्तुति की। तुम्हारी स्तुति से उनका क्रोध शांत हुआ लेकिन उन्होने एक शर्त रखी कि वह समझौता तभी कर सकती हैं, जब उनके पुत्र को जीवित कर दिया जाए और उन्हें देवताओं के बीच अत्यंत सम्मानित घोषित किया जाए।
इसके बाद शंकरजी ने देवताओं को आदेश दिया और देवता उत्तर दिशा में जाकर एक दांत वाले हाथी का सिर काटकर ले आए और शिवजी ने उसे उस बालक के धड़ से लगा दिया और उसे अपने गणों का नेता बनाकर गणेश का नाम दिया। गणेश के रूप में जब वह बालक जी उठा तो सब देवताओं ने उसकी पूजा की। पार्वती का क्रोध शांत हो गया तथा शिवजी और पार्वती में पहले जैसा सद्भाव और अनुराग स्थापित हो गया।
समय व्यतीत होने के बाद जब कार्तिकेय और गणेश थोड़े और बड़े हो गए तब शिव और पार्वती को दोनों लड़कों के विवाह की चिंता हुई। माता-पिता ने जब दोनों लड़कों से बात की तो वे बहुत हर्षित हुए और एक-दूसरे से पहले विवाह करने का अनुरोध करने लगे। बच्चों की इस जिद को देखकर शिवजी ने उनके सामने एक शर्त रखी कि तुम दोनों जाओ और पृथ्वी की परिक्रमा करो। परिक्रमा करके जो पहले आएगा उसी का विवाह पहले कर दिया जाएगा। शिवजी की बात को सुनकर कार्तिकेय तुरंत पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए दौड़ पड़े।
जब कार्तिकेय चले गए तब गणेश ने शिव और पार्वती को सिंहासन पर बैठाया और उनकी विधिपूर्वक पूजा की। उसके बाद गणेशजी ने उनकी सात बार परिक्रमा कर ली। इसके बाद शिव और पावती से अपना विवाह करने का अनुरोध किया। शिवजी ने आश्चर्यपूर्वक गणेशजी से कहा-यह कैसे हो सकता है? तब उन्होंने उत्तर दिया कि आपने ही तो यह विधान किया है कि माता-पिता की प्रदक्षिणा से पृथ्वी की प्रदक्षिणा का फल मिलता है।
गणेशजी का बुद्धि-चातुर्य अनुभव कर और उनकी सूझ-बूझ देखकर माता-पिता प्रसन्न हो गए और उन्होंने गणेशजी का विवाह करने का निश्चय कर लिया। इस समय सुयोग से विष्णु रूप प्रजापति ने पार्वती और शंकर के पास जाकर अपनी सिद्धि और बुद्धि नाम की दो कन्याओं का विवाह उनके पुत्र के साथ करने की बात की। शंकर और पार्वती ने अनेक देवी-देवताओं और ऋषियों को आमंत्रित करके गणेशजी का विवाह सिद्धि और बुद्धि से कर दिया। इन दोनों पत्नियों से गणेशजी के दो पुत्र उत्पन्न हुए।
सिद्धि के पुत्र का नाम ‘क्षेम’ और बुद्धि के पुत्र का नाम ‘लाभ’ रखा गया। इधर कुमार कार्तिकेय पृथ्वी की प्रदक्षिणा करके वापस आ रहे थे तो तुमने उनको गणेशजी के विवाह और संतान-उत्पत्ति की सूचना दी। कार्तिकेय ने इस समाचार को सुनकर यही कहा कि जहां पर माता-पिता पक्षपाती हों, वहां क्या हो सकता है। तुमने कातिकेय को और भी भड़का दिया। वह इतना उत्तेजित हो गए कि घर छोड़कर क्रौंच पर्वत पर तप करने के लिए चले गए। भगवान शंकर और पार्वती उनके सामने रिथति स्पष्ट करने के लिए जब क्रौंच पर्वत पर गए तो कुमार उनसे भेंट किए बगैर ही किसी दूसरे स्थान पर चले गए।
युद्ध खण्ड
ब्रह्माजी से महादेव शंकर के विवाह, कुमार की उत्पत्ति और गणेशजी के विवाह आदि के विषय में जानने के बाद नारदजी ने कहा-हे भगवन्! आपने मेरे मन को संतोष देने वाले शिव के चरित्र को सुनाया। अब मैं शिवजी के द्वारा दिए गये उन युद्धों का वर्णन सुनना चाहता हूं, जिनके द्वारा महाभाग शंकर ने दुष्ट दानवों का दलन किया। नारदजी के इस प्रश्न को सुनकर ब्रह्माजी ने कहा कि बहुत समय पहले सनत्कुमारजी से व्यासजी ने भी यही प्रश्न पूछा था।
उस समय सनतकुमारजी ने जो कुछ भी व्यासजी को बताया वह सारा वृत्तांत मैं तुम्हें सुनाता हूं। सनत्कुमारजी बोले कि हे व्यासजी! तारकासुर के तीन-तारकाक्ष, विद्युन्माली तथा कमलाक्ष नाम के पुत्र हुए थे। वे अत्यंत तेजस्वी और शक्तिशाली थे, किंतु उनका सबसे बड़ा दोष यह था कि वे देवताओं के द्वेषी थे। यद्यपि उनमें संयम और सत्यवादिता की कमी नहीं थी।
जब स्कंद के द्वारा तारक के मारे जाने की पुष्टि उन तीनों पुत्रों को हो गई तब उन्होंने पर्वत की गुफा में रहकर बहुत समय तक कठोर तप किया। इससे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें वर मांगने के लिए कहा। तारकासुर के तीनों पुत्रों ने ब्रह्माजी से जरा-व्याधि से छुटकारा और अमृतत्त्व का वरदान मांगा। ब्रह्माजी ने उन्हें समझाया कि वह वरदान उन्हें नहीं मिल सकता। वे कोई और वर मांगें। यह सुनकर उन्होंने ब्रह्माजी से ऐसे तीन पुरों की मांग की जो अजेय, दुर्भेद्य और सब प्रकार से साधन-संपन्न हो।
और उन्होंने यह भी मांगा कि वे तीनों देवों और दानवों के द्वारा अवध्य हों। उनकी यह बात सुनकर ब्रह्माजी ने उन्हें वरदान दिया कि वे शिवजी के अतिरिक्त और किसी भी देव-दानव द्वारा नहीं मारे जाएंगे। इसके साथ ब्रह्माजी ने उन्हें उन तीन अत्यंत समृद्ध नगरियों का अधिपति होने का वरदान दिया। ब्रह्माजी की आज्ञा से मय दानव ने आकाश में सबसे बड़े लड़के के लिए सोने का, स्वर्ग में बीच वाले लड़के के लिए चांदी का, और छोटे लड़के के लिए पृथ्वी पर लोहे के नगर का निर्माण किया। तीनों अत्यंत बलशाली थे। तारकासुर के पुत्र अपने-अपने पुरों में जाकर रहने लगे। लेकिन उन तीनों को इस बात का ज्ञान था कि ये देवों और दानवों के द्वारा अवध य हैं। अतः बहुत जल्दी ही इनके मन में अपनी शक्ति का गर्व पैदा हो गया जिससे ये धीरे-धीरे उद्धत होने लगे।
ये तीनों भाइ त्रिलोकी को पीड़ित करने लगे और जब देवलोक के निवासी इनसे बहुत अधिक संतप्त हुए, तब और कोई मार्ग न देखकर ब्रहाजी के पास गए और उनसे अपने कष्टों का वर्णन किया। ब्रह्माजी ने देवताओं को बताया कि ये तीनों असुर शिवजी के प्रसन्न होने के बाद ही मारे जा सकते हैं। शिवजी के अतिरिक्त कोई इनका विनाश नहीं कर सकता। ब्रह्माजी का परामर्श पाने के बाद देवता लोग भगवान शंकर की सेवा में उपस्थित हुए और उनकी पूजा-स्तुति की।
भगवान शंकर के पूछने पर उन्होंने अपना कष्ट बताया। इसके उत्तर में शिवजी ने कहा कि वे समय की प्रतीक्षा करें, समय आने पर सब कुछ ठीक होगा। शिवजी ने कहा कि वे तीनों असुर जब तक मुझमें प्रेम रखते हैं तब तक मेरी भक्ति के कारण वे विनाश के पात्र नहीं हो सकते। किंतु, शिवजी ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे जल्दी ही उनका दुः दूर करने का यत्न करेंगे।
