Shiv Puran in Hindi – उमा संहिता

Devotees believe that reciting Shiv Puran in Hindi can cleanse the mind and soul.

Shiv Puran in Hindi – उमा संहिता

महात्मा सूतजी से ऋषि बोले कि आप हमें शिवजी और पार्वती के अन्य गुप्त चरित्रों को सुनाने की कृपा करें। सूतजी ने कहा, हे मुनियो! शिवजी का यह चरित्र उपमन्यु ने श्रीकृष्ण को बताया था। और यही चरित्र मैं अब आप लोगों को बताता हूं। एक बार श्रीकृष्ण कैलास पर्वत पर शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तप करने के लिए गये। वहां उन्होंने उपमन्यु को तप करते हुए देखा और उससे प्रार्थना की कि वह उन्हें शिव-चरित्र सुनाएं।

श्रीकृष्ण की बात सुनकर उपमन्यु बोले कि शिवजी को प्रसन्न करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु आदि अनेक देवताओं को मैंने तपस्या करते हुए देखा है। शिवजी का रूप अनुपम है और उनका महात्म्य भी अलौकिक है। शंकरजी के दिव्य रूप को देखकर मैंने जब उनकी पूजा-अर्चना की तब उन्होंने वर मांगने के लिए कहा। मैंने वर में उनसे मांगा कि मुझे तीनों कुलों का ज्ञान हो जाए। आपमें प्रगाढ़ भक्ति रहे और परिवार को नित्य प्रति दूध-भात मिलता रहे। शिवजी से मेरा मांगा हुआ मुझे सब-कुछ सहज उपलध्ध हो गया है।

श्रीकृष्ण के पूछने पर उपमन्यु ने कहा कि में कुछ अविशिष्ट शिव-भक्तों का वर्णन करते हुए शिव और शिवभक्ति के महात्य को बताता हूं। हिरण्यकशिपु ने एक बार महादेव की आराधना करके देवों के समान ऐश्वर्य प्राप्त किया था। इस कारण उन्होंने अनेक देवताओं को भी पराजित किया। यहां तक कि प्रहलाद ने इन्द्र को पराजित किया और तीनों लोकों पर अधिकार जमा लिया। महादेवजी की पूजा से ही याज्ञवल्क्य को ज्ञान और व्यासजी को दिव्य यश प्राप्त हुंआ।

इसके साथ इन्द्र से पराभूत बालखिल्य ऋषियों ने शिवजी की कृपा से ही सोमरस को हरण करने वाले गरुड़जी को सहायक के रूप में प्राप्त किया। दत्तात्रेय. दुर्वासा अनसूया. चंद्रमा आदि ने शिवजी की कृपा से ही पुत्रों को प्राप्त किया। चित्रसेन और गोपिकापुत्र ने महादेव की पूजा से ही परमसिद्धि को प्राप्त किया। राजा चित्रांगद को शिवजी ने यमुना से बचाया और चंचुका को परम गति प्रदान की। शिवजी ने ही मंदर ब्राह्मण और पिंगला वेश्या का उद्धार किया। शिवजी ने अनेक लोगों का उद्धार किया।

श्रीकृष्ण ने शिवजी में अपनी पूरी निष्ठा दिखाते हुए कहा कि मुझे उनके मन्त्र से परिचित कराइए। श्रीकृष्ण ने ‘ॐ नमः शिवाय’ का जाप करना प्रारंभ कर दिया। सोलह महीने तक दक्षिण चरण के अंगूठे पर स्थित रहकर उन्होंने तप किया और तब श्रीकृष्ण के सामने शिव और पार्वती प्रकट हुए और उन्होंने वर मांगने के लिए कहा। यह सुनकर श्रीकृष्णजी ने आठ वर मांगे-

  • शिवजी में नित्य प्रेम
  • स्थिर अनुराग
  • दस पुत्र
  • अटल यश
  • सामीप्य
  • शत्रुनाश
  • अतिरस्कृत रहना
  • योगियों से सम्मानित होना। इसके बाद श्रीकृष्ण ने पार्वतीजी से भी वर मांगे-
  • ब्राह्मण पूजा
  • देवी, संन्यासियों और गृहस्थियों को सम्मान
  • सहस्रों स्त्रियों का प्राणप्रिय होना।

शिव और पावंती श्रीकृष्ण को वर देकर अंतध्योन हो गए और श्रीकृष्ण भी उपमन्यु के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित कर अपने धाम चले आए। शिवजी की कृपा से ही श्री राम ने लंका को जीतने के लए समुद्र पार किया और लंकेश का वध किया। शिवजी के द्वारा प्राप्त शक्ति से ही परशुराम पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करने में सफल हुए और पाराशर मुनि को बुढ़ापे तथा रोग से रहित वेदव्यास जैसा पुत्र मिला। ऋषियों ने सूतजी से कहा कि वे नरक के अधिकारी पापी जीवों से परिचित कराएं जो बात व्यासजी को सनत्कुमारजी ने कही थी।

सूतजी बोले-चार प्रकार के मानसिक पाप हैं-

  • दूसरों के धन की इच्छा
  • दूसरे की स्त्री की इच्छा
  • दुर्भावना पूर्ण दूसरे का अनिष्ट की भावना
  • अपने में भक्ति-भाव रखना।

इसके साथ चार वाचिक कर्म हैं जिन्हें पाप के अंतर्गत माना जाता है-

  • असंगत भाषण,
  • असत्य बोलना
  • अप्रिय बोलना
  • चुगलखोरी करना। और चार प्रकार के शारीरिक कम हैं-
  • अभक्ष्य, भक्षण
  • हिंसा
  • परद्रव्य लेना
  • बुरा कार्य करना।

इन बारह प्रकार के पापों को करने वाले नरकगामी हो जाते हैं। महादेवजी की शिवगाथा में प्रवृत्त तपस्वियों की और गुरु की तथा पितरों की निंदा करने वाला, अन्याय से दान करने वाला, लोभ के वश दुराचार में प्रवृत्त होने वाला, शिवर्जी को कथा में बाधा उत्पन्न करने वाला, ब्रह्म का हत्यारा, निर्दोष को दंड देने वाला और ब्राह्मण का धन हरण करने वाला नरकगामी होता है। इसके अतिरिक्त माता-पिता का त्याग, डरपोक से लाभ कमाने वाला, रास्ते में आग लगाने वाला भी नरकगामी होता है। स्त्री का व्यापार करने वाला. पाखंडी. कृतघी. सार्वजनिक स्थानों को अपवित्र करने वाला, आश्रितों को पीड़ा देने वाला, घूसखोरी. पशुहिसा, व्यापार में कपट क्रूरता, करने वाला नरकगामी होता है।

हे ऋषियों, मनुष्य अपने कर्म का फल अवश्य भोगता है। बुरा काम करने वाला कोई भी ऐसा नहीं है जो यमलोक से बच सके। धर्मात्मा लोग सौम्य मार्ग से पूर्व द्वार जाते हैं और पापी दक्षिण मार्ग से यमलोक जाते हैं। यह रास्ता कठोर पत्थरों से छुरे की धार के समान बना हुआ है। इसमें कहीं अंधकार. दलदल, तपी बालू, शेर, भेड़िये आदि भयंकर पशु हैं। अजगर, जोंक आदि भी हैं। और यहां पर यमलोक में पापी प्राणी को उसके कर्मों का फल देने के लिए लाते हैं। किसी को उलटा लटकाते हैं, और किसी के कानों, गालों, नाक में कील ठोंकते हैं और किन्हीं को बहुत घसीटते हैं। इसके विपरीत शुभ आचरण करने वाले व्यक्तियों का स्वागत किया जाता है।

