The profound teachings in Shiv Puran in Hindi inspire devotees to lead righteous lives.
Shiv Puran in Hindi – कोटिरुद्र संहिता
ऋषियों ने सूतजी से पूछा कि हे सूतजी! आप कृपा करके हमें ज्योतिर्लिंग संबंधी वृत्तांतों को फिर से विस्तार से सुनाइए। सूतजी बोले-ज्योतिर्लिंग प्रधान रूप में १२ हैं। लेकिन इनमें नौ बहुत प्रमुख हैं। उनका मैं विस्तार से वर्णन करता हूं।
अत्रीश्वर महादेव : पुराने समय की बात है कि निरंतर सौ वर्षों तक अनावृष्टि के कारण कामद वन अत्यंत उष्ण और शुष्क हो गया। वह निवास के लिए अनुपयुक्त हो गया तब उसमें अत्रिजी ने अपनी पत्नी अनसूया के साथ कठोर तप किया। शिवजी का जाप करते-करते ऋषि अचेत हो गए।
पति-पत्नी का दर्शन करने के लिए देवता, गंगा आदि नदियां और अनेक ऋषि वहां आए। किंतु शिवजी और गंगा अनसूया का उपकार करने के लिए वहां रुक गए। दू४ वर्ष तक समाधिस्थ रहने के बाद अत्रिजी ने अनसूया से जल मांगा तो वह कमण्डलु लेकर जल की खोज में निकली। गंगा भी उनके पीछे-पीछे चलीं और उनकी सत्यनिष्ठा तथा सेवा भाव से प्रसन्न होकर बोलीं कि मैं गंगा हूं, तुम जो चाहो वर मांगो।
अनसूया ने जल मांगा। गंगा के कहने के अनुसार जब अनसूया ने गड्ढ़ा खोदा तो गंगा उसमें प्रवेश कर गई और अनसूया ने जल लिया तथा गंगा से प्रार्थना की कि वे उनके पति तक पहुंचने और उनके आने तक वहीं पर रहें। अनसूया के द्वारा लाये हुए जल का आचमन करके ऋषि ने आश्चर्य प्रकट किया और पूछा कि वर्षा न होने पर भी यह जल कहां से आया। अनसूया ने बताया कि भगवान शंकर की कृपा से गंगाजी यहा आई हैं और यह गंगाजल है। जब अत्रि ने इस आश्चर्यजनक बात को अपनी आंखों से देखना चाहा तो अनसूया ने उन्हें वह गड्ढा दिखा दिया।
अत्रि ने अपने तप को सफल मानते हुए बार-बार उस जल का आचमन किया और हाथ जोड़कर गंगा से सदा के लिए उस स्थान पर निवास करने की प्रार्थना की। तब गंगा ने कहा कि यदि अनसूया अपने शिवपूजक पति की एक वर्ष की सेवा का पुण्य मुझे दे दें तो मैं यहां रह सकती हूं। अनसूया ने वह पुण्य दे दिया। उसी समय महादेवजी पार्थिव लिंग के रूप में वहां प्रकट हुए और ऋषि दंपति ने पंचमुख शंकर को देखकर उनकी स्तुति की तथा उनसे वहां रहने की भी प्रार्थना की। अनसूया के द्वारा खोदा गया गड्ढा मंदाकिनी कहलाया। और शिवजी का पार्थिवलिंग अत्रीश्वर ज्योतिर्लिंग कहलाया।
महाबलेश्वर महादेव : सोमनी नामक ब्राह्मण की कन्या के विवाह के कुछ वर्षो के बाद उसके पति की मृत्यु हो गई। कुछ समय उसने सदाचार एवं पवित्रता का जीवन जिया लेकिन बाद में कामपीड़ित होकर वह व्यभिचारिणी बन गई। इस पर उसके घरवालों ने घर से निकाल दिया। सोमनी ने एक शूद्र को अपना लिया जिससे वह मांसाहार और मद्यपान भी करने लगी। एक दिन उसने एक बछड़े को मारकर उसका मांस खा लिया। उसके मरने के बाद यमराज ने उसे नरकवास से निवृत्त कर अंधी बालिका के रूप में एक चांडाल के रूप में जन्म दिया। वह अंधी बालिका कुष्ठ रोग की शिकार हो गई।