देवता लोग शिवजी के लोक से वापस आकर मेरे पास आए और मैंने उन्हें विष्णुजी के पास भेज दिया। विष्णुजी ने देवताओं को बताया कि शिवजी का कथन सत्य है और धर्म, भक्ति तथा नीति के होते हुए इन असूरों का विनाश नहीं हो सकता। विष्णुजी ने इस विषय पर कुछ देर विचार किया और यज्ञों का स्मरण करते हुए इन्द्र आदि देवताओं से यज्ञ करने को कहा। देवताओं ने विधिपूर्वक यज्ञ किया और उस यज्ञकुंड से शूल शक्ति धारण किए हुए और प्रचंड शरीर वाले सहर्रों भूतों का एक विराट समुदाय प्रकट हुआ।
विष्णुजी ने उन्हें आदेश दिया कि वे तुरतं जाएं और असुरों के पुरों को नष्ट कर दें। दूत समुदाय विष्णु की आज्ञा से जैसे ही पुरों में प्रवेश करने लगा तो दैत्यों के तेज से उनमें से बहुत सारे भस्म हो गए। और जो शेष बचे थे वे भागकर विष्णु के पास आ गए। विष्णु ने जब इस प्रकार दानवों के अविजित होने और देवताओं के कष्टों के विषय में फिर से सोचा तो वे बहुत चिंतित हुए लेकिन उन्होंने देवताओं से कहा कि वे बहुत जल्दी कोई-न-कोई उपाय करेंगे।
जब देवता लोग चले गए तब विष्णुजी ने अपनी आत्मा से एक अत्यंत तेजस्वी चंवरधारी मलिन वसन, मायावी काष्ठ पात्र, कपड़े को मुख पर लपेटे हुए एक पुरुष को उत्पन्न किया। उसका नाम अर्हन् रखा। उसको आदेश दिया कि वह ऐसी प्राकृत भाषाओं में जो अपश्रंश के शब्दों से परिपूण हों एक ऐसा वणाश्रम धम का नाश करने वाला शास्त्र रचे जो अत्यंत विचित्र हो। विष्णुजी ने स्वयं अपनी माया को आदेश दिया कि वह अर्हन् का इस काम में सहयोग करे। विष्णुजी ने इस बात का आदेश भी दिया कि यह नया रचा हुआ शास्त्र असुरों के तीनों पुरों में प्रचारित हो जिससे असुर लोग पथ से विमुख हो जाएं और धर्मभ्रष्ट हों। इस प्रकार विष्णु ने त्रिपुर धारी राजा और जनता की धर्म-विमुख करने का उपाय निकाला।
विष्णुजी की आज्ञा से अर्हन् ने अत्यंत पाखंड से भरे हुए शास्त्र की रचना की और साथ-ही-साथ अपने अनेक शिष्यों को पैदा करके उन्हें इस शास्त्र के प्रचार के लिए त्रिपुरों में भेज दिया। अर्हन् के चार प्रमुख शिष्य-कृषि, पति, कार्य और उपाध्याय के साथ स्वयं त्रिपुर नगर को प्रस्थान किया। प्रारंभ में शिवजी के प्रभाव से अर्हन् की माया वहां नहीं फैल सकी। उसके द्वारा निर्मित शास्त्र का प्रचार नहीं हो पाया। तब अर्हन् बहुत निराश हुआ और वह शिवजी का स्मरण करते हुए विष्णुजी का स्मरण भी करने लगा।
उसके स्मरण से विष्णुजी ने शिवजी का स्मरण किया, शिवजी की आझा पाकर फिर विष्णुजी ने तुम्हें याद किया। तुमने त्रिपुर पति के पास जाकर इस नये धर्म की प्रशंसा की और उससे यह भी कहा कि तुम स्वयं इस धर्म में दीक्षित हो। और उसको आदेश दिया कि वह अपनी प्रजाओं के साथ इस धर्म को अपनाए। त्रिपुर स्वामी तुम्हारी बात सुनकर आश्चर्यचकित तो अवश्य हुआ किंतु उसने माया के वशीभूत होने के कारण तुम्हारी बात का विरोध नहीं किया। इसके विपरीत माया से वशीभूत उसने तुम्हीं को अपना गुरु बनाकर दीक्षा ली और धीरे-धीरे सारा त्रिपुर इस पाखंड धर्म से दीक्षित हो गया।
सनत्कुमारजी ने व्यासजी को आगे बताया कि हे व्यासजी! अर्हन् ने अपने धर्म का चारों तरफ प्रचार किया और अपनी महत्ता तथा अपने ज्ञान की विशिष्टता बतानी प्रारंभ की। उसने लोगों से यह कहा कि यह मेरा ज्ञान अनादि और अनंत है तथा वेदों का सार है। मुंडी ने बताया कि आत्मा से लेकर स्तंभ तक सभी देह के बंधनों में आत्मा ही ईश्वर है। यहां तक कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश सब नश्वर हैं और सभी शरीर धारी समान हैं।
अहिंसा परम धर्म है और जीव-हिंसा पाप है। स्वतंत्रता ही मोक्ष है और इच्छित भोजन को पा लेना ही सबसे बड़ा स्वर्ग है। इस ज्ञान की दृष्टि से उत्तम दान है-भयभीत को निर्भय करना। वर्ण-व्यवस्था बिलकुल व्यर्थ की वस्तु है। कल्पित और निराधार है। मानव-मानव के बीच भेद करना अप्राकृतिक है। अहेन् ने इस धम का प्रचार किया और उसने कहा कि स्वग्ग और नरक सब कुछ इसी लोक में है। इस संसार से परे कुछ भी नहीं।
उसके धर्म का मूल यह है कि-जिसे हम परलोक कहते हैं और जिसके लिए अनेक धार्मिक अनुष्ठान करते हैं; वह बिलकुल व्यर्थ की वस्तु है। त्रिप्रों में अर्हन् के इस प्रचार से धर्म, यज्ञ और तीर्थ के प्रति लोगों में उपेक्षा का भाव आ गया। धीरे-धीरे दैत्यों की शक्ति, भक्ति, कीर्ति और बुद्धि समाप्त होने लगी और अपने इस आचरण से दैत्य शिवजी से विमुख हो गए। विष्णुजी के नेतृत्व में देवताओं ने शिवजी के पास जाकर त्रिपुर राजाओं और वहां के दैत्यों के अत्याचार की कहानी कही।
भगवान शंकर इस राक्षस का वध करने के लिए तैयार हो गए। इसी समय पार्वती शिवजी के पास आईं और उन्हें अन्तःपुर में ले गईं। पार्वती के इस तरह शिव को ले जाने पर देवता लोग फिर चिंतित हो गए और उन्होंने विष्णुजी से शिवजी को प्रसन्न करने का उपाय पूछा। विष्णुजी के परामर्श देने पर सभी देवताओं ने ‘ॐ नमः शिवाय रक्षां कुरु कुरु’ मंत्र का एक करोड़ बार जाप करने के लिए कहा। शिवजी इस जाप से प्रसन्न हुए और वे अंतःपुर से बाहर आए और त्रिपुर का वध करने के लिए
वेदव्यासजी को वह सारा वृत्त सुनाते हुए सनत्कुमारजी ने कहा कि हे व्यासजी, भगवान शंकर त्रिपुर के पास पहुंचे और उसे अपने बाण का लक्ष्य बनाने के लिए उद्यत किया। लेकिन बीच में गणेशजी ने बाधा उत्पन्न की और शिवजी का बाण लक्ष्यहान रह गया। इस घटना के उपरांत सब देवताओं ने गणेशजी की पूजा की, उनका अर्चन किया और सब विघ्न-बाधाओं को दूर करने की प्रार्थना की। इसके बाद शिवजी ने आग्नेय अस्त्र से त्रिपुर का दाह करके उनके स्वामी तारकाक्ष को भस्म कर दिया।
तारकाक्ष को भस्म होता हुआ देखकर देवताओं में अत्यत प्रसन्नता छा गई और त्रिपुर के नष्ट होने के बाद सभी मुंडी वहां आए और उन्होंने विष्णुजी तथा अन्य देवों को प्रणाम किया और शिव के सामने इस बात पर खेद प्रकट किया कि उन्होंने शिव भक्ति को नष्ट करने जैसा दुष्कर्म किया। वे अपने कार्य पर पश्चात्ताप करने लगे। विष्णुजी ने उन लोगों से कहा कि उन्होंने यह सब कुछ विष्णुजी की इच्छा से किया है और इस कर्म में देवताओं का भला हुआ है अतः उन्हें किसी दुर्गति का सामना नहीं करना पड़ेगा। इसके बाद मुंडी विष्णुजी की आज्ञा लेकर अपनी मरुभूमि में चले गए और देवता लोग प्रसन्न होकर शिवजी की अनुमति ले अपने-अपने धाम को चले गए।