सनत्कुमारजी ने इसके बाद भिन्न प्रकार के पापों की भिन्न यातना का परिचय दिया। उन्होंने कहा कि असत्य शास्त्र में प्रवृत्त करने वाला द्विजिह्यरव्य नरक में जाता है और वहां उसे तेज हल से पीड़ित किया जाता है। माता-पिता तथा गुरु को भय दिखाने वाले के मंह में विष्ठा डाली जाती है जो मंदिर, कां आदि को

तोड़ता है उसे कोल्हू में पेरा जाता है। सज्जनों की निंदा सुनने वाले के कानों में कील ठोंक दी जाती है। धर्मग्रंथों, शिवलिंगों ब्राह्मणों को पैर लगाने वाले के पैर काट दिए जाते हैं। पिता का तर्पण न करने वाले तामिख्र नरक में जाते हैं। इन सबके विपरीत उत्तम कर्म करने वाले लोग यमलोक में सुख पाते हैं। जो ब्राह्मण को खड़ाऊं आदि देता है वह घोड़े पर चढ़कर यमलोक जाता है। पुष्पवाटिका लगाने वाले पुष्पक विमान से और दान करने वाले सुखद यान से ले जाए जाते हैं और वहां भी सुखपूर्वक रहते हैं।

अन्न दान सबसे महत्त्वपूर्ण दान है। क्योंकि भूख के समान कोई रोग नहीं इसलिए अन्नदान के समान कोई पुण्य नहीं। अन्न को प्राण कहा गया है इसलिए अन्नदान प्राणदान है। ऐसे व्यक्ति को कोई असुविधा नहीं होती। जलदान भी महिमावान है, जलदान इस लोक और परलोक में आनंद देने वाला है। इसलिए मनुष्य को तालाब, कुएं आदि खोदवाने चाहिए। क्योंकि देव, पितर, नाग, राक्षस, गन्धर्व, स्थावर, शूलादिक सभी जल का सहारा लेते हैं। इसी प्रकार वन तथा उपवन में वृक्ष लगाना भी उत्तम फल देता है। इससे पितृवंश तक का उद्धार हो जाता है। एक जन्म में लगाए गए वृक्ष दूसरे में पुत्र-प्राप्ति करते हैं। सत्य वचन, परम कल्याणकारी है, तप से स्वर्ग, यश, काम, मोक्ष, ज्ञान-विज्ञान, सौभाग्य तथा रूप प्राप्त होते हैं। तप से ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र सृष्टि की रचना, पालन और संहार करने में समर्थ होते हैं। विश्वामित्र तप से ही क्षत्रिय से ब्राह्मण बन गए।

सनत्कुमारजी कहते हैं कि जिस प्रकार सूर्य-चंद्रमा के बिना संसार अंधकारमय हैं उसी प्रकार पुराणों के बिना संसार में अज्ञान का ही साम्राज्य है। पुराण द्वारा ही अज्ञान दूर होता है। पुराण कहने वाले भी दूसरे को पतन से बचाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव पुराण वक्ता होने के कारण परमपूजनीय हैं। पुराणों के ज्ञाता विद्वान् को संतुष्ट करने वाला मनुष्य सौभाग्य की गति को प्राप्त होता है। और इससे शिवलोक की प्राप्ति होती है। शिव की कथा श्रवण करने वाला साक्षात् रुद्र हो जाता है। कलियुग में शिव पुराण के कहने और सुनने से बड़ा और कोई पुण्य नहीं। सूतजी कहते हैं कि ब्रह्मांड के कारणभूत अनाम, एवं कालभूत व्यक्त और अव्यक्त शिवजी से दो प्रकार के ब्रह्मा पैदा होते हैं जो चौदह भुवन वाले ब्रह्मांड की रचना करते हैं।

ब्रह्मांड में सात पाताल और सात भूतल हैं। सौ योजन विस्तार वाले सात पातालों के नाम-अतल, वितल, सुतल, रसातल, तल, तलातल और पाताल। ये सातों पृथ्वी के नीचे हैं और इन लोकों के बड़े-बड़े महल सोने और रत्नों से जड़े हुए हैं। इनमें दानव, दैत्य, और नाग तथा राक्षस जातियां रहती हैं। यहां की प्रकृति अत्यंत सुंदर है। इन्हीं लोकों के ऊपर रौरव, कताल, रोध, रवण, विलोहित कृमि, बिवसन आदि अनेक प्रकार के नरक हैं। इनके ऊपर पृथ्वी मंडल है जिसमें जंबू, प्लवक्ष, क्रॉंच, पुष्कर, शाक, शाल्मलि, आदि द्वीप हैं और लवण, इक्ष्रस, घुत, मधु, दुग्ध, दधि और जल के सात समुद्र हैं। इन सबके बीच में जंबूद्वीप

है जिसके बीच में सोलह योजन गहरा, चौरासी योजन ऊंचा और बत्तीस योजन चौड़ा एक स्वर्णमय कैलास पर्वत है। इसके दक्षिण में हेमकूट और हिमालय तथा उत्तर में श्वेत और शृंगों वाले अन्य पर्वत हैं। इसमें भारतवर्ष नाम का सहख्र योजन विस्तृत तथा बड़ा देश है। इसके आगे सुमेरु. दक्षिण में हरिवंश, उत्तर में रम्यक तथा समानांतर हिरण्यमय पर्वत है। इसके भी उत्तर में कुरु, बीच में इलावृत्त और मेरु पर्वत हैं।

सुमेरु से मिले हुए-पूर्व में मंदराचल, पश्चिम में विपुल, दक्षिण में गंधमादन और उत्तर में सुपार्श्व चार पर्वत हैं। जामुन के फल के कारण इसका नाम जंबूद्वीप पड़ा क्योंकि उनके पत्थरों पर गिरने से निकले रस से जंबू रस की नदी के किनारे रहने वाले प्राणी पीड़ामुक्त होते हैं। सुमेरु के पूर्व में भद्राश्च, पश्चिम में केतुमाल और इनके बीच में इलावृत्त वन है। इसके पूर्व में चैत्ररथ, पश्चिम में विभ्राज और उत्तर में नंदन वन तथा दक्षिण में गंधमादन है।

भारतवर्ष सागर से उत्पन्न नवम द्वीप है। दक्षिण की ओर हजारों योजन फैले हुए इस द्वीप के पूर्व में किरात, उत्तर में तपस्वी तथा दक्षिण में यवन निवास करते हैं। मध्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र अपने-अपने कार्य करते हैं। यहां मलय, महेन्द्र, सुदामा, विंध्य, अक्षय और परियात्र तथा सह्य, नामक सात पर्वत हैं। परियात्र से वेद, स्मृति और पुराण आदि उत्पन्न हुए हैं। नर्मदा, सुरसा आदि सात महानदियों के अतिरिक्त अनेक नदियां विंध्याचल से निकलकर बहती हैं। भारतवर्ष जंयूद्वीप में श्रेष्ठ और कर्मभूमि है। बड़े पुण्यों से यहां मनुष्य जन्म मिलता है। स्वयं भगयान अवतार धारण करके यहा विचरण करते हैं।