कुछ समय बाद गोकर्ण की यात्रा करते हुए वह भी भिक्षा के लालच में शिव भक्तों के पीछे-पीछे चली। किसीने उसकी हथेली पर बिल्वमंजरी रखी तो उसने उसे अभक्ष समझकर फेंक दिया। संयोग से वह बिल्वमंजरी रात में किसी शिवलिंग के मस्तक पर जा पड़ी। इधर चतुर्दशी की उस रात को कुछ न मिलने के कारण उसका व्रत निराहार हो गया और रात का जागरण भी हो गया। प्रातःकाल घर लौटने पर वह भूख से व्याकुल होकर मर गई। शिव गणों ने उसे अपने विमान पर उठाकर शिव के परमपद को प्राप्त कराया। शिवजी की अज्ञान से भी की गई पूजा का फल उसे मिला और उसका उद्धार हो गया।
एक और कथा के अनुसार एक बार कल्माषपाद ने एक मुनि और उसके एक पुत्र को पकड़कर फाड़ डाला। मुनि पत्नी ने जब अपने पति और पुत्र को छोड़ने की प्रार्थना की और कल्माषपाद नहीं माना तो मुनि पत्नी ने उसे स्त्री समागम करने पर मृत्यु प्राप्त होने का श्राप दे दिया। इससे पूर्व उसे वसिष्ठ के द्वारा १२ वर्ष तक राक्षस होने का श्राप मिला था। बारह वर्ष के बाद जब वह श्राप मुक्त हो गया तो वह अपनी पत्नी दमयंती से समागम करने लगा।
तब उस पतिव्रता को वह श्राप याद आ गया और उसने अपने पति को समागम से विरत कर दिया। तब वह उदास होकर वन में चला गया। उसने जप, तप, दान-व्रत किए किंतु ब्रह्महत्या से मुक्ति नहीं मिली। अंत में वह शिव भक्त गौतम की शरण में आया और उसने उन्हें गोकर्ण नामक शिव क्षेत्र में जाकर महाबलेश्वर लिंग की पूजा करने का परामर्श दिया। वहां उसने पूजा की और अंततः ब्रहम्त्या से मुक्त होकर शिवपद की प्राप्त किया।
नन्दिकेश्वर महादेव : कर्णिका नाम की एक नगरी रेवा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित थी। वहां एक कुलीन ब्राह्मण ने अपने पुत्रों को सारा धन सौंपकर काशी को प्रस्थान किया और वहीं स्वर्गवासी हो गया। उसकी पत्नी ने कुछ धन अपनी अंतिम क्रिया के लिए रखकर शेष अपने पुत्रों में बांट दिया। कुछ समय के बाद ब्राह्मणी का मृत्युकाल निकट आया तो बहुत दान-पूजा करने पर भी उसके प्राण नहीं निकल रहे थे। उसकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उसने कहा कि उसकी अस्थियां काशी में गंगा में विसर्जित की जाएं। पुत्रों के द्वारा आश्वासन पाने पर उसके प्राण निकल गए।
उसका- सुषाद नाम कां बड़ा “पुत्र अस्थियां लेकर काशी गया तो एक ब्राह्मण के यहां ठहरा। वहां उसने देखा कि जब रात को ब्राह्मा लौटा और उसने बछड़े को चुसवाकर खूंटे से बांध दिया और गाय दोहने लगा तो बछड़े ने उसका पैर कुचल दिया। ब्राह्मण ने बछड़े को पीटा तो उसने उछल-कूद बंद कर दी पर गाय दोह लेने के बाद उसने निर्दयता से बछड़े को पीटा। बछड़े की वेदना से दु:खी उसकी मां ने बछड़े को बताया कि वह प्रातःकाल प्रतिकार लेने के लिए ब्राह्मण को मार गिराएगी।
तब बछड़े ने अपनी माता को मना किया और कहा कि हम न जाने किस पाप का फल भोग रहे हैं और अब ऐसा कोई दुष्कर्म नहीं करना चाहिए जिससे आगे भी कष्ट हो और मुक्ति का मार्ग समाप्त हों जाए। गाय का क्रोध बहुत बढा हुआ था और उसे अपने बछड़े की चेतावनी भी ध्यान नहीं रही। उसने सोचा कि मैं प्रातःकाल होते ही अपने सींगों से दुष्ट ब्राह्मण को मारकर उसे विदीर्ण कर दूंगी और वह वहीं मर जाएगा। सुषाद ने गाय और बछड़े का यह संवाद सुना और इस घटना को देखने के लिए पीड़ा का बहाना बनाकर वहीं लेटा रहा।”