व्यासजी ने सनत्कुमारजी से शंकर के द्वारा किए गये जलंधर-वध का वृत्तांत सुनाने के लिए निवेदन किया। इस वृत्तांत को सुनाते हुए सनत्कुमारजी ने कहा कि बहुत पुराने समय की बात है कि एक समय देवराज इन्द्र गुरुवर बृहस्पति के साथ भगवान शंकर के दर्शन करने के लिए कैलास पर्वत पर आए। शंकरजी ने उनकी परीक्षा लेने के लिए अपने-आपको छिपा लिया और एक स्थान पर एक जटाजूट धारी बाबा का वेश बनाकर बैठ गए। देवराज इन्द्र ने बाबा से भगवान शंकर का पता पूछा तो बाबा ने कोई उत्तर नहीं दिया। इन्द्र अपने ऐश्वर्य में उन्मत्त थे इसलिए उन्होंने सोचा कि इस बाबा ने उनके प्रश्न का उत्तर न देकर उनकी अवमानना की है।
इस अपमान का बदला लेने के लिए और उसे दंड देने के लिए इन्द्र ने बाबा पर प्रहार किया। किंतु शिवजी की महिमा से उनके शस्त्रों की धार कुंठित हो गई। बाबा के रूप में बैठे हुए भगवान शंकर के नेत्रों से क्रोध की अग्नि निकलने लगी। जब बृहस्पति ने देखा तो उन्हें पहचान लिया और भगवान शंकर की प्रार्थना करने लगे कि वे इन्द्र के अपराध को क्षमा कर दें। भगवान शिवजी बृहस्पति की स्तुति से प्रसन्न होकर इन्द्र को क्षमा करते हुए उठ गए।
लेकिन उन्होंने अपने मस्तक के नेत्र से निकले हुए तेज को अपने हाथ में लेकर क्षीर समुद्र में फेंक दिया। एक क्षण के बाद ही यह तंज एक बालक का रूप धारण कर लिया और गंगासागर के संगम पर ऊंचे स्वर में रोने लगा। उसके रोने को सुनकर लोकपाल बहुत चिंतित हुए और उनके निवेदन करने पर ब्रह्माजी उस बालक के पास गए।
उस बालक ने उनके गले में बाहें डाल दीं और उसने उनका गला इतनी जोर से दबाया कि ब्रह्माजी की आंखों से आंसू निकलने लगे। उसकी इस शक्ति को देखकर ब्रह्माजी ने उसका नाम जलंधर रख दिया। ब्रह्माजी ने उसके भविष्य-फल को देखा तो अनुमान लगाया कि यह बालक दैत्यों का अधिपति, प्रबल पराक्रमी, सबको जीतने वाला और शिवजी के अतिरिक्त किसी के द्वारा भी अवध य होगा। यह कहकर उन्होंने बताया कि इसकी पत्नी अत्यंत रूपवती और पतिव्रता होगी।
समुद्र ने ब्रह्माजी के द्वारा उस बालक का तेजस्विता से परिपूर्ण भविष्य जानकर उसका पालन-पोषण किया और जब वह युवक हो गया तो उसका विवाह कालनेमि की लड़की वृंदा से करा दिया। शुक्राचार्य ने जब जलंधर की शक्ति और साहस को देखा तो उन्होंने इसे दैत्यों का अधिपति बना दिया। इस प्रकार जलंधर का नित्यप्रति उत्थान होता रहा।
एक समय शुक्राचार्य जलंधर की सभा में गए। उन्हें देखकर जलंधर ने उनका अत्यंत सम्मान किया और स्वागत-सत्कार के बाद उनसे पूछा कि राहु का सिर किस तरह कटा और वह अब कहां रहता है ? उसके यह पूछने पर दैत्यों के गुरु शूक्राचार्य ने उसे समूद्र-मंथन की कथा सूनाई और बताया कि किस प्रकार अमृत को पीने के लिए तत्पर हुए राहु का सिर इन्द्र के पक्षपाती विष्णुजी ने काट गिराया।
जलंधर ने इस वृत्तांत को सुनकर अपना एक दूत विष्णुजी के पास भेजा और उन्हें चेतावनी दी कि विष्णुजी समुद्र-मंथन के परिणामस्वरूप निकले सारे रत्लों को लौटा दें अन्यथा परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें। जब इन्द्र ने जलंधर का वह संदेश सुना तो उसने दूत को अत्यंत क्रोध में भरकर कहा कि मुझसे द्रोह करने वाला कभी भी सुखी नहीं रह सकता। उसकी शंकासुर जैसी ही दशा होगी। जिस तरह मेरे अनुज ने शंकासुर को मार डाला उसी प्रकार जलंधर की भी गति होगी। यदि जलंधर अपना हित चाहता है तो मेरा विरोध करना छोड़ दे और इस प्रकार से रत्न न मांगे। दूत जलंधर के पास पहुंचा और इन्द्र के द्वारा कही गई बातों को उसी रूप में कह दिया।
वह सुनकर जलंधर को बहुत क्रोध आया और वह आग-बबूला हो गया। उसने करोड़ों दैत्य सेनापतियों के साथ शुंभ और निशुंभ को लेकर इन्द्र के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। दोनों ओर से भयंकर युद्ध होने लगा और युद्धभूमि मृत सैनिकों से भरने लगी। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य अपनी मृत संजीवनी विद्या से मृत दैत्यों को फिर से जीवित करने लगे और दूसरी ओर देवताओं के गुरु द्रोणगिरि से औषधि आदि लाकर देवताओं को जीवित करने लगे। जलंधर ने शुक्राचार्य से कहा कि मृत संजीवनी औषधि कंवल आपके पास है तो देवताओं का पुनर्जीवन कैसे संभव है? इसपर खोज करने पर जब दैत्यों को द्रोणगिरि पर्वत के रहस्य का पता चला तो जलंधर को परामर्श दिया गया कि वह उस पर्वत को उखाड़कर समुद्र में फेंक दे।
जलंधर ने बहुत जल्दी इस परामर्श पर अमल करते हुए अपनी प्रबल भुजाओं से पवेत को जड़ से उखाड़कर समुद्र में फेंक दिया और इसके बाद देवताओं का अत्यंत तीव्र गति से संहार करने लगा। इस भयंकर संहार से और द्रोणगिरि का उपयोग न पाने से बृहस्पति ने देवताओं को युद्ध रोकने की सलाह दी। इस प्रकार देवताओं से अविजित रहने पर जलंधर बिना किसी चिंता के अमरावती चला गया और देवराज इन्द्र की खोज करने लगा। सभी देवता डरकर इधर-उधर भाग गए।
इन्द्र आदि देवता अपनी सुरक्षा के लिए भगवान विष्णुजी की शरण में गए और उनसे निवेदन किया कि वे देवताओं के लिए कुछ करें। उनकी प्रार्थना सुनकर देवराज इन्द्र के साथ विष्णु युद्ध करने के लिए उद्यत हो गए। जब लक्ष्मीजी ने यह देखा तो उन्होंने विष्णुजी को अलग बुलाकर कहा कि जलंधर उनका भाई है। इसलिए वह विष्णुजी के द्वारा अवध्य है। फलस्वरूप विष्णुजी ने जलंधर का वध न करने का आश्वासन लक्ष्मीजी को दिया।
विष्णुजी के नेतृत्व में देवताओं ने जलंधर के ऊपर धावा बोल दिया।। दैत्यों ने डटकर इन्द्र के आक्रमण का मुकाबला किया और इतना भयंकर संग्राम हुआ कि इन्द्र आदि देवताओं के पैर उखड़ गए। वे सब युद्ध से भाग गए। उनकी यह दशा देखकर विष्ण् स्वयं गरुड़ पर चढ़कर जलंधर से युद्ध करने लगे। विष्णूजी ने इतना भयंकर युद्ध किया कि दैत्यराज जलंधर की ध्वजा, धनुष-वाण और छत्र काट डाले। दूसरी ओर जलंधर ने गरुड़ पर ऐसा प्रहार किया कि वह पृथ्वी पर गिर गया। जलंधर ने विष्णुजी की छाती में भी एक तीक्ष्ण बाण मारकर उन्हें घायल कर दिया। गदा के कट जाने पर जलंधर ने धनुष-बाण से युद्ध किया। उसके बाद विष्णुजी ने गदा से जलंधर की छाती में प्रबल प्रहार किया जो उसने हंसते-हंसते सहन कर लिया। इसके बाद जलंधर ने त्रिशूल से विष्णुजी पर प्रहार किया, इसके उत्तर में नंदक, खड्ग से विष्णुजी ने उसके त्रिशूल को काट डाला।
विष्णुजी ने जलंधर की इस युद्ध-क्रिया से उसके युद्ध विद्या, साहस, पराक्रम से प्रसन्न होकर उसे वर मांगने के लिए कहा। विष्णुजी की प्रसन्नता अनुभव कर जलंधर ने कहा कि आप मेरी बहन लक्ष्मी और अपने अन्य कृट्ंबियों सहित मेरे घर में निवास करने के लिए आएं। भगवान विष्णु ने जलंधर को प्रसन्त्तापूवेक यह वरदान दे दिया और कुछ समय बाद लक्ष्मी सहित विष्णुजी जलंधर के निवास पर आतिथ्य ग्रहण करने के लिए आए। जलंधर कृतकृत्य हो गया और इसके बाद उसका यश चारों तरफ फैला तथा वह गंधर्वों, देवों और यक्षों को अपना अनुगामी बनाकर धर्मपूर्वक शासन करने लगा।