चंद्रमा और सूर्य की किरणों के प्रसार तक पृथ्वी को भूलोक कहा गया है। पृथ्वी से एक लाख़्र योजन के घेरे में सूर्य मंडल है जिसमें एक हजार योजन के घेरे में सूर्य स्थित है। चंद्रमा. सूर्य से एक लाख योजन ऊपर है। चंद्रमा के ऊपर दस-दस हजार योजन चारों ओर ग्रहों का मंडल है। फिर इसके आगे बुध, उसके आगे शुक्र. फिर मंगल, और फिर बृहस्पति और सबके ऊपर शनैश्चर स्थित है। इसमे एक लाख योजन ऊपर सप्तऋषियों का मंडल है। और उससे सात सहस्र योजन ऊपर ध्रुव के बीच भूलोक, भुव:लोक. और स्वर्ग लोक है। ध्रवु लोक के ऊपर महलोक है और उससे २६ लाख योजेन तक तप लोक है और वहां से छ: गुना दूर सत्यलोक है।

ज्ञान और ब्रह्मचारी भूलोक में, सिद्धि और देवता तथा मुनि भुवःलोक में, आदित्य पवन, बसु आदि स्वर्गलोक में रहते हैं। ब्रह्मांड चारों तरफ से अंडकटाह से लिपटा हुआ है। और जल से दस गुणा अग्नि, पवन. आकाश, अंधेरा आदि से व्याप्त है। इसके ऊपर महाभूतों का डेरा है, उसके बाद इस ब्रह्मांड को प्रधान महातत्त्चों से लपेटे हुए परम पुरुष रिथत है।
सनत्कुमारजी ने फिर ब्रह्मांड के ऊपर के लोकों का परिचय देते हुए कहा कि ब्रह्मांड के ऊपर बैकुंठ है, यह विष्णुजी का निवास रथल है। उसके ऊपर कोमार लोक में कार्तिकेय रहते हैं। इसके बाद उमा लोक है जिसमें शिव शक्ति सूशोभित है।

इसके ऊपर सनातन शिव लोक है इसमें महेश्वर, त्रिगुणातीत परब्रह्म रूप में सीमित हैं। इसके पास ही गौलोक है जहां गौमाता निवास करती हैं और कृष्णजी गौ सेवा करते हैं। मनुष्य ही नहीं बल्कि देव, गंधर्व आदि जातियों का भी परम लक्ष्य शिवलोक की प्राप्ति है, परन्तु इस पद को केवल मनुष्य ही पाता है क्योंकि वही एक कर्म योनि है। अन्य तो भोग योनियां हैं। कर्म ही मनुष्य की विशिष्टता है। मनुष्य चाहे तो तप से शिवजी को प्राप्त कर सकता है।

ब्रह्मा, विष्णु आदि भी तप में ही स्थित हैं। तप के तीन प्रकार हैं-सात्तिक, राजसिक, और तामसिक। निष्काम भाव और हित से किया गया तप सात्त्विक होता है। सात्त्चिक के अंतर्गत ही पूजा व्रत, दया, कूप, वापी बनवाना है। इससे संपूर्ण फलों की प्राप्ति होती है। कामना के उद्देश्य से किया गया तप राजसिक है। अभीष्ट सिद्धि का प्रदाता है। किंतु दूसरों के अनिष्ट के लिए किया गया तप तामसिक होता है। यह अवाछनीय होते हुए भी सिद्धि देता है क्योंकि अंततः है तो तप ही। प्राणायाम को सर्वोत्तम सात्तिक तप कहा गया है।

सनत्कुमारजी कहते हैं कि भगवान शंकर के अंश से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्ण उत्पन्न हुए हैं। और उनकी उत्कृष्टता का स्तर तप के द्वारा ही सिद्ध होता है। ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ है किंतु क्षत्रिय का संग्राम भी तप के ही समान होता है। व्यासजी ने कहा कि हे मुनि, अब आप जीवों के जन्म, गर्भस्थित और वैराग्य के संबंध में विस्तार से बताएं। यह सुनकर सनत्कुमारजी बोले कि जिस तरह जल और अन्न पाक पात्र में अलग रहते हैं और फिर आग में गर्म जल बनकर रस और मल दो में विभक्त हो जाते हैं उसी प्रकार भोजन भी रस और मल के रूप में विभाजित होता है। रस सारे शरीर में व्याप्त हो जाता है और मल बारह स्थानों से बाहर निकलता है।

ये बारह स्थान हैं-कान, नाक. जीभ, दांत, आंख, लिंग, गुदा, मलाशय, कफ, स्वेद, मूत्र और विष्ठा। हृदय कमल से युक्त नाड़ियों के द्वारा रस शरीर में पहुंचता है और जब आत्मा उसे पचा लेती है तो वह पहले त्वचा और बाद में रक्त बनता है। उसके बाद रोम, केश, नख आदि उत्पन्न होते हैं और उनके बाद मज्जा से विकृत होकर प्रसव के हेतु शुक्र अर्थात् वीर्य उत्पन्न होता है। जीव की प्रवृत्ति गर्भ में तभी होती है जब वीर्य स्त्री के रक्त में मिल जाता है।

वह एक दिन में कलिल और पांच रात में बुलबुले के समान होता है। सात रातों में मांसपिंड बन जाता है। और दो महीने के भीतर गर्दन, कंधा, पीठ, छाती, उदर, हाथ और पैर बनते हैं, तीसरे महीने में अंकुर संधि और चौथे में उंगलियां, पांचवे में मुंह. नाक और कान. छठे में दांत, कान छिद्र आदि, सातवें में गुदा, नाभि आदि बनते हैं, इस तरह माता के गर्भ में जीव सात महीने में अंग-प्रत्यगों से पूर्ण हो जाता है। और फिर माता के भोजन के रस से पुष्ट होता रहता है। माता के गर्भ में ही जीव को अपने अनेक जन्मों के र्मरण से सुख-दुखख होता रहता है। और

बाहर आने पर भी वह इस दुःख और सुख से भरा होता है और इस संसार में रमण करता है। माता के गभं से बाहर आकर वह गर्भ-यंत्र की पीड़ा से तो मुक्त हो जाता है लेकिन संसार के मोह में पड़ जाता है। उसकी पूर्व स्मृति नष्ट हो जाती है। जीव बचपन में सबकुछ कर सकता है लेकिन कर नहीं पाता। बाद में धीरे-धीरे बढ़ने पर वह संसार में आसक्त हो जाता है और दुःख को ही सुख समझने लगता है। उसका सबसे बड़ा अज्ञानपूर्ण प्रसंग स्त्री का संग है। और स्त्री सारे दोषों का घर है। कई बार कुलीन और सुशिक्षित पुरुष के द्वारा सुरक्षित होने पर भी स्त्रियां मर्यादा में नहीं रहती। स्त्री का एक दोष यह भी है कि वह दूसरे पुरुष में आसक्त हो जाती है और अधम स्त्रियों में आसक्त होकर मनुष्य अपना अनिष्ट करता है।