दूसरे दिन ब्राह्मण अपने पुत्र को गाय दुहने के लिए कहकर चला गया और ब्राह्मण का पुत्र अपनी मां के साथ जैसे ही गाय दुहने लगा तो गाय ने कठोर प्रहार से उसे मार डाला। घर में हाहाकार मच गया और ब्राह्मणी ने गाय को खूंटे से छोड़ दिया। व्रह्महत्या के पाप के कारण गाय का सफेद शरीर काला पड़ गया था। गाय अपने लक्ष्य की ओर चलने लगी और सुषाद भी उसके पीछे चला। गाय नर्मदा के तट पर नंदीश्वर महादेव के स्थान पर पहुंची और वहां उसने तीन गोते लगाए। उसका शरीर पुनः सफेद हो गया। नंदीश्वर के अनुग्रह और नर्मदा के महात्म्य से उसका पाप दूर हो गया।
उसी समय सुषाद के सामने गंगा ने एक स्त्री का रूप धारण करके अपनी माता की अस्थियों के विसर्जन के लिए कहा। उसने बताया कि आज का दिन बैशाख शुक्ल सप्तमी है और गंगा नर्मदा में निवास करती है। सुषाद ने वैसा ही किया तो उसकी माता ने दिव्य शरीर धारण कर उसे आशीर्वाद दिया। ऋषिका नामक एक विधवा कन्या ने शिवजी का पर्थिव पूजन किया तो एक मायावी दैत्य आकर उससे रति दान मांगने लगा।
वह कन्या शिवभक्त थी और उसकी काम-भावना नष्ट हो चुकी थी। वह एकाग्र चित्त से शिवजी के नाम का ही जाप करती रही। दैत्य ने इसे अपना अपमान समझा और दानव का रूप दिखाकर डराना चाहा तो कन्या ने शिवजी को पुकारा। शिवजी ने दुष्ट दैत्य का विनाश किया और कन्या से वर मांगने के लिए कहा। उस ब्राह्मण कन्या ने शिवजी की अचल भक्ति का वर मांगा और शिवजी से पार्थिव रूप में वहीं रहने के लिए प्रार्थना की। शिवजी ने अपना पार्थिव शरीर वहीं छोड़ दिया तथा अंतर्ध्यान हो गए। उसी दिन से यह स्थान नंदीकेश्वर महादेव के नाम से जाना जाने लगा।
अंधकेश्वर महादेव : समुद्र में निवास करने वाला अंधकासुर त्रिलोक को अपने वश में करने के बाद देवताओं को बहुत कष्ट देने लगा। तब देवताओं ने शिवजी की स्तुति की और उनकी शरण में आए। शिवजी ने देवताओं को उस पर चढ़ाई करने का आदेश दे दिया। शिवजी स्वयं अपने गणों को साथ लेकर अंधक के गर्त पर आए। अंधक भी भीषण युद्ध करते जैसे ही अपने गर्त पर आया वैसे ही शिवजी ने त्रिशूल से उसका विच्छेद कर दिया। अंधक ने भगवान शंकर की स्तुति की तो प्रसन्न होकर शंकर ने वर मांगने के लिए कहा। तब अंधक ने उनसे वहीं स्थित रहने के लिए वर मांगा और तभी से वहां का नाम अंधकेश्वर महादेव पड़ा।
हाटकेश्वर महादेव : एक समय दारुक वन के निवासी ऋषियों की परीक्षा के लिए शंकर अपने विकट रूप के साथ हाथ में ज्योतिर्लिंग धारण करके ऋषि पलिचा के पास पहुंचे और कामुक चें्टाएं करने लगे। जब ऋपि लोग लौटे तो इस अवधूत को बहुत बुरा-भला कहा। महादेव शांत रहे किंतु ऋषि उनकी वास्तविकता को नहीं समझ रके और उन्होंने लिंग के पृथ्वी पर गिरने का श्राप दे दिया। पृथ्वी पर गिरकर लिंग आग के समान जलने लगा और इधर-उधर घूमने लगा।