सनत्कुमारजी बोले कि हे मुनीश्वर! जब देवताओं ने यह देखा कि जलंधर सुखपूर्वक धर्म के अनुसार शासन कर रहा है और शिवजी के प्रति उसकी पूरी निष्ठा है तो वे अत्यंत चिंतित हो गए। उन्होंने शिवजी का स्मरण किया और उन्हें प्रसन्न किया। भक्तों का भला करने के कारण शिवजी ने नारद को बुलाया और उन्हें देवताओं का भला करने के लिए कहा। नारदजी देवताओं से मिलकर जलंधर के यहां गए। जलंधर ने नारदजी के चरणों की पूजा करके उनके आने का कारण
पूछा और कहा कि हे भगवन्! मेरे योग्य जो सेवा हो वह बताने का कष्ट करें। नारदजी ने कहा कि शिवलोक से आ रहा हूं तुम धन्य हो कि इतने सुंदर तरीके से राजकाज चला रहे हो। नारदजी ने बताया कि शिवलोक का वन १०,००० योजन है। वहां सैकड़ों कामधेनु विचरण करती हैं और वह वन चिंतामणि से प्रकाशित रहता है। पार्वती और शंकर वहां विद्यमान रहते हैं। उन्हें देखकर मुझे लगा कि उनके समान समृद्धिशाली और जगत में कोई नहीं है।
लेकिन दैत्यराज तभी मुझे तुम्हारी समृद्धि का ध्यान हो आया और मैं उसे देखने के लिए तुम्हारे पास आया। जलंधर ने नारदजी को अपनी समृद्धि दिखाई और नारदजी ने उसकी बड़ी प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि तुमने पृथ्वी और पाताल के सब रत्नों को अपने पास सुरक्षित कर लिया है लेकिन तुम्हारे पास एक स्त्री-रत्न नहीं है। तुमको किसी स्त्री-रत्न की खोज करनी चाहिए। यह सुनकर दैत्यराज ने उन्हीं से स्त्री-रत्न के विषय में पूछा तो नारदजी ने बताया कि कैलास पर्वत पर भगवान शंकर के पास ही महान् सुंदर और निर्दोष स्त्री-रत्न है। भगवान शंकर उसके वश में हैं। यह कहकर नारदजी चले गए।
जलंधर ने अपने एक राहु नामक दूत को कैलास पवंत पर भेजा। वहां नंदी ने उसे रोका लेकिन वह बलपूर्वक शिवजी की सभा में चला गया और जलंधर का संदेश सुनाया। उसने कहा कि जलंधर ने शिवजी की पत्नी पार्वती को मंगाया है। यह बात कहते ही भगवान शूलपाणि के सामने एक भयंकर शब्द वाला पुरुष निकला और उसने अत्यंत वेग से राहू को पकड़ लिया। राहु ने शिवजी से क्षमा मांगी किंतु उस पुरुष ने शिवजी से कहा कि भगवान! मुझे भूख लगी है, मैं कुछ खाना चाहता हूं। तब शिवजी ने कहा कि अपने हाथ-पैर का मांस खाओ। उसने सिर को छोड़कर सबकुछ खा लिया। इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने उसे सुकीर्ति मुख नामक गण बनाकर द्वार पर बिठा दिया।
इसके बाद व्यासजी ने कथा का अगला भाग सूनना चाहा तो सनत्कुमारजी ने कहा कि वह दूत बबेर के नाम से विख्यात हुआ और जलंधर के पास गया। वहां जाकर उसने शंकरजी की सभी बातें बताई। यह सुनकर जलंधर ने सेना को सजने की आज्ञा दी। कालनेमि और शुंभ-निशुंभ आदि अनेक दैत्य तैयार हो गए। सभी दिशाओं से करोड़ों दैत्यों ने प्रयाण किया। लेकिन चलते समय जलंधर का मुकुट खिसक गया तथा अनेक तरह के अपशकुन भी हुए।
दूसरी ओर शिवजी को सारा समाचार मिला और उन्होंने, यह भी देवताओं से सुना कि विष्णुजी लक्ष्मी सहित जलंधर के यहां निवास कर रहे हैं। इसके बाद देवता भी वहीं रह रहे हैं। इसके उपरांत शिवजी ने विष्णुजी को बुलाकर जलंधर को न मारने का कारण पूछा और उसके यहां निवास करने के विषय में भी पूछा। इस पर विष्णुजी ने उत्तर दिया कि जलंधर आपके अंश से उत्पन्न हुआ है और लक्ष्मी का भाई है इस कारण मैंने उसे नहीं मारा, वह अजेय भी है। इसके उत्तर में शिवजी ने जलंधर
को मारने की बात कही। जैसे ही शिवजी के मन में जलंधर को मारने की बात आई वैसे ही दैत्यों के संप्रदाय में हलचल मच गई। कैलास के समीप भीषण युद्ध होने लगा। भयंकर युद्ध से पृथ्वी कांपने लगी। शुक्राचार्य मृतसंजीवनी से दैत्यों को जिलाने लगे। यह देखकर शिवजी बहुत क्रोधित हुए। उनके मुख से भयंकर कृत्या निकली और वह युद्ध-भूमि में जाकर दैत्यों को चबाने लगी। उसने शुक्राचार्य को भी अपने भीतर छिपा लिया। शुक्राचार्य के चले जाने पर दैत्य लोग घबरा गए और भागने लगे।
शिवजी के गणों ने शुंभ-निशुंभ और कालनेमि को परास्त कर दिया तब जलंधर एक रथ पर सवार होकर आया। उसने अपने बाणों की वर्षा से पृथ्वी पर कोहरा उत्पन्न कर दिया। उसने नंदी, गणेश आदि को भी बाणों से छेद दिया। कार्तिकेय ने एक शक्ति द्वारा उसपर प्रहार किया पर उसने एक गदा के प्रहार से गणेश, वीरभद्र, नंदी आदि को व्याकुल कर दिया। शंकरजी ने अपना रुद्र रूप धारण किया और नंदी पर चढ़कर वह वहां आए। उन्हें देखकर दैत्य लोग भागने लगे। जलंधर ने शंकरजी पर आक्रमण किया और हजारों बाणों की वर्षा की। लेकिन शंकरजी ने उसके बाणों के जाल को काट डाला। कई दैत्यों को शंकर ने फरसे से काट दिया। वलाह दैत्य का भी सिर काट दिया।
जलंधर ने अपने भागते हुए सैनिकों को रोकने की चेष्टा की लेकिन कुछ नहीं हुआ। वे शिवजी से लड़ते हुए डर रहे थे। जलंधर ने शिवजी पर आक्रमण किया और शिवजी उसके बाणों को काटते रहे। इस पर उसने एक मायावी काम किया। वह शिव का रूप बनाकर पार्वती के पास पहुंचा, किंतु पार्वती को देखकर मार्ग में ही उसे कामुकतावश स्खलित हो जाना पड़ा। पार्वती अंतर्ध्यान हो गईं और थोड़ी देर बाद उसे विष्णुजी मिले। तब उन्होंने पूछा कि क्या विष्णुजी को जलंधर के कृत्य का पता है। विष्णुजी ने स्वीकृतिसूचक सिर हिलाकर कहा कि विष्णुजी जलंधर का अनुसरण करके उनकी पत्नी का व्रत नष्ट करें, तभी वह दैत्य मर सकता है।
विष्णुजी जलंधर के नगर में गए और वहां उद्यान में ठहर गए। वृंदा को एक स्वप्न आया कि उसका पति नग्न होकर सिर पर तेल लगाकर ऋषि बना हुआ दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है। उसने काले रंग के फूलों की माला पहनी हुई है, और वह चारों ओर से हिंसक जीवों से घिरा हुआ है।
उसका नगर समुद्र में डूब रहा है। जागकर उसने अपने स्वप्न पर विचार किया और वह अपनी सखियों के साथ अटारी पर आई और फिर उसी उद्यान में घूमने लगी। वहां उसने एक मौनी तपस्वी को देखा। भयभीत वृंदा ने उस मौनी के गले में हाथ डाल दिया, तब उस तपस्वी ने एक हुंकार में सारे राक्षसों को वहां से भगा दिया। इससे वृंदा अभय हुई। तब मुनि के पास दो वानर जलंधर का सिर और धड़ लेकर आ गए। वृंदा ने अपने पति को मृत जानकर बहुत शोक किया और वह मूच्चित हो गई।