इसके बाद सनत्कुमारजी ने मृत्युसूचक चक्र अथवा लक्षणों का उल्लेख किया। उनके अनुसार जब शरीर चारों तरफ से पीला और ऊपर से लाल हो जाए और मुख, कान, आंख, जीभ आदि बंधने लगें तो समझना चाहिए कि छह महीने के भीतर ही मृत्यु होने वाली है। यदि मनुष्य को सूर्य, चंद्रमा आदि का प्रकाश दिखाई न दे और सारे पदार्थ काले दिखाई दें तो भी छह महीने के अंदर मृत्यु हो सकती है।

काल वंचन की विधि बताते हुए शिवजी ने पार्वती से कहा कि आकाश पंच भौतिक शरीर में व्यापक है और शेष सारे तत्त्व आकाश से उत्पन्न होते हैं और लीन होते हैं। काल को कोई भी वंचित नहीं कर सकता लेकिन ध्यान में लीन योगी काल को नष्ट कर सकता है।

जो भी इस बात पर विचार करता है कि पंचभूत जब गुण ग्रहण करते हैं तो जन्म होता है और जब गुणों का त्याग करते हैं तो मृत्यु होती है। योगी जब अपनी तर्जनियों से अपने दोनों कान बंद करते हैं तो उन्हें एक अग्नि प्रेरित तुंकार शब्द सुनाई देता है यह शब्द सुनकर योगी मृत्यु को जीत लेता है। वायु को भीतर रोकने का नाम प्राणायाम है और यह बहुत शक्तिमान प्रक्रिया है। जब मनुष्य वायु को भीतर रोकता है वह दीपक की तरह बाहर और भीतर प्रकाश करती है। ध्यान में तत्पर योगी परम धाम को पहुंचकर वहां से लौटता नहीं।

प्राणायाम का दूसरा रूप एकांत में चंद्रमा अथवा सूर्य से प्रकाशित प्रदेश को निरालस्य होकर भृकुटियों के बीच देखना और हाथ की उंगलियों से नेत्रों को बंद कर पलभर ध्यान में तत्पर रहना है। इस रूप को अपनाने वाला योगी ईश्वरीय ज्योति का अनुभव करता है और वह मृत्यु से छूट जाता है। तीसरा रूप है जीभ को तालु में सिकोड़कर लगाने का अभ्यास करना। इससे जीभ लंबी हो जाती है और उससे अमृत टपकता है जो अमर कर देता है। चौथा प्रकार वह है जिसमें योगी ऊंचा होकर अंजलि बांधकर चोंच के आकार वाले मुख में वायु पान करता है। इनमें से किसी भी एक विधे को अपनाकर अमृततत्व को पाया जा सकता है।

शंकरजी ने पार्वती को काल जप का एक अन्य उपाय बताया। उन्होंने कहा कि सूर्य अथवा सोम को पीछे करके सफेद कपड़े पहनकर धूपादि से सुगंधित होकर ‘ॐ नमो भगवते रुद्भाय’ का जाप कर ब्रह्म की प्राप्ति होती है। छाया पुरुष को देखकर एक वर्ष तक इस मंत्र का जाप करने वाले को सारी सिद्धियां मिलती हैं। शौनक आदि ऋषि पुनः सृष्टि का रहस्य पूछने लगे और तब सूतजी ने उनसे कहा कि प्रत्येक समय ब्रह्माजी पर सृष्टि को उत्पन्न करने का भार होता है, विष्णु पालन करते हैं और शिव संहार। सृष्टि-रचना की इच्छा पर स्वयंभू पहले जल को उत्पन्न करते हैं और फिर उसमें बीज डालते हैं जिससे जल नर और वही नर का पुत्र नार कहलाता है।

और फिर जल में निवेशित अंड के दो भाग करते हैं, एक खंड आकाश और एक खंड भूमि कहलाता है। भूमि के आधे भाग में प्रभु चौदह भुवन बनाते हैं फिर जल के ऊपर स्थित पृथ्वी और आकाश दस दिशाओं को मन, वाणी. काम, क्रोध, रति आदि को बनाते हैं फिर मरीचि, अंगिरा, आदि सात ऋषियों को और फिर अपने क्रोध से ११ रुद्रों को तथा सनत्कुमारों को उत्पन्न करते हैं। यज्ञ की विधि के लिए ब्रह्माजी चारों वेदों का निर्माण करते हैं। और फिर अपने मुख से देवताओं को वक्ष स्थल से पितरों को, जंघा से मनुष्यों को और नीचे के भाग से दैत्यों को उत्पन्न करते हैं। इस पर भी ब्रह्माजी की प्रजा नहीं बढ़ती तो वे अपने ही शरीर के दो भाग स्त्री और पुरुष करते हैं। स्त्री भाग शतरूपा और पुरुष भाग मनु कहलाता है।

मनु-शतरूप से उत्पन्न प्रियव्रत और उत्तानपाद अत्यंत तेजस्वी पुत्र ध्रुव को जन्म देते हैं। इसके बाद ध्रुव के दो पुत्र होते हैं, पुष्टि तथा धान्य। पुष्टि के पांच पुत्र-वृष, ऋपुंजय, वित्र, बृकल और तत्रसू होते हैं। इसके साथ ही चाक्षुष नाम का एक पुत्र पैदा होता है और वह मनु के नाम से विख्यात होता है। वह नवला पत्नी से दस तेजस्वी पुत्र उत्पन्न करता है-पुरु. मास. शतद्युम्न तपस्वी, सत्यजित. कवि. अग्निष्टोम, अतिरात्र, मन्यु, और सुयश। पुरुष के छः पुत्र अंग. सुमनस्, ख्याति, स्मृति, अंगिरस, और गय उत्पन्न होते हैं।

अंग का बेन नामक एक पापी पुत्र उत्पन्न होता है जिसे ऋषि अपने हुंकार से मार देते हैं। फिर बेन की पत्नी सुनीषा की प्रार्थना पर बेन के दक्षिण हाथ को मथकर ऋषि पृथु को उत्पन्न करते हैं। सूर्य के ही समान तेजस्वी और साक्षात् विष्णु का अवतार पृथु प्रजा के लिए गऊ रूपी पृथ्वी को दोह न करता है और एक सौ यज्ञ करता है पृथु के सूत, मागध, विजिताश्व, हर्यश्व और बर्हि आदि पुत्र उत्पन्न होते हैं। बर्हि के ही पुत्र प्रजापति उत्पन्न होते हैं। वे मन से चर. अचर, द्विपाद और चतुष्पाद जीव उत्पन्न करते हैं।

इसके उपरांत वे मैथुनी सृष्टि रचने में प्रवृत्त होते हैं वे हर्यश्व आदि दस सहस्त पुत्र उत्पन्न करते हैं जो नारद के उपदेश से विरक्त हो जाते हैं। दक्ष पुनः शवलाश्व नामक एक सहस्र पूत्र उत्पन्न करता है। वे भी नारदजी की प्रेरणा से पूर्वजों के अनूगत हो जाते हैं। इस पर क्रुद्ध दक्ष नारद को कहीं स्थिर होकर रहने का स्थान उपलब्य न होने तथा भटकते रहने का शाप देता है। इसके पश्चात् दक्ष अनेक कन्याएं उत्पन्न करके धर्म को, कश्यप को, अंगिरा को तथा सोम को ब्याह देता है, जिनसे देव, दैत्य आदि बहुत से पुत्र उत्पन्न होते हैं और इनसे सारा जगत भर जाता है।