सारा लोक व्याकुल हो गया। ऋषि लोग ब्रहाजी वें पास गए और उनसे उपाय पूछा। ब्रहाजी ने कहा कि तुम देवी पार्वंती की अराधना करो। ऋषियों ने शास्त्र-विधि से शिव-पार्वती की भी पूजा की। शिवजी ने बताया कि यदि पार्वती उसे धारण करें तो आप लोगों का दुंख दूर हो सकता है। यही इस रूप में रथापित हाटकेश्वर महादेव कहलाया।
बटुकेश्वर महादेव : दधीचि ग्राहाण की पुत्रवधू बुरे स्वभाव की थी। इस कारण वह कहीं पर भी नहीं रुक पाते थे। एक समय दधीचि के बेटे सुदर्शन ने अपनी पत्नी दुकूला के साथ शिवरात्रि के दिन सहवास किया और बिना स्नान किए ही शिवपूजा की। शिवजी ने उसे जड़ होने का श्राप दे दिया। इस बात पर दु;खी होकर दधीचि ने पार्वती से प्रार्थना की जिससे प्रसन्न होकर भगवती ने उसे अपना पुत्र बना दिया। पार्वती के कहने पर शियजी ने अपने चारों पुत्रों को बटुक के रूप में चारों दिशाओं में अभिषिक्त कर दिया और यह कहा कि बिना बटुक की पूजा के शिय-भक्ति पूरी नहीं होगी।
मल्लिकार्जुन महादेव : अपने विवाह के लिए कार्तिकेय जब पृथ्वी की परिक्रमा करके कैलास लौटे तो उन्हे नारदजी के द्वारा गणेश के विवाह का पता चला। इस पर वे नाराज होकर और माता-पिता की बात न मानकर क्रौंच पर्यत पर चले गए। शंकर ने देवर्षियों को कुमार को समझाने के लिए भेजा, उस पर भी कुमार नहीं माने तब पार्वती के साथ स्वयं शिव बहां पर गए। किंतु अपने माता-पिता का आगमन सुनकर कुमार वहां से तीन योजन दूर चले गए। शिव-पार्वती को कुमार जब वहां नहीं मिले तो उन्होंने अन्य स्थानों पर जाने का विचार किया लेकिन वहां पहले एक ज्योति स्थापित कर दी। उसी दिन से मल्लिकार्जुन क्षेत्र के नाम वह मल्लिकार्जुन महादेव कहलाता है।
सोमेश्वर महादेव : दक्ष ने अपनी सत्ताईस पुत्रियों का चंद्रमा से विवाह कर दिया था। लेकिन चंद्रमा ने उनकी पुत्री रोहिणी के प्रति अधिक आसक्ति दिखाई। इस पर शेष छब्बीस स्वयं को अपमानित अनुभव करने लगीं। उन्होंने अपने पिता से पति की शिकायत की तो दक्ष ने अपने दामाद को समझाया लेकिन उसका प्रयास विफल हो गया। चन्द्रमा रोहिणी में ही अनुरक्त रहा। तब दक्ष ने चंद्रमा को क्षयी होने का श्राप दे दिया।
देवता लोग चंद्रमा के दुः से दुखी हुए और ब्रह्माजी से श्राप को समाप्त करने का उपाय पूछा। ब्रह्माजी ने महाशंकर की उपासना करना ही एकमात्र उपाय बताया। इस पर चंद्रमा ने छ: महीने तक शिवजी की पूजा की और शिवजी जब उसके सामने प्रकट हुए तो उन्होंने चंद्रमा को वरदान दिया कि वह प्रतिदिन एक पक्ष में एक-एक कला का हास भोगेगा और फिर दूसरे पक्ष में प्रतिदिन बढ़ता के लिए शंकर अपने विकट रूप के साथ हाथ में ज्योतिर्लिंग धारण करके ऋषि पलिचि के पास पहुंचे और कामुक चेष्टाएं करने लगे।