इसके उपरांत उसने मुनि से अपने पति को जीवित करने के लिए कहा। तब मुनि ने कहा कि शिवजी के द्वारा मारा गया जलंधर जीवित नहीं हो सकता किंतु शरणागत की इच्छा पूरी करना मेरा धर्म है अतः उस मुनि ने जलंधर को जीवित कर दिया। उसे जीवित देखकर वृंदा ने उसका आलिंगन किया और फिर बहुत समय तक उसी के साथ रमण करती रही। किंतु एक बार वास्तविकता जानकर उसने विष्णु को बहुत धिक्कारा और कहा कि तुमने मुझे राक्षस दिखाए हैं। कभी वे ही तुम्हारी पत्नी का हरण करेंगे। मुनि तुम्हारे साथी होंगे और बंदरों की सहायता से तुम अपनी पत्नी को छुड़ा पाओगे। यह कहकर वृंदा अग्नि में प्रवेश कर गई और उसका तेज पार्वतीजी में प्रवेश कर गया।
उधर पार्वती के अदृश्य होने पर चैतन्य के बाद भगवान शंकर बहुत क्रोध करने लगे। दोनों में फिर युद्ध होने लगा। जलंधर ने शंकरजी के बाणों को काटना चाहा। लेकिन जब वे नहीं कटे तब उसने माया की पार्वती बनाकर रथ के पहिये से बांध ली। भगवान शंकर अपनी प्रिय पत्नी का यह हाल देखकर दुखी हो गए और उन्होंने रुद्र रूप धारण किया। सारे दैत्य उनका वह रूप देखकर भाग खड़े हुए। शिवजी ने उन्हें धिक्कारा और कहा कि मैं भागते हुए को नहीं मारता लेकिन पार्वती तुम्हें नहीं छोड़ेंगी और यह कहकर शिवजी ने चरणांगुष्ठ से बनाए हुए सुदर्शन चक्र से जलंधर का सिर काट डाला। शिवजी की आज्ञा से उसके बहे हुए रक्त से रौरव नरक में एक कुंड बन गया। जलंधर का तेज उससे निकलकर शिवजी में समा गया।
इसके बाद सारे देवता शिवजी के चरणों में मौन होकर अपनी प्रार्थना समर्पित करते हुए उनका ध्यान करने लगे। शिवजी अंतर्ध्यान हो गए। इस वृत्तांत के बाद ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा कि जब सब देवता स्तुति करके मौन हो गए तब शंकरजी ने कहा कि जलंधर मेरा ही अंश था। यह मेरी ही लीला थी। सबको इससे प्रसन्नता हुई। भगवान शंकर ने विष्णुजी का वह चरित्र भी कहा, जिस तरह वृंदा को मोहित किया और वह अग्नि में प्रविष्ट हो गई थी।
शंकरजी ने विस्तार से समझाते हुए कहा कि यह माया ही सर्वेश्वरी है और यह चराचर जगत उसके आधीन है। विष्णुजी इस माया के कारण ही कामवश होकर वृंदा पर मोहित हुए हैं। महादेवी उमा त्रिदेवों की जननी है, और उससे परे हैं। अतः विष्णुजी के मोह को दूर करने के लिए पार्वती की शरण में जाइए। तब सब देवता उमा के पास गए और उनसे प्रार्थना करने लगे। आकाशवाणी के द्वारा उन्हें पता चला कि उमा ही तीन गुणों में विभक्त होकर सब जगह स्थित है। वह सत्य गुण से गौरा, रजो गुण से लक्ष्मी, और तमो गुण से ज्योति रूपा है।
अतः सभी लोग उन मेरी शक्तियों के पास जाओ, वे सबके मनोरथ को पूरा करेंगी। तब देवताओं ने गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती का स्मरण करके उनकी पूजा की और वे देवियां वहां प्रकट हुईं। उन्होंने देवताओं को कुछ बीज देकर कहा कि विष्णुजी के पास जाओ। उन बीजों को लेकर देवताओं ने वृंदा की चिता में डाल दिया। उससे धात्री, मालती और तुलसी का आविर्भाव हुआ। धात्री और तुलसी आदि वनस्पतियों को प्रतिष्ठित कर विष्णुजी बैकुंठ को चले गए।
ब्रह्माजी ने नारदजी के पूछने पर शंखचूड़ नामक दानव का वृत्तांत सुनाना प्रारंभ किया। शंखचूड़ को शिवजी ने त्रिशूल से मारा था। ब्रह्माजी बोले कि हे नारद! विधाता के पुत्र मरीचि और उनके पुत्र कश्यप थे। दक्ष ने कश्यप को तेरह कन्याएं प्रदान की थी। कश्यपजी की उन पत्नियों में एक का नाम दनु था। वह अत्यंत रूपवती और तपस्विनी थी। उसके भी बहुत सारे पुत्र हुए। उनमें विप्रचित्त नाम का एक पराक्रमी पुत्र हुआ। उसके भी दंभमान नाम का पुत्र हुआ। वह विष्णु भक्त था। उसके आगे कोई संतान नहीं हुई तब उसने शुक्राचार्य से दीक्षा लेकर एक वर्ष तक पुष्कर में तप किया। उसके तप से देवता लोग बहुत चिंतित हुए और ब्रह्माजी को लेकर विष्णुजी के पास गए।
उन्होंने कहा कि मेरा भक्त दंभ पुत्र के लिए तप कर रहा है किंतु मैं उसे तप के फल से निवृत्त कर दूंगा। देवताओं से यह कहकर विष्णुजी पूष्कर गए और उन्होंने कहा कि कोई वरदान मांगो। दंभ ने वरदान मांगा कि मेरा पुत्र महापराक्रमी और विश्वविजेता हो। समय पर उसकी पत्नी के गर्भ में कृष्ण का परम मित्र सुदामा आया। इसको पहले ही राधाजी ने श्राप दिया था। पुत्र उत्पत्ति के बाद उसका नाम शंखचूड़ रख दिया गया। उसकी बाल लीलाओं से माता-पिता अत्यंत प्रसन्न हुए।
शंखचूड़ ने भी पुष्कर में कठिन तप किया और उसके तप से प्रसन्न होकर जब ब्रह्माजी वरदान देने आए तो उसने अपने को देवताओं से अविजित रहने का वरदान मांगा। ब्रहाजी ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे श्रीकृष्ण का अक्षय कवच दे दिया और कहा कि तू बद्रिकाश्रम में चला जा, वहां तुलसी तपस्या कर रही है। उससे विवाह कर ले। उधर स्वयं ब्रह्माजी ने बद्रिकाश्रम में पहुंचकर उन दोनों का गंधर्व रीति से विवाह कराया तब वह अनेक सूंदर स्थानों पर जाकर त्लसी के साथ रमण करने लगा।
विवाह के बाद तुलसी के साथ शंखचूड़ अपने घर आया, शुक्राचाये ने उसे बहुत सारे आशीर्वाद दिए और देवता तथा दानवों का स्वाभाविक वैर समझाकर दानव अध्यक्ष पद पर अभिषेक कर दिया। वह दानवों की भारी सेना लेकर इन्द्र से लड़ने चला। देव सेना उसके आगे न टिक सकी, देवता लोग गुफाओं और कंदराओं में छिप गए। उसने अनेक देवताओं का हरण कर लिया तथा स्वयं इन्द्र बन गया। सूये, चन्द्र आदि सब उसके वश में हो गए।
जब देवता बहुत दुःखी हुए तो अपनी पराजय का वृत्तांत सुनाने ब्रहाजी के पास गए। ब्रह्माजी उन्हें विष्णुजी के पास ले गए। विष्णुजी ने कहा कि शंखचूड़ पूर्व जन्म का मेरा मित्र है पर आप चिंता न करें, मैं शिवजी से परामर्श करूंगा। यह कहकर विष्णुजी देवताओं के साथ शिव लोक में गए। उस समय शिवजी के चारों तरफ गण बैठे थे, पावेतीजी उनके साथ रत्नमय सिंहासन पर विराजमान
थीं और गीत-नृत्य आदि हो रहे थे। अवसर मिलने पर देवताओं ने उनकी प्राथना की और शंखचूड़ के विषय में बताया। शिवजी बोले कि मैं शंखचूड़ को जानता हूं, वह राधा के श्राप के कारण राक्षस हुआ है, वैसे वह श्रीकृष्ण का मित्र है इसी समय राधा सहित श्रीकृष्ण वहां आए और उन्होंने शिवजी की वंदना की। शिवजी ने शंखचूड़ को मारने का वचन दे दिया।
भगवान शंकर ने इसके बाद गंधर्वराज चित्ररथ को शंखचूड़ के पास भेजा।