वैवस्वत मन्वतर की सृष्टि का वर्णन करते हुए सूतजी कहते हैं-प्रथम सृष्टि में उत्पन्न सप्तर्षियों के चले जाने पर दिति कश्यपजी को प्रसन्न करके उनसे इन्द्रहंता पुत्र मागती है, जिसे कश्यपजी स्वीकार करते हैं। एक दिन उच्छिष्ट मुख और बिना पैर धोए गर्भवती दिति के सो जाने पर इन्द्र उसके गर्भ में प्रविष्ट हो जाता है और वह अपने वज्ज से गर्भ के सात भाग कर देता है और पुनः एक-एक भाग के सात सात, इस प्रकार कुल उनचास खंड कर देता है। इंद्र से भ्रातृत्व घोषित किए जाने पर इन्द्र इनसे द्वेष त्याग देता है और वही उनचास मरुंत् नामक देवता कहलाते हैं। इनके लिए प्रजापते पृथक-पृथक राज्यों की कल्पना करता है।

इसके उपरांत ब्रह्माजी राज्यों का विभाग करके बेनपुत्र पृथु. सोम, वरुण. विष्णु. पावक. शूलपाणि. महादेव आदि को उन राज्यों पर प्रतिष्ठित करते हैं। वे पूर्व दिशा में विराज के पुत्र को. दक्षिण दिशा में कर्दम के पुत्र को, पश्चिम दिशा में रजसू के पुत्र को और उत्तर दिशा में दुर्धर्ष के पुत्र को अभिषिक्त करते हैं। सूतजी बोले – मुनीश्वरों भूत, भविष्य और वर्तमान में कुल चोंदह मनु स्वायंभुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, रौच्य सावर्णि, धन सावर्णि, रुद्र सावर्णि, देव सावर्णि, अग्नि सावर्णि और इन्द्र सावर्णि हुए हैं। इनका समय चौदह हजार कल्प निश्चित किया जाता है। इनकी संततियों की रूपरेखा इस प्रकार है :

स्वायंभुव मनु के दस पुत्र थे, जिनमें से इन्द्र का नाम यज्ञ था। यह प्रथम मन्वंतर बड़ा ही दिव्य था। द्वितीय मन्वंतर में स्वारोचिष मनु के भी दस वीर्यवान और पराक्रमी पुत्र पैदा हुए, जिनमें इन्द्र का नाम रोचन था। तृतीय मन्वंतर में उत्तम मनु के दस पुत्र हुए, जिनकें सत्यजित नाम का इन्द्र था। इस प्रकार चौदह मन्वतरों में मनुओं की सन्तानों में पृथक-पृथक इन्द्र, ऋषि और देवतादि होते आए हैं. जो सहस्र युगों तक सृष्टि का पालन करने के पश्चात् ब्रह्मलोक को जाते हैं। सूर्य की किरणों से प्राणी जलने लगते हैं तब ब्रह्माजी नारायण हरि में प्रवेश करते हैं और कल्पांत में अनेक भूतों को उत्पन्न करते हैं जबकि शिवजी उनका संहार करते हैं। मन्वंतरों की उत्पत्ति का यही क्रम है।

महर्षि कश्यप के पुत्र विवस्वान सूर्य ने अपनी पत्नी संज्ञा से तीन संतानें श्राद्धदेव, मनु और यम-यमी (युग्म) उत्पन्न कीं। अपने पति के तेज को न सह पाने के कारण संज्ञा अपनी सन्तानें छाया को सौंपकर अपने पिता के घर चली गई। पिता द्वारा अवहोलित संज्ञा वहा न रह पाने के कारण अश्वी का रूप धारण कर क्रुदेश में भ्रमण करने लगी।

इधर छाया को ही संज्ञा समझकर विवस्वान ने उससे सावणिं मनु नामक पुत्र उत्पन्न किया। छाया के इस शिशु के सर्वाधिक स्नेह एवं पक्षपात को देखकर यम ने छाया पर चरणप्रहार किया तो छाया ने उसे चरणहीन हो जाने का शाप दे दिया। यम ने अपने पिता सूर्य को सारा वृत्तान्त बताया तो सूर्य ने शाप को अन्यथा करने में अपनी असमर्थता प्रकट की। सूर्य ने अपनी पत्नी पर क्रोध करते हुए उसकी इस चेष्टा के लिए जब स्पष्टीकरण मांगा तो उसने संज्ञा के छाया होने का रहस्य बताया और सूर्य के प्रचंड तेज को शांत करके उसे सुंदर रूप भी दिया। रहस्य का पता चलते ही सूर्य ने अश्व रूप धारण कर संज्ञा से भोग करने का प्रयास किया परंतु संज्ञा द्वारा इनकार करने पर सूर्य का वीर्य उसकी नासिका के दो नथुनों पर ही गिर पड़ा, जिससे ही अश्विनीकुमार उत्पन्न हुए। उसके पश्चात् संज्ञा अपने पति के सुंदर मोहक रूप को देखकर उसके साथ घर लौट आई।

सूतजी बोले-ऋषियो! वैसे तो मनु के इक्ष्वाकु, शिवि आदि नौ पुत्र थे, परंतु एक समय संतान न होने पर मनु ने पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा इला अथवा इड़ा नामक कन्या को उत्पन्न किया। इला ने मित्रावरुण के पास जाकर कहा कि वह उनके अंश से ही उत्पन्न हुई है अतः उनसे कर्तव्य का निर्देश चाहती है। मित्रावरुण ने प्रसन्न होकर उसे सुद्युम्न के नाम से पुरुष हो जाने का वर दिया परंतु घर लौटते समय मार्ग में उसे बुध मिला जिसकी प्रार्थना पर उससे मेथुन करके इला ने पुरुखा नामक सुंदर पुत्र उत्पन्न किया। पुनः उसने सुद्युम्न बनकर तीन पुत्र उत्कल, गय और विनताश्व उत्पन्न किए।

मनु के एक पुत्र नरिष्यंत ने तीन पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया। राजपुत्री सुकन्या ने च्यवन ऋषि से सौ पुत्र उत्पन्न किए। इनमें सबसे बड़े कुकुछ्नी की कन्या रेवती थी। जिसका विवाह ब्रह्माजी की अनुमति से बलराम से हुआ। मनु के एक दानी पुत्र नग के गौदान के व्यतिक्रम, दुर्बुद्धि एवं पाप के फलस्वरूप योनि में गिरने पर श्रीकृष्ण ने उसका उद्धार किया। उसका पुत्र प्रवृत्ति भी बड़ा धर्मात्मा था। मनु का आठवां पुत्र वृषघन अपने कर्मों से शूद्र बना और नवम् पुत्र कवि बड़ा बुद्धिमान हुआ. जिसने इस लोक में सुख भोगकर दुलेभ मुक्ति को प्राप्त किया।

मनु की वंशावली का परिचय देते हुए सूतजी कहते हैं-मनुजी के नासिका से उत्पन्न इक्ष्वाकु के सौ पुत्रों में विकुक्षि सबसे बड़ा था। एक बार उसने शशक का मांस खा लिया, जिससे वसिष्ठजी की आज्ञा से इक्ष्वाकु ने उसे राज्य से च्युत कर दिया। इक्ष्वाकु ने शकुनि आदि अन्य पंद्रह पुत्र उत्पन्न किए। इनमें अबोध की वंशपरंपरा इस प्रकार चली-अबोध-कुकुत्स्थ-आदिनाम-पृथु-विष्टराश्व-इन्द्र युवनाश्व-श्राव श्रावस्तक-वृहदाश्व-कुवलाश्व-वृशास्व-हर्यश्व-निकुंभ-महतताश्व अक्षाश्व-हेमवती कन्या-प्रसेनजित-युवनाश्व-मांधाता- मुचकुंद-कवीश्वर-सत्यव्रत।