जब ऋपि लोग लीटे तो इस अवधूत को बहुत बुरा-भला कहा। महादेव शांत रहे किंतु ऋवि उनकी वास्तविकता को नहीं समझ सके और उन्होंने लिंग के पृथ्यी पर गिरने का श्राप दे दिया। पृथ्वी पर गिरकर लिंग आग के समान जलने लगा और इधर-उधर घूमने लगा। सारा लोक व्याकुल हो गया। ऋषि लोग बहाजी वें पास गए और उनसे उपाय पूछा। बहाजी ने कहा कि तुम देवी पार्यंती की अराधना करो। ऋषियों ने शास्त्र-विधि से शिव-पार्वती की भी पूजा की। शिवजी ने बताया कि यदि पार्वती उसे धारण करें तो आप लोगों का दु:ख दूर हो सकता है। यही इस रूप में रथापित हाटकेश्वर महादेव कहलाया।
बटुकेश्वर महादेव : दधीचि ब्राहाण की पुत्रवधू दुरे स्वभाव की थी। इस कारण वह कहीं पर भी नहीं रुक पाते थे। एक समय दधीचि के बेटे सुदर्शन ने अपनी पत्नी दुकूला के साथ शिवरात्रि के दिन सहवास किया और बिना स्नान किए ही शिवपूजा की। शिवजी ने उसे जड़ होने का श्राप दे दिया। इस बात पर दुःखी होकर दधीचि ने पार्वती से प्रार्थना की जिससे प्रसन्न होकर भगवती ने उसे अपना पुत्र बना दिया। पार्वती के कहने पर शियजी ने अपने चारों पुत्रों को बटुक के रूप में चारों दिशाओं में अभिषिक्त कर दिया और यह कहा कि बिना बटुक की पूजा के शिय-भक्ति पूरी नहीं होगी।
मल्लिकार्जुन महादेव : अपने विवाह के लिए कार्तिकेय जब पृथ्वी की परिक्रमा करके कैलास लौटे तो उन्हे नारदजी के द्वारा गणेश के विवाह का पता चला। इस पर वे नाराज होकर और माता-पिता की बात न मानकर क्राँच पर्वत पर चले गए। शंकर ने देवर्षियों को कुमार को समझाने के लिए भेजा, उस पर भी कुमार नहीं माने तब पार्वती के साथ स्वयं शिव बहां पर गए। किंतु अपने माता-पिता का आगमन सुनकर कुमार वहां से तीन योजन दूर चले गए। शिव-पार्वती को कुमार जब वहां नहीं मिले तो उन्हों ने अन्य स्थानों पर जाने का विचार किया लेकिन वहां पहले एक ज्योति स्थापित कर दी। उसी दिन से मल्लिकार्जुन क्षेत्र के नाम वह मल्लिकार्जुन महादेव कहलाता है।
सोमेश्वर महादेव : दक्ष ने अपनी सत्ताईस पुत्रियों का चंद्रमा से विवाह कर दिया था। लेकिन चंद्रमा ने उनकी पुत्री रोहिणी के प्रति अधिक आसक्ति दिखाई। इस पर शेष छब्बीस स्वयं को अपमानित अनुभव करने लगीं। उन्होंने अपने पिता से पति की शिकायत की तो दक्ष ने अपने दामाद को समझाया लेकिन उसका प्रयास विफल हो गया। चन्द्रमा रोहिणी में ही अनुरक्त रहा। तब दक्ष ने चंद्रमा को क्षयी होने का श्राप दे दिया।
देवता लोग चंद्रमा के दुः से दुखी हुए और ब्रहाजी से श्राप को समाप्त करने का उपाय पूछा। ब्रह्माजी ने महाशंकर की उपासना करना ही एकमात्र उपाय बताया। इस पर चंद्रमा ने छ: महीने तक शिवजी की पूजा की और शिवजी जब उसके सामने प्रकट हुए तो उन्होंने चंद्रमा को वरदान दिया कि वह प्रतिदिन एक पक्ष में एक-एक कला का हास भोगेगा और फिर दूसरे पक्ष में प्रतिदिन बढ़ता जाएगा। देवताओं पर प्रसन्न होकर उस क्षेत्र में उसकी महिमा का बढ़ाने के लिए सामश्वर नाम से चंद्रमा ने सोमेश्वर शिव की रथापना की और शिवजी भी वहां सोमश्वर नाम सें रथापित हुए।
ओंकारेश्वर महादेव : एक बार नारदजी ने गोकर्ण तीर्थ में शिवजी की पूजा की और फिर विंध्याचल पर्वत पर आकर भी श्रद्धापूर्वंक शिवजी की आराधना करने लगे। इसपर गर्व से भरकर विध्याचल नारदजी के पास आया और अपने को सर्वश्रेष्ठ कहने लगा। नारदजी ने कहा कि सुमेरु के सामने तुम्हारी कोई गणना नहीं।