वहां पहुंचकर चित्ररथ ने अपना परिचय दिया और कहा कि या तो तुम देवताओं को संपूर्ण अधिकार दे दो या मेरे साथ युद्ध करो। उसने यह भी बताया कि ऐसा वह शंकरजी के आदेश से कह रहा है। इसके उत्तर में शंखचूड़ ने कहा कि यह धरती वीरभोग्या है। मैं वीर हूं और शंकरजी से युद्ध करूंगा। मैं कल ही रुद्रलोक की यात्रा करूंगा और युद्ध के लिए तैयार होकर आऊंगा।
शंखचूड़ का यह संदेश सुनकर शिवजी बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने वीरभद्र तथा भद्रकाली आदि को बुलाकर शंखचूड़ को मारने की आज्ञा दे दी और अपने आप भी देवताओं के साथ चल दिए। उनके साथ आठों वसू, आठों भैरव, रुद्र, सूय, अग्नि, चंद्रमा, कुबेर, यम आदि सभी चल दिए। काली भी उनके साथ थीं और उसकी जीभ एक योजन तक लपलपा रही थी। वह हाथ में खप्पर लिए हुए थीं। उसके साथ तीन करोड़ योगिनी और तीन करोड़ डाकिनी थीं।
दूसरी ओर शंखचूड़ ने अपने अंतःपुर में आकर अपनी पत्नी तुलसी से सारा वृत्तांत सुनाया और उसने प्रातःकाल से प्रारंभ किए जाने वाले युद्ध के विषय में भी कहा। दोनों स्त्री-पुरुष रात भर बात करते रहे और सुख तथा आनंद अनुभव करते रहे। प्रातःकाल शंखचूड़ ने अपने पुत्र को राज्य सौंपा और उसे तुलसी के अधीन किया। तब अपनी सेना तैयार कराई और युद्ध के लिए चल दिया। उसने पुष्पभद्रा नदी के किनारे अपना डेरा डाला और शिवजी की सेना का अनुमान लगाया।
शिवजी ने शंखचूड़ के दूत से कहा कि तुम अपने स्वामी से कहो कि वह देवताओं से वैर त्यागकर उनसे संधि कर ले। उनका राज्य उन्हें दे दे। प्राणियों का इस प्रकार विरोध उचित नहीं होता। तुम कश्यप की संतान हो। तब दूत ने कहा कि हे प्रभु! आप जो कुछ भी कह रहे हैं सत्य है। पर सारे दोष असुरों के नहीं हैं। आप देवताओं के पक्षपाती हैं। आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। तब शंकर ने कहा कि मैं भक्तों के अधीन हूं और देवताओं का कायें करने के लिए मुझे युद्ध करने में भी कोई आपत्ति नहीं होगी।
अपने दूत की बात सुनकर शंखचूड़ ने युद्ध करने को ही श्रेयस्कर समझा। उसने अपने वीरों को युद्ध की आज्ञा दे दी। दूसरी ओर भगवान शंकर ने भी अपनी सेना को युद्ध के लिए प्रेरणा दी। दोनों ओर से रण के बाजे बजने लगे और दोनों पक्षों के वीर मार-काट मचाने लगे। महेन्द्र का वृषपवो से और विष्णु का दंभ से, कालका का कलासुर से तथा अन्य लोगों से युद्ध होने लगा। कालाम्बिक के साथ वरुण युद्ध करने लगे। इस युद्ध के प्रारंभिक क्षणों में देवता लोग पराजित होने लगे और इधर-उधर भागने लगे। तब भगवान शंकरजी क्रोधित होकर युद्ध करने लगे।
महादेवी काली भी अलग-अलग दैत्यों का नाश करने लगीं और लाखों हाथी और दानवों को चबाने लगीं। अपनी सेना की दुर्दशा देखकर शंखचूड़ स्वयं युद्ध के लिए तत्पर हो गया। उसने चारों ओर माया फैला दी। सारी रणभूमि में अंधकार छा गया। इसके बाद स्कन्द भयानक रूप से युद्ध करने लगे। उन्होंने अपने माता-पिता का ध्यान कर उसके रथ को काट डाला। लेकिन दानवराज ने उन्हें अपनी शक्ति के प्रहार से गिरा दिया। शिवजी ने फिर उन्हें जीवन दे दिया और वे फिर से युद्ध करने लगे।
देवी ने भयानक सिंहनाद किया, जिससे अनेक दानव मूच्छित होकर गिर पड़े। काली विकराल रूप धारण करके दैत्यों का रक्त पीने लगीं। शंखचूड़ ने स्वयं काली के साथ युद्ध किया तब काली ने भयंकर बाणों की वर्षा की। जब काली नारायणाशास्त्र चलाया तो शंखचूड़ ने रथ से उतरकर शस्त्र को प्रणाम किया जिससे वह अपने आप शांत हो गया। देवी के द्वारा ब्रहास्त्र का प्रयोग करने पर भी दानवराज उससे बच गया। तब देवी चारों तरफ विकराल रूप धारण करके रक्तपान करने लगी। दानव भयभीत होकर भागने लगे। काली ने पाशुपत अस्त्र का प्रयोग किया किंतु आकाशवाणी के द्वारा रोक दिया गया, क्योंकि शंखचूड़ की मृत्यु उस अस्त्र से नहीं लिखी थी।
यह सारा वृत्तांत शिवजी से निवेदित किया गया। आकाशवाणी के अनुसार शंखचूड़ का वध शिवजी ही कर सकते थे। शिवजी अपने बैल पर चढ़कर युद्ध भूमि में गए। शंखचूड़ ने उन्हें देखा तो वेमान से उतरकर उन्हें प्रणाम किया और उनसे युद्ध करने लगा। उसने सौ वर्षों तक शिवजी के साथ युद्ध किया। शिवजी के द्वारा अपनी सेना का भयंकर नाश होता हुआ देखकर दानवराज को बहुत क्रोध आया और उसने बादलों की तरह भगवान शंकर पर बाणों की वर्षा करनी शुरू कर दी।
वह अदृश्य होकर भय दिखाने लगा। शिवजी ने उसकी सारी माया नष्ट कर दी, उसे मारने के लिए अपना त्रिशूल उठाया लेकिन आकाशवाणी ने उन्हें रोक दिया। उसने कहा कि आप वेद की मर्यादा का उल्लंघन न करें। जब तक शंखचूड़ के पास विष्णु का कवच और पतिव्रता स्त्री है तब तक इसकी मृत्यु नहीं।
तब शिवजी की आज्ञा से विष्णु ब्राह्मण का वेश बनाकर शंखचूड़ के पास गए और उससे उनका कवच मांगा। फिर उन्होंने वह कवच पहना और उसका रूप धर कर उसकी पत्नी तुलसी के पास गए। विष्णु ने शंखचूड़ के रूप में उसकी पत्नी से विहार किया और समय पाते ही शिवजी ने एक शूल से शंखचूड़ का वध कर दिया। आकाश में फूलों की वर्षा होने लगी और शंखचूड़ भी श्राप से मुक्त हो गया। उसकी हड्डियों से एक विशेष प्रकार की जाति पैदा हुई।
इसके बाद ब्रह्माजी ने अगला वृत्तांत सुनाते हुए कहा-शंखचूड़ का रूप धारण किए हुए विष्णु जब पत्नी तुलसी के पास पहुंचे तो उसने उन्हें अपना पति जानकर आसन पर बिठाया और कटाक्ष करते हुए युद्ध का समाचार पूछा तो शंखचूड़ बने विष्णु ने बताया कि उनमें संधि हो गई है, और शिवजी भी अपने धाम को लौट गए हैं। लेकिन, एक बार विहार करते हुए तुलसी को वास्तविकता का ज्ञान हो गया और वह उन्हें श्राप देने के लिए तैयार हो गई। श्राप के भय से विष्णु अपने प्रकृत् रूप में आ गए।
यह देखकर तुलसी ने उनसे कहा कि हे विष्णु! तुममें जरा भी दया नहीं है, तुम्हारा मन पत्थर की तरह है। तुमने छलपूर्वक अपने भक्त का वध कराया है और मेरा पतिव्रत भंग किया है। वह विलाप करने लगी। उसका विलाप सुनकर विष्णुजी ने शिव का स्मरण किया। शिवजी ने वहां पहुंचकर तुलसी को संसार की नश्वरता समझाई और कहा कि तुम तुलसी नामक वनस्पति बनोगी और दिव्य रूप धारण करके तुम हरि के साथ विहार करोगी। तुम क्षीरसागर की भी पत्नी बनोगी और तुम्हारे ही श्राप के कारण विष्णु पत्थर बनकर नदी के जल में रहेंगे और जब उस पत्थर को कीड़े काट-काटकर चक्रवत कर देंगे तो वह शालिग्राम कहलाएगा।