एक बार विश्वामित्र अपनी पत्नी को त्यागकर समुद्र तट पर तपस्या कर रहे थे। भूख से व्याकुल बच्चों को बचाने के लिए विश्वामित्र की पत्नी जब अपने सुपुत्र को अपने गले में बांधकर उसके साथ अपने को भी बेचने लगी तो सत्यव्रत ने उसे खरीद लिया। गले में बंधने के कारण उस बालक का नाम गालब पड़ा उस बालक, उसकी मां और उसके भाइयों का सत्यव्रत ने (विश्वामित्र की प्रसन्नता के लिए) बड़े ही प्रेमपूर्वक पालन-पोषण किया।

एक बार दुष्ट सत्यव्रत ने वसिष्ठजी की कामधेनु को मार डाला और उसका मांस स्वयं खाया तथा विश्वामित्र के पुत्रों को खिलाया। पिता का अपमान करने विश्वामित्र के आश्रम पर मृत पशु फेंकने और कामधेनु का वध करने के रूप में तीन-तीन महापातक करने वाले सत्यव्रत को वसिष्ठजी ने त्रिशंकु होने का शाप दिया। विश्वामित्र ने तप से लौटने पर जब सत्यव्रत द्वारा अपनी पत्नी और पुत्री की रक्षा किए जाने की बात सुनी तो कृतज्ञतावश विश्वामित्र ने अपने तपोबल से उसे सशरीर स्वर्ग भेज दिया।

सत्यव्रत की वंश परंपरा आगे इस प्रकार चली- सत्यव्रत-हरिश्चन्द्र-रोहित-वृक-बाहु-सगर-साठ हजार पुत्र (कपिलमुनि के शाप से भस्मीभूत) और पंचजन-अंशुमान-दिलीप-भगीरथ (स्वर्ग से गंगा लाकर पूर्वजों का उद्धर्ता)-श्रुतसेन-नाभाग-अंबरीष-अयुताजित-कृतपर्ण-अनुपर्णकल्मषपाद-सर्व कमा-अनरण्य-कु डिं दु ह- निषिर तिषद्वां ग-दीर्ध बाहुरघु-अज-दशरथ-रामचन्द्र-कुश-अतिथि-विषय-नल-पुण्डरीक-क्षेत्रधन्वादे वानीक-अहिनग-रायाद-सहस्वान-वीरसे न-परियात्र-बलारथ-स्थलसूर्य-यक्ष-अगुण-विरध्र-हिरण्यनाभ- योगाचार्य-याइ्ञवल्क्य-पुष्प-ध्रुव-अग्निवर्णशीघ्र-मरुत। मरुत का पुत्र योगसिद्ध हुआ जो कलाप ग्राम में अब तक स्थित है। कलियुग में उसके नष्ट होने पर कलाप ग्रामवासी, फिर से सूर्यवंश का उद्धार करेंगे।

उनकी वंशावली इस प्रकार से आगे चलेगी-योगसिद्ध-पृथुद्युत-संधि-आमर्षणमहत्रव-विश्व-प्र से नजित- तक्षक – वृ हृ द् ब- बृ हद्र ण-उरूकिय-वत्स बद्धप्रति व्यो म-भानुदिवाकर-सहदे व-वृ हदश्व-भानु मान् – प्रतीकश्व-सुप्रतीकमरुदे व-सु नक्षत्र-पुष्कर-अंतरिक्ष-सुत-संजय-शाक्य-सुद्धो दलांगन-शूद्रकसुरथ-सुमित्र-विचित्रवीर्य। विचित्रवीर्य के साथ इक्ष्वाकु वंश की समाप्ति हो जाएगी। श्राद्ध के माहात्य और उसके फल का वर्णन करते हुए सूतजी शौनकादि ऋषियों को बताते हैं-अपने पिता, पितामह तथा प्रपितामह का श्राद्ध करने वाले पुरुष सत् धर्म तथा अच्छी संतान अवश्य प्राप्त करते हैं।

भारद्वाज ऋषि के सात दुष्टबुद्धि पुत्र थे। उन्होंने एक दिन ऋषि विश्वामित्र की गाय को मारकर खा लिया और आकर कह दिया कि वन में सिंह ने गाय को पकड़ लिया है। उन्होंने एक अच्छा काम यह किया था कि उस गाय के मांस से अपने पितरों का श्राद्ध कर दिया। सातों भाई इस मिथ्या भाषण और गौहत्या के पाप से दूषित होकर क्रमशः व्याघ्रपुत्र, मृग, चक्रवाक्, जलचर तथा नभचर बने। इन सब योनियों में पितरों के प्रसाद से ही उन्हें उत्तम ज्ञान बना रहा और क्रमशः उनका शाप दूर हो गया।

इसका एकमात्र कारण उनका गाय का प्रोक्षण करके धर्म से पितरों के तर्पण करना ही था। इस प्रकार पित तर्पण. श्राद्ध एवं पूजन अति पुण्यदायक है। सूतजी व्यासजी की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि एक दिन ऋषि पराशर यमुना के किनारे तीर्थयात्रा करते हुए आए और निषाद से बहुत जल्दी नदी पार कराने को कहने लगे। इस पर निषाद ने अपनी पुत्री मत्स्यगंधा को पराशर का परिचय देकर उन्हें नदी पार कराने के लिए कहा। जब पराशर नाव में बैठकर नदी के बीच पहुंचे तो आश्चर्य की बात यह हुई कि अनेक अप्सराओं के प्रणय को ठुकराने वाले पराशर उस निषाद बाला पर मुग्ध हो गए और उसका हाथ पकड़कर प्रणय- निवेदन करने लगे। उसके मना करने पर उन्होंने छोड़ दिया।

लेकिन किनारे तक पहुंचते-पहुंचते वे फिर कामपीड़ित हो गए, तब निषाद कन्या ने उनसे कहा कि आप कहां इतने उच्च कुल के ऋषि और कहां मैं निषाद बाला। इस पर ऋषि ने निषाद बाला को अपने तपोबल से अत्यंत रूपवती बना दिया और जब वह उससे समागम के लिए तत्पर हुए तो उसने कहा कि दिन का समय है और प्रकाश में उसके पिता आदि देख सकते हैं तब पराशर ने अपने तपोबल से रात के समान घना अंधकार उत्पन्न करके निषाद बाला के साथ सहवास किया। इस पर उसने पूछा कि आपके इस संसर्ग से यदि मैं गर्भवती हो गई तो आपके चले जाने पर मेरी क्या दशा होगी। तब पराशर बोले कि हे बाला. मेरी आज्ञा का पालन करने से तू सत्यवती के नाम से प्रसिद्ध होगी और तुग्हारे गर्भ से एक अदुभुत शक्ति वाला पुत्र उत्पन्न होगा और इस पर भी तुम्हारा कन्यात्व नष्ट नहीं होगा।