सुमेरु की गिनती देवताओं में की जाती है। यह सुनकर विंध्य भगवान शिवजी की शरण में गया और उसने ओंकार नामक शिव की पार्थिव मूर्ति बनाई तथा उसकी पूजा की। शिवजी प्रसन्न हो गए और वर मांगने के लिए कहा। विध्य ने अपनी बुद्धि से मनोकामनाओं को पूरा करने का वर मांगा तो शिवजी ने सोचा कि यह दूसरों के लिए दुःद भी हो सकता है। तब उन्होंने विचार किया कि यह वरदान दूसरों के लिए भी सुखद हो। यह सोचकर वे स्वयं वहां ओंकारेश्वर के रूप में स्थित हो गए।
केदारेश्वर महादेव : बद्रिका गांव में जब नर-नारायण पार्थिव पूजा करने लगे तो शिवजी वहां प्रकट हुए। कुछ समय के बाद शिवजी ने प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने के लिए कहा तो नर-नारायण ने लोक-कल्याण की भावना से उनसे स्वय अपने रूप से पूजा के कारण उस स्थान पर हमेशा रहने की प्रार्थना की। इन दोनों की इस प्रार्थना पर हिमाश्रित केदार नामक स्थान में साक्षात् महेश्वर ज्योति रूप से स्थित हो गए और वहां का नाम केदारेश्वर पड़ा।
महाकालेश्वर महादेव : महाकालेश्वर की महिमा बहुत अधिक है। अवंति वासी एक ब्राहाण के चार पुत्र शिव के उपासक थे। ब्रहा से दैत्यराज दूषण ने वर प्राप्त करके अवति में जाकर वहां के ब्राह्मणों को बहुत दु:ख दिया। लेकिन शिवजी की उपासना में लीन इस ब्राह्मण ने जरा भी दुः नहीं माना। तब दैत्यराज ने अपने चार अनुचर भेजकर नगरी को घिरवा दिया और धर्मानुष्ठान न करने का आदेश दिया। दैत्य के अत्याचार से पीड़ित होकर प्रजा ब्राह्मणों के पास आई।
ब्राह्मणों ने प्रजा को तो धैर्य बंधाया और स्वयं शिवजी की उपासना में लीन हो गए। इसी समय जब दूषण दैत्य उन ब्राह्मणों पर आक्रमण करने के लिए तत्पर हुआ तो वैसे ही पार्थिव मूर्ति के स्थान पर एक भयानक शब्द हुआ और साथ ही धरती फटी। शिवजी ने विराट् महाकाल के रूप में स्वयं को प्रकट करके उस दुष्ट दैत्य को ब्राहमणों के पास न आने का आदेश दिया। पर उसने वह आज्ञा नहीं मानी। फलस्वरूप शिवजी ने उसे वहीं भस्म कर दिया। शिवजी के इस रूप को देखकर ब्रह्मा. विष्णु और इन्द्र आदि देवताओं ने उनकी स्तुति की।
इस संदर्भ में एक कथा और भी है-उज्जयिनी नरेश चद्रसेन शस्त्र का ज्ञाता होने के साथ-साथ शिवभक्त भी था। उसके मित्र महेश्वरजी के गण मणिभद्र ने उसे एक चिंतामणि प्रदान की थी। जब चन्द्रसेन उस मणि को धारण करता तो अत्यंत तेजस्वी हो जाता। कुछ राजाओं ने उससे यह मणि मांगी और न देने पर उसपर चढ़ाई कर दी। अपनी रक्षा का कोई और उपाय न देखकर वह महाकाल की शरण में गया।
शिवजी ने प्रसन्न होकर उसकी रक्षा का उपाय किया। तभी अपने बालक को गोद में लिए हुए एक ब्राह्यणी घूमती हुई महाकाल के पास पहुंची तो वह विधवा हो गई। अनजान बालक ने महाकालेश्वर मंदिर में राजा को शिव की पूजा करते हुए देखा तो उसमें भी भक्ति-भाव जागृत हो गया। उसने एक रमणीय पत्थर घर लाकर शिव रूप में स्थापित किया और उसकी पूजा करने लगा। वह ध्यान में इतना लीन हो गया कि माता के बार-बार बुलाने पर भी उसका यान नहीं टूटा।