तुलसी की पवित्र कथा सुनने के बाद शिवजी के चरित्र को सुनने की अतृप्त भावना से परिपूर्ण व्यासजी ने सनत्कुमारजी से शिवजी के चरित्र के अन्य वृत्तांत सुनाने का आग्रह किया। उनकी जिज्ञासा को जानकर सनत्कुमारजी ने हिरण्याक्ष-वध की कथा सुनाई। वे बोले-बहुत पुराने समय की बात है कि मंदराचल पर्वत पर शिवजी पार्वती के साथ विहार कर रहे थे। पार्वती ने अपने सोने जैसे हाथों से शिवजी के नेत्र एक क्षण के लिए बंद कर लिए तो चारों ओर अंधकार छा गया और भगवान शंकर का स्पर्श करने से पार्वती के दोनों हाथों से मद्य जल प्रवाहित होने लगा। उस जल से एक विकराल काले रंग का. कुरूप और भय पैदा करने वाला तथा अंधा मनुष्य उत्पन्न होकर नुत्य करने लगा।
पार्वतीजी के पूछने पर शंकरजी ने अपने नेत्र बंद करने का यह फल बताया। उन्होंने यह भी कहा कि तुम्हारे हाथों में लगे मेरे माथे के पसीने से उत्पन्न यह बालक तुम्हारी संतान है अतः तुम्हीं इसके पालन-पोषण का प्रबंध करो। यह सुनकर पार्वतीजी ने उसके पालन का प्रबंध किया। दूसरी ओर अपने बड़े भाई की संतान-वृद्धि को देखकर और पुत्र की कामना से हिरण्याक्ष ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए घोर तप किया। शिवजी ने उसे समझा-बुझाकर अपना वह अंधा पुत्र उसे सौंप दिया।
हिरण्याक्ष के मरने पर यही पुत्र अंधक पाताल का सम्राट् बना। अंधक के पिता के परिवार वालों ने उसे एक ओर राज्य के लिए अनधिकारी बताया और दत्तक पुत्र होने के कारण उसका अपमान किया। अंधक ने बात की सत्यता स्वीकार कर तपस्या का मार्ग अपनाया। उसने ब्रह्माजी की पूजा-अर्चना की और यह वरदान मांगा कि प्रहलाद आदे मेरे भाइ नौकर हो जाएं और मेरे नेत्र ठीक हो जाएं, मैं देव और दानवों से अवध्य रहूं। ब्रह्माजी ने शिवजी के अतिरिक्त अन्य किसी से भी अवध्य होने का वर दे दिया।
वापिस अपने नगर लौटकर अंधक ने अपने भाइयों को अपने वश में कर लिया और शासन करने लगा। वह शक्ति, सत्ता, वैभव के मद में इतना चूर हो गया कि कुमार्ग की ओर जाने लगा। एक दिन उसके कुछ मंत्रियों ने यह बताया कि एक जटाजूट धारी तपस्वी है और उसके पास एक अत्यंत सुंदर रमणी भी है। आप चलकर उसे प्राप्त करें तो आपका मन अत्यंत प्रसन्न होगा। अंधक ने जब यह सुना तो उस रमणी को अपने पास लाने का आदेश दे दिया। अंधक के मंत्री मंदराचल पर्वत की गुफा में गए और वहां जटाजूटधारी शिव को अंधक का संदेश सुनाया।
शिवजी ने उनकी अवज्ञा की और कहा कि वे रमणी से स्वयं बात करें। दूतों ने अंधक के पास जाकर उन्हें सारी बात सुनाई। इस पर वह कामातुर हो उठा और रमणी को प्राप्त करने के लिए बलपूर्वक हरण के लिए वहां पहुंचा। वहां पहुंचने पर बाणासुर, सहस्रबाहु, बलि आदि वीरों के होते हुए भी शिव गणों ने गुफा में नहीं घुसने दिया। दैत्य लोग बहुत प्रयास करने पर भी गुफा में प्रवेश न पा सके। और उधर शंकरजी पाशुपत व्रत में बाधा जानकर तपस्या के लिए कहीं और चले गए।
एक दिन गुफा में अकेली रहती हुई पार्वती के पास कामातुर अंधक घुस आया। गणों ने उसे रोकने का प्रयास किया, किंतु वह नहीं रुका। पार्वती ने ब्रह्मा, विष्णु आदि का स्मरण किया तो वे सब स्त्री वेष में आकर अंधक से युद्ध करने लगे। यह युद्ध अनेक वर्षों तक चलता रहा और पार्वती को भी युद्ध में कूदना पड़ा। शिवजी लौटे तो उन्होंने युद्ध रुकवाया, किंतु अंधक के पार्वती को उपहार रूप में देने की मांग के फलस्वरूप उन्होंने युद्ध का संदेश भेजा।
बलि को आगे करके अंधक ने युद्ध को प्रारंभ किया। बलि इतनी शक्ति से युद्ध कर रहा था कि उसने ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सूर्य आदि सबको परास्त कर दिया और निगल लिया। यह समाचार सुनकर शिवजी स्वयं आए और उन्होंने अपने तेज बाणों से दैत्य के मुख से सभी लोगों को बाहर उगलवाया। शंकर ने शुक्राचार्य को निगल लिया जिससे वे मृत असुरों को दोबारा जीवित न कर सकें। दैत्यों का मनोबल गिर गया और वे पराजित हुए। इन्द्र ने अंधक को ललकारा और उसे बहुत प्रताड़ित किया।
जब अंधक पार्वती और शंकर को बाणों से आच्छादित करने लगा तो शंकरजी ने अपने त्रिशूल से उसपर प्रहार किया। इससे बहे हुए रक्त से बहुत सारे दैत्य पैदा हुए और युद्ध करने लगे। तब देवों ने चंडी का स्मरण किया और वह दैत्यों का रुधिर पान करने लगी। अंत में शिवजी ने अंधक का सिर त्रिशूल से काट डाला। मरते समय अंधक ने शिवजी की पूजा की और प्रसन्न होकर शिवजी ने उसे गाणपत्य प्रदान किया। व्यासजी ने सनत्कुमारजी से पूछा कि हे महामते! मुझे आप यह वृत्तांत सुनाने
की कृपा करें कि शुक्राचार्य शिवजी के पेट से कैसे बाहर आए और उन्होंने मृत संजीवनी विद्या कहां से प्राप्त की। सनत्कुमारजी बोले कि शिवजी के पेट में पहुंचकर दैत्यों के आचार्य ने पेट से बाहर निकलने की बहुत कोशिश की और इधर-उधर छिद्र देखने लगे लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। तब उन्होंने शिवजी के द्वारा बताए गए एक मंत्र का जाप शुरू किया :
ॐ नमस्ते देवेशाय सुरासुर-नमस्कृताय।
भूतंभव्य-महादेवाय हरित पिगंललोचनाय।।
इस मंत्र के जाप से दैत्यगुरु शिवलिंग के मार्ग से बाहर आए और इसीलिए उनका नाम शुक्र पड़ा। यही शुक्राचार्य वाराणसी में गए और वहां जाकर उन्होंने ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। उसके बाद उन्होंने भगवान शिव की आराधना करते हुए उन्हें प्रसन्न किया और भगवान शिव ने प्रकट होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान की। व्यासजी ने सनत्कुमारजी से बाणासुर के गाणपत्य ग्रहण करने का वृत्त सुनाने के लिए कहा। उनकी जिज्ञासा को शांत करते हुए सनत्कुमारजी बोले कि हिरण्यकशिपु के प्रपौत्र, प्रहलाद के पौत्र और विलोचन के पुत्र बलि का पुत्र बाणासुर था। बाणासुर भी अपने पिता और दादा की तरह शिवजी का भक्त था और अत्यंत दानी तथा उदार था।
उसने भगवान शंकर से परिवार सहित अपने नगर में निवास करने का वरदान ले लिया। एक दिन शिवजी ने उस शोणित नगरी के बाहर नदी के किनारे नृत्य-गीत आदि का आयोजन किया। शिवजी की इच्छा हुई कि वे जल-विहार करें किंतु अभी तक पार्वती नहीं आई थीं। वहां पर जो अन्य स्त्रियां जल-विहार कर रही थीं उन्होंने सोचा, जो भी स्त्री शिवजी के साथ विहार करने में सफल हो जाएगी वह बड़ी भाग्यशालिनी होगी। यह सोचकर बाणासुर की पुत्री उषा ने पार्वती का वेष धारण किया और शिवजी के साथ विहार करने के लिए आई।