पराशर चले गए और इधर यथासमय सत्यवती ने व्यास नामक एक सुंदर पुत्र को उत्पन्न किया। उत्पन्न होने के बाद पुत्र ने माता को प्रणाम किया और कहा कि जब भी अवसर पड़े मुझे स्मरण करना, मैं आ जाऊंगा। अनेक तीर्थों का भ्रमण करते हुए जब व्यासजी काशी आए तो उन्हें इस बात पर चिंता हुई कि शिवलिंग में से कौन जल्दी सिद्धिदायक है। यह बात ध्यान में आते ही वे शिवजी का ध्यान करने लगे और समाधि टूटने पर उन्होंने यह अनुभव किया कि अतिमुक्तेश्वर क्षेत्र में मध्यमेश्वर लिंग के समान कोई अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है।

और तब उन्होंने गंगा में स्नान करके व्रत का आरंभ किया। उन्होंने विधिवत् कभी अल्प भोजन से और कभी निराहार रहकर मध्यमेश्वर की पूजा की। उनकी पूजा से शंकरजी ने पार्वती के साथ उन्हें अपने दर्शन दिए। उनके दर्शन पाकर व्यासजी बहुत प्रसन्न हुए और उनकी तरह-तरह से स्तुति करने लगे। जब शंकरजी ने व्यासजी से वर मांगने के लिए कहा तब व्यासजी ने अपने मन की इच्छा बताई और यह कहा कि मेरी इच्छापूर्ति के लिए वर दीजिए।

तब शिवजी ने कहा कि तुम्हारी इच्छा पूरी हो और उन्होंने यह भी कहा कि मैं तुम्हारे में विराजमान होकर इतिहास पुराणों की रचना करंगा। व्यासजी ने इस प्रकार अठारह पुराणों की रचना की। इन पुराणों के नाम इस प्रकार हैं-विष्णु, पद्म, ब्रह्म, शिव, भगवान, नारद, मार्कंडेय, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, स्कंद, वामन, कर्म, गरुड़, मत्स्य, ब्रह्मांड और भविष्य।

व्यासजी की उत्पत्ति और शिवजी की आराधना के विषय में सुनकर ऋषि बोले कि अब हमें आप भगवती जगदम्बा का चरित्र सुनाइए। इस पर सूतजी बोले कि स्वारोचिष मन्वंतर में विरथ का सत्यवादी पुत्र सुरथ हुआ है। जब नौ राजाओं ने उसका राज्य छीन लिया तो वह वन में चला गया और ऋषियों के साथ रहने लगा लेकिन वह अपने दुर्भाग्य पर हमेशा शोकमना रहता था। एक दिन समाधि नाम के एक वैश्य ने सुरथ को बताया कि उसे उसके पुत्रों ने घर से निकाल दिया है।

लेकिन वह इसके बाद भी अपने पुत्रों की कुशल जानना चाहता है। राजा ने इस बात पर आश्चर्य अनुभव किया कि यह व्यक्ति अपमान करने वालों के प्रति भी स्नेह का भाव रखता है। और मेधा नाम के ऋषि के पास जाकर इस भावना का कारण पूछा। तब ऋषि ने उसे बताया कि यह मन मोहित करने वाली माया रूपी शक्ति के कारण होता है। इस पर उन्होंने महामाया का परिचय दिया। उन्होंने कहा कि विष्णुजी जब योगनिद्रा में सो गए तब उनके कान के मैल से उत्पन्न दो दैत्यों ने ब्रह्माजी को मारने की कोशिश की। ब्रह्मा अपनी रक्षा के लिए विष्णु तथा परमेश्वरी देवी की स्तुति करने लगे। ब्रह्माजी की स्तुति सुनकर फाल्गुन शुदि द्वादशी के दिन महामाया, महाकाली के रूप में प्रकट हुई और उन दैत्यों को मारने का आश्वासन दिया।

इसी समय विष्णुजी भी जाग गए। विष्णुजी ने क्रोधित होकर मधु कैटभ दैत्यों से युद्ध किया और अंत में भगवान शिव ने उन्हें मार डाला। इधर रंभासुर का पुत्र देवताओं को जीतकर स्वर्ग में राज्य करने लगा था और देवता लोग ब्रह्मा, विष्णु को साथ लेकर शिवजी के पास आए। देवताओं की पीड़ा से शिव को बड़ा क्रोध आया और उस समय उनके मुख से और देवताओं के शरीर से जो शक्ति निकली वह एक शक्तिस्वरूपा देवी के रूप में परिवर्तित हो गई। देवताओं ने प्रसन्न होकर उस शक्ति को अपने-अपने शस्त्र दे दिए। उन शस्त्रों से युक्त होकर यह देवी गरजने लगी। महिषासुर शक्ति से लड़ने के लिए आया और घमासान युद्ध हुआ। देवी ने महिषासुर की माया को छिन्न-भिन्न कर दिया।

और अंततः अपने त्रिशूल से उसकी गर्दन काट दी। तब देवतओं ने देवी की स्तुति की। दूसरी ओर शुंभ और निशुंभ दैत्यों के उत्पात से पीड़ित देवता पावेती के पास अपनी पीड़ा हरण के लिए प्रार्थना करने लगे। पार्वती ने उन्हें आश्वासन दिया और अंतर्ध्यान हो गईं। वह सुंदर रूप बनाकर शुंभ और निशुंभ के सामने आईं। उनका मनोहर रूप देखकर सेवकों ने अपने स्वामियों से उस स्त्री रत्न को पाने के लिए निवेदन किया। और तब सुग्रीव नामक दूत ने जाकर जगदम्बा से कहा कि तुम शुंभ-निशुंभ में से किसी एक का वरण करो।

तब देवी ने कहा कि जो मुझे संग्राम में जीतेगा मैं उसे अपना पति बनाऊंगी। यह सुनकर शुंभ ने अपने सेनापति को आज्ञा दी तो धूम्राक्ष देवी से लड़ने के लिए चला। देवी ने उसे हुकार से ही नष्ट कर दिया। शुभ ने जब इस बात को सुना तो अपने अनेक पराक्रमी चंड-मुंड आदि को भेजा। लेकिन देवी ने सबको मार गिराया। इसके बाद शुभ-निशुभ, कालकेय. मौर्य तथा दुर्घर्ष आदि वीरों को साथ लेकर स्वयं युद्ध करने आए। तब देवी ने घंटानाद करके धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और आक्रमण किया। जब सैकड़ों दैत्य

व्यासजी की उत्पत्ति और शिवजी की आराधना के विषय में सुनकर ऋषि बोले कि अब हमें आप भगवती जगदम्बा का चरित्र सुनाइए। इस पर सूतजी बोले कि स्वारोचिष मन्वतर में विरथ का सत्यवादी पुत्र सुरथ हुआ है। जब नौ राजाओं ने उसका राज्य छीन लिया तो वह वन में चला गया और ऋषियों के साथ रहने लगा लेकिन वह अपने दुर्भाग्य पर हमेशा शोकमना रहता था। एक दिन समाधि नाम के एक वैश्य ने सुरथ को बताया कि उसे उसके पुत्रों ने घर से निकाल दिया है।