इस पर शिव माया में विमोहित माता ने शिवलिंग को उठाकर दूर फेंक दिया। पुत्र माता के इस कर्म पर भी शिवजी का स्मरण करता रहा। शिवर्जी की कृपा से गोपी पुत्र पूजित वह पत्थर ज्योतिर्लिंग के रूप में आविर्भूत हुआ। शिवजी की पूजा करके जब वह बालक अपने घर गया तो उसने देखा कि उसकी कुटिया के स्थान पर एक विशाल भवन खड़ा है। इस तरह वह शिवजी की कृपा से धनधान्य से संपन्न हो गया।
दूसरी ओर चंद्रसेन के विरोधी राजाओं ने अभियान प्रारंभ करते हुए यह जान लिया था कि उज्जयिनी महाकाल की नगरी है और चंद्रसेन शिवभक्त है तो उसको जीतने का विचार छोड़कर सबने मिलकर महाकाल की पूजा की। वहीं पर हनुमानजी भी प्रकट हुए और उन्होंने बताया कि शिवजी तो बिना मंत्र के भी प्रसन्न हो जाते हैं।
भीमेश्वर महादेव : भीम नाम का एक बड़ा ही भयंकर राक्षस था। उसके माता-पिता का नाम कर्कटी और कुभकर्ण था। उसका पिता रावण का भाई था. यह बात भीम को अपनी माता से ज्ञात हुई। और यह भी मालूम हुआ कि उसे रामचंद्रजी ने मार दिया था। माता ने यह भी बताया कि मैंने अभी लंका नहीं देखी. तुम्हारा पिता मुझे यहीं मिला था और जब से तुम पैदा हुए हो तब से में यहीं रह रही हूं।
यह मेरा घर ही मेरा सहारा है क्योंकि मेरे माता-पिता भी अगस्त्य मुनि के क्रोध से भर्म हो गए। यह सुनकर वह देवताओं से बदला लेने के लिए तत्पर हुआ और कठोर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। ब्रह्माजी ने उसे अतुल बलशाली होने का वरदान दिया। भीम ने इन्द्र आदि देवताओं को जीतकर अपने वश में कर लिया। इसके बाद उसने शिवजी के महान् भक्त कामरूपेश्वर का सब कुछ हरकर उसे जेल में डाल दिया। कामरूपेश्वर वहां भी शिवजी की पूजा किया करता था। उसकी पत्नी भी शिव की आराधना में लगी रहती थी।
इधर ब्रह्मा, विष्णु आदि भीम से छुटकारा पाने के लिए भगवान शंकर की सेवा में गए। दूसरी ओर किसीने भीम से कहा कि कामरूपेश्वर उसके मरण का अनुष्ठान कर रहा है। तब राजा जेल में गया और पूछताछ की। राजा कामरूपेश्वर ने सब कुछ सच-सच बताया। यह सुनकर भीम ने उससे अपनी पूजा करने के लिए कहा तथा उसने अपनी तलवार से शिवजी के पार्थिव लिंग पर प्रहार करना चाहा। तभी शिवजी प्रकट हो गए। फिर दोनों में युद्ध हुआ। अंत में वहां नारदजी आए जिनके कहने पर शिवजी ने फूंके मारकर उस दैत्य को भस्म कर दिया। देवताओं ने शिवजी से वहीं पर निवास करने की प्रार्थना की और शिवजी भीमेश्वर नामक ज्योतिर्लिग के रूप में वहां र्रित हो गए।
वैद्यनाथ महादेव : रावण ने कैलास पर्वत पर घोर तप करके शिवजी को प्रसन्न करने के लिए सभी प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं को सहा। लकिन जब शिवजी प्रसन्न नहीं हुए तो रावण ने अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने आरम्भ कर दिए। जब वह अपने नौ सिर चढ़ा चुका और दसवां काटने लगा तब शिवजी प्रकट हुए और उसके सारे सिरों को पूर्ववत् करके वर मांगने के लिए कहा। रावण ने उनसे लंका चलने के लिए कहा।