किंतु जैसे ही वह शिवजी के पास पहुंची वैसे ही पार्वती जी आ गई। उन्होंने क्रुद्ध होकर उषा को शाप दे दिया कि वह बैशाख सुदी द्वादशी की आधी रात को जब सो रही होगी तब कोई अज्ञात पुरुष उसका भोग कर लेगा। इस ओर बाणासुर शंकरजी की सेवा में उपस्थित हुआ और उसने यह कहा कि हे भगवान! मेरा कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है और इसलिए मेरी भुजाओं की शक्ति व्यर्थ होती जा रही है। मैं क्या करूं? शिवजी ने बाणासुर की गर्व से भरी हुई यह बात सुनी और उसे आश्वासन दिया की जल्दी ही उसका कोई प्रतिद्वंद्वी आ जाएगा और उसे शक्ति प्रदर्शन का अवसर मिलेगा।
बैशाख मास की द्वादशी को विष्णुजी की पूजा करने के बाद उषा सो रही थी तो श्रीकृष्ण का पौत्र अनिरुद्ध अंतःपुर में आया और उसने उषा के साथ बलात्कार किया। इस घटना से दुःखी होकर उषा आत्महत्या करने जा रही थी कि रास्ते में उसकी सखी चित्रलेखा उसे मिली और उसने उसे समझाया कि वह उसे गुप्त पति उपलब्ध करा देगी। जब चित्रलेखा ने अनेक देवों, गंधर्वों, महावीरों के चित्र उषा को दिखाए तो उसने अनिरुद्ध का चित्र देखकर लज्जा से सिर झुका लिया। चित्रलेखा ने अनिरुद्ध की खोज की और वह द्वारका गई तथा अपने तामसी योग से शय्या पर सोते हुए अनिरुद्ध को शय्या सहित उषा के अंतःपुर में ले आई। अपने प्रियतम को प्राप्त कर उषा आनंदमग्न हो गई और रति-विलास करने लगी।
जब द्वारपालों को इस बात का पता चला तो उन्होंने सब कुछ बाणासुर को बता दिया। क्रोधित बाणासुर अंतःपुर से आया और अनिरुद्ध को युद्ध के लिए ललकारा। अनिरुद्ध ने वीरता का ऐसा प्रदर्शन किया जिसके फलस्वरूप बाणासुर ने उसे नागपाश से बांध दिया। उसने अपने अनेक सैनिकों को अनिरुद्ध के प्राणों को समाप्त करने का आदेश दिया। किंतु महामात्य कृष्मांड ने बाणासुर को समझाया कि वह अनिरुद्ध को न मारे। उधर अनिरुद्ध ने अपनी शक्ति के बल पर पिंजड़े को तोड़ दिया और फिर अपनी प्रियतमा के पास जाकर, रति-विलास करने लगा।
भगवान कृष्ण के अंतःपुर में स्त्रियों के द्वारा रोने की ध्यनि सुनकर कृष्ण को अनिरुद्ध के विषय में पता चला। खोज कराने पर जब स्थान का पता चला तो प्रद्युम्न, शांभ, नंद, उपनंद, बलभद्र आदि यादवों को लेकर बाणासुर के नगर को घेर लिया। जब बाणासुर ने देखा कि वह श्रीकृष्ण द्वारा बारह अक्षौहिणी सेना से घिर गया है तो युद्ध करने लगा। रुद्र भी बाणासुर की सहायता के लिए आए। इस युद्ध में श्रीकृष्ण का शिव से, प्रद्युम्न का कूष्मांड से, कूप का कर्ण से, बाण का सात्यकि से, गर्व का नंदी से, और शांभ का बाणपुत्र से भयंकर द्वंद्व युद्ध हुआ। शिवजी का तेज भयानक था और यादव रुक नहीं पा रहे थे तब श्रीकृष्ण ने लास्य ज्वर प्रसारक बाणों का प्रयोग किया। दोनों बाणों के टकराने पर कृष्ण का बाण निरस्त हो गया।
तब श्रीक़ष्ण ने शिव की आराधना की और कहा कि मैं तो आपके ही आदेश से बाणासुर की भुजाएं काटने आया हूं। आप युद्ध से अलग हो जाइए। शिवजी के अलग होने पर कृष्ण ने बाणासुर की भुजाएं काट दीं। किंतु भुजाएं कट जाने के बाद भी बाणासुर ने प्रचंड पराक्रम दिखाया। उसने घोड़े पर चढ़कर भयंकर युद्ध किया तथा अपनी गदा की भयंकर मार से श्रीकृष्ण को धरती पर गिरा दिया। उसके सेनापतियों ने यादवों के छक्के छुड़ा दिए।
तब श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र से बाणासुर का सिर काटने लगे तो शिवजी के कहने से रुक गए। उन्होंने कृष्ण और बाणासुर में मित्रता करा दी। बाणासुर श्रीकृष्ण को अपने अंतःपुर में ले गया और वहां अनिरुद्ध का अपनी पुत्री के साथ विवाह कर दिया। श्रीकृष्ण अपनी सेना सहित द्वारका लौट आए। उषा और अनिरुद्ध के जाने के बाद बाणासुर ने तांडव नृत्य के द्वारा अनेक स्तोत्रों से शिवजी की पूजा की और उनसे शिवभक्ति प्रदान करने का वरदान मांगते हुए यह भी मांगा कि मेरा विष्णु से बैर न हो और शोणितपुर में उषा के पुत्र का राज्य हो। शिवजी की कृपा पाकर महाकाल तत्त्व प्राप्त करके बाणासुर प्रसन्न हुआ।
व्यासजी ने सनत्कुमारजी से पूछा कि अब आप गजासुर और दुंदुभि तथा निहलाद के वध का वृत्तांत क्या है। यह बताने की कृपा करें? तब सनत्कुमारजी बोले कि यह पुराने समय की बात है कि महिषासुर के वध का बदला लेने के लिए उसके पुत्र गजासुर ने घोर तप किया और ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर लिया। इसके बाद वह देवताओं को प्रताड़ित करने लगा। उसने पृथ्वी के सभी तपस्वी और ब्राह्मणों को भी दुःख पहुंचाया।
नंदन वन में जाकर उसने इतना आतंक फैलाया कि सभी देवता उससे छुटकारा पाने के लिए शिवजी की शरण में आए। भगवान शिव ने जैसे ही अपने त्रिशूल से उसे मारना चाहा वैसे ही वह शिवजी की स्तुति करने लगा। उसकी स्तुति से शिवजी प्रसन्न हुए और उसने रुद्र से यह वरदान मांगा कि उसके चर्म का ओढ़ना बनाएं। शिवजी ने इसे स्वीकार किया और तभी वे गज चर्मधारी कहलाए।
अपने पिता हिरण्याक्ष की मृत्यु का बदला लेने के लिए उसके पुत्र ने यह सोचा कि सारे अनर्थों की जड़ ब्राह्मण हैं। क्योंकि देवता यज्ञ के अधीन रहते हैं, यज्ञ वेदों के अधीन हैं और वेद ब्राह्मणों के अधीन हैं अतः ब्राह्मणों को नष्ट करने के बाद यज्ञ होंगे ही नहीं और देवता भूख से पीड़ित होकर नष्ट हो जाएंगे।
इसलिए उसने विचार किया कि पृथ्वी को ब्राह्मणों से हीन कर दिया जाए। वह सिंह, व्याघ्र आदि का रूप बनाकर जंगल में रहने लगा तथा यज्ञ की समिधा आदि लाने के लिए जो भी ब्राह्मण आते उन्हें खाने लगा। वह ब्राह्मणों की खोज में काशी तक पहुंचा। वह दिन में तो तपस्वी का भेष बनाए रखता था और रात में ब्राह्मणों को अपना भोजन बनाता।
उसने एक दिन रास्ते से एक शिव भक्त ब्राह्मण को उस समय अपना भोजन बनाना चाहा जब वह शिव पूजा के लिए जा रहा था। ब्राह्मण ने शिव मंदिर में जाकर पूजा की और जैसे ही दूंदूभि उसे खाने के लिए आगे बढ़ा, वैसे ही भगवान शंकर की कृपा से स्वयं शंकर शिवलिंग से प्रकट हुए और उस दुष्ट का वध कर दिया। मरते समय उसने शिवजी की अनेक प्रकार से प्रार्थना की, उनकी पूजा की और उसने भी गजासुर की तरह अपनी देह के चर्म को ओढ़ना बनाने की प्रार्थना की। शिवजी ने उसे स्वीकार कर लिया और वे उस कारण व्याघ्रेश्वर कहलाए।
व्यासजी से सनत्कुमारजी बोले कि हे व्यासदेव! शिवजी का जो चरत्रि तुमसे सुना है वह स्वर्गदायक, आयु, पुत्र, पौत्रों की वृद्धि करने वाला, विकार को नष्ट करने वाला, ज्ञानदायक, रमणीय और यशवर्धक है। जो व्यक्ति शिव के चरित्र को सुनता है या दूसरों को सुनाता है उसके दुः दूर हो जाते हैं और वह अंततः मोक्ष पद का अधिकारी होता है।