लेकिन वह इसके बाद भी अपने पुत्रों की कुशल जानना चाहता है। राजा ने इस बात पर आश्चर्य अनुभव किया कि यह व्यक्ति अपमान करने वालों के प्रति भी स्नेह का भाव रखता है। और मेधा नाम के ऋषि के पास जाकर इस भावना का कारण पूछा। तब ऋषि ने उसे बताया कि यह मन मोहित करने वाली माया रूपी शक्ति के कारण होता है।

इस पर उन्होंने महामाया का परिचय दिया। उन्होंने कहा कि विष्णुजी जब योगनिद्रा में सो गए तब उनके कान के मैल से उत्पन्न दो दैत्यों ने ब्रह्माजी को मारने की कोशिश की। ब्रह्मा अपनी रक्षा के लिए विष्णु तथा परमेश्वरी देवी की स्तुति करने लगे। ब्रह्माजी की स्तुति सुनकर फाल्गुन शुदि द्वादशी के दिन महामाया, महाकाली के रूप में प्रकट हुईं और उन दैत्यों को मारने का आश्वासन दिया।

इसी समय विष्णुजी भी जाग गए। विष्णुजी ने क्रोधित होकर मधु कैटभ दैत्यों से युद्ध किया और अंत में भगवान शिव ने उन्हें मार डाला। इधर रंभासुर का पुत्र देवताओं को जीतकर स्वर्ग में राज्य करने लगा था और देवता लोग ब्रह्मा, विष्णु को साथ लेकर शिवजी के पास आए। देवताओं की पीड़ा से शिव को बड़ा क्रोध आया और उस समय उनके मुख से और देवताओं के शरीर से जो शक्ति निकली वह एक शक्तिस्वरूपा देवी के रूप में परिवर्तित हो गई।

देवताओं ने प्रसन्न होकर उस शक्ति को अपने-अपने शस्त्र दे दिए। उन शस्त्रों से युक्त होकर यह देवी गरजने लगी। महिषासुर शक्ति से लड़ने के लिए आया और घमासान युद्ध हुआ। देवी ने महिषासुर की माया को छिन्न-भिन्न कर दिया। और अंततः अपने त्रिशूल से उसकी गर्दन काट दी। तब देवतओं ने देवी की स्तुति की। दूसरी ओर शुंभ और निशुंभ दैत्यों के उत्पात से पीड़ित देवता पावती के पास अपनी पीड़ा हरण के लिए प्रार्थना करने लगे।

पार्वती ने उन्हें आश्वासन दिया और अंतर्ध्यान हो गईं। वह सुंदर रूप बनाकर शुंभ और निशुंभ के सामने आई। उनका मनोहर रूप देखकर सेवकों ने अपने स्वामियों से उस स्त्री रत्न को पाने के लिए निवेदन किया। और तब सुग्रीव नामक दूत ने जाकर जगदम्बा से कहा कि तुम शुंभ-निशुंभ में से किसी एक का वरण करो। तब देवी ने कहा कि जो मुझे संग्राम में जीतेगा मैं उसे अपना पति बनाऊंगी। यह सुनकर शुंभ ने अपने सेनापति को आज्ञा दी तो धूम्राक्ष देवी से लड़ने के लिए चला। देवी ने उसे हुंकार से ही नष्ट कर दिया।

शुंभ ने जब इस बात को सुना तो अपने अनेक पराक्रमी चंड-मुंड आदि को भेजा। लेकिन देवी ने सबको मार गिराया। इसके बाद शुंभ-निशुभ, कालकेय. मौर्य तथा दुर्घर्ष आदि वीरों को साथ लेकर स्वयं युद्ध करने आए। तब देवी ने घंटानाद करके धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और आक्रमण किया। जब सैकड़ों दैत्य मर गए तब निशुंभ स्वयं देवी के सामने आया और देवी ने अपने विष बुझे बाणों से उसका सिर काट डाला। अपने बड़े भई को मारा गया जानकर शुभ बहुत दु:खी और क्षुब्ध हुआ और भयंकर शस्त्रों से देवी पर आक्रमण करने लगा। भगवती ने अपने त्रिशूल से उसका भी सिर काट डाला। शुंभ और निशुंभ के मरने पर दैत्य लोग डरकर भाग गए तो देवों ने देवी के प्रति कृतज्ञता प्रकट की।

दानवों पर इस तरह विजय पाकर देवों में गर्व हो आया और वे आत्मप्रशंसा करने लगे। तब देवों का गर्व हरण करने के लिए देवी से एक अत्यंत दिव्य रूप धारी कूट तेज निकला जिसे देखकर देवता घबरा गए और उन्होंने सारा वृत्तांत इन्द्र से जाकर कहा। इन्द्र ने वायु को पता लगाने के लिए भेजा तो उस दिव्य तेज ने वायु की परीक्षा लेने के लिए उसके सामने एक तिनका रखकर उसे उठाने के लिए कहा। वायु अपनी पूरी शक्ति के उपरांत भी उसे उठा नहीं पाया।

इसके बाद इन्द्र ने अग्नि को भेजा। लेकिन अग्नि भी उसे जला नहीं पाया और वरषा उसे भिगो नहीं पाई। इन सब स्थितियों से इन्द्र स्वयं घबरा गए और जब उस तेज को ढूंढ़ने लगे तो वह तेज अंतरनिहित हो गया। तब कोई और उपाय न देखकर इन्द्र उस तेज का स्तवन करने लगे। तब उस देवी ने प्रकट होकर कहा कि-मैं परब्रह्म प्रणवरूपिणी हूं और मैंने ही दैत्यों से तुम्हारी विजय कराई है अतः तुम गर्व छोड़कर मेरी पूजा करो। इस पर देवताओं का गर्व नष्ट हो गया और वे सामान्य रूप से रहने लगे।

सूतजी ने देवताओं से वेद के छीने जाने पर हुए परिणामों की चर्चा करते हुए कहा कि बहुत समय पहले की बात है कि एक बार महाबली रुद्र के पुत्र दुर्गम ने देवताओं से वेदों को छीन लिया। वेदों के अभाव में यज्ञ-कर्म बंद हो गए और दुगेम भयंकर उत्पात करने लगा। ब्राह्मण भी आचारभ्रष्ट हो गए। इस पर देवता महामाया की शरण में जाकर अपना दु:ख सुनाने लगे और रक्षा की प्रार्थना करने लगे। देवताओं को आश्वासन देकर देवी ने दुगेम पर आक्रमण कर दिया। दोनों ओर से युद्ध होने लगा। देवी ने अपने शरीर से दस देवियां निकालीं, काली, तारा, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, बगुला, मातंगी. धूम्रा, और त्रिपुरसुंदरी। इन सबने मिलकर दैत्यों के दल को नष्ट कर दिया।

तब देवताओं ने देवी की पुनः आराधना की और अपने को हमेशा बाधा मुक्त रखने की प्रार्थना की। इस प्रार्थना से देवी ने आश्वासन दिया कि वे समय-समय पर देवताओं के भले के लिए अवतार धारण करती रहेंगी। सूतजी बोले कि देवों में पराम्बा का सर्वोच्च स्थान है, ज्ञान, कर्म और भक्ति ये तीन इस शक्ति को पाने के मार्ग हैं। चित्त का आत्मा से संयोग ज्ञान है। बाह्य अर्थ का संयोग कर्म और देवी तथा आत्मा की एकता की अनुभूति भक्ति है। इन तीनों का संयोग क्रियायोग कहलाता है। और यही परम साधन है।

Leave a Comment