शंकर ने अनिच्छा से भी इसे स्वीकार कर लिया। शंकर ने कहा कि तुम मेरे लिंग को भक्ति सहित घर ले जाओ, लेकिन यदि बीच में कहीं भी रक्खोगे तो यह स्थिर हो जाएगा। रावण शिवलिंग को लेकर चला और मार्म में लघुशंका के कारण उसने एक गोप को वह लिंग दे दिया। गोप उसके भार को न संभाल सका, वह वहीं गिर गया। तब से शिवजी वैद्यनाथ महादेव के रूप में वहीं स्थित हैं।
नागेश्वर महादेव : पश्चिमी समुद्र तट पर लगभग सोलह योजन के विस्तार में एक वन था। इसमें दारुक और दारुका रहते थे। उन्होंने बहुत उत्पात मचाया हुआ था जिससे तंग आकर मुनि लोग और्व मुनि की शरण में आए। उन्होंने दैत्यों को नष्ट हो जाने का श्राप दिया। देवताओं ने दैत्यों पर आक्रमण किया। दैत्य घबराए तो लेकिन दारुका के पास पार्वती के द्वारा दी गई शक्ति थी जिसके बल पर वह उस वन को आकाश मार्ग से उड़ाकर समुद्र के बीच में ले आया और वहां निश्चित होकर रहने लगा।
वे नौका से समुद्र के चारों तरफ जाकर लोगों को बंदी बनाकर ले आते थे। एक बार इनमें एक सुप्रिय नाम का शिवभक्त भी था। वह शिव-पूजन के बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करता था। उसने जेल में भी शिवजी की पूजा प्रारंभ की। जब उसके इस कार्य का पता राक्षस को चला तो उसने उसे मारने की धमकी दी। सुपिय ने भगवान शिव की प्रार्थना की और शिवजी ने एक क्षण में प्रकट होकर राक्षसों को मार डाला। और तब उस वन को चारों लोक वर्णों के लिए खोल दिया। लेकिन दारुका को पार्वती ने जो वरदान दे रक्खा था उसके कारण उस युग के अंत में राक्षसी सृष्टि होने और दारुका के शासिका बनने की बात स्वीकार की। और नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में शिवजी वहां पर सथापित हुए।
रामेश्वर महादेवः एक बार भगवान राम सीताजी को खोजते-खोजते सुग्रीव से मित्रता के सूत्र में बंध गए और हनुमानजी के द्वारा उन्हें सीताजी का पता चल गया। राम ने रावण पर आक्रमण करने के लिए वानर सेना को संगठित किया और दक्षिण के समुद्र तट पर पहुंचे। उनके सामने समुद्र को पार करने की समस्गा थी। शिवभक्त रामचंद्र को सुग्रीव आदि ने बहुत समझाया किंतु वे रावण की शिवभक्ति को जानते थे।
इसी बीच में उन्हें प्यास लगी और जैसे ही उन्होंने जल मांगा और पीने लगे वैसे ही उन्हें शिव की पूजा न करने की याद हो आई। तब उन्होंने शिवजी का पार्थिव लिंग बनाकर षोडशोपचार से उसकी पूजा प्रारंभ की। शिवजी प्रसन्न हो गए और प्रकट होकर वर मांगने के लिए कहा। तब राम ने उनसे वहीं स्थित होने का वर मांगा। शिवजी ने ‘एवमस्तु’ कहा और वहीं रामेश्वर महादेव के रूप में स्थित हो गए।
घूश्मेश्वर महादेव : अपनी सुंदर पत्नी सुदेहा के साथ भरद्वाज गोत्र वाला सुधमा नाम का एक वेदज्ञ ब्राह्मण दक्षिण दिशा में रिथत देव पवंत पर रहता था। उसके कोई संतान नहीं थी, इस कारण अपने पड़ोसियों से व्यंग्य-वाक्य सुनने पड़ते थे। लेकिन सुधर्मा उस पर ध्यान नहीं देता था। पर सुदेहा ने उसे दूसरे विवाह के लिए विवश कर दिया और अपनी बहन घूश्मा को युलाकर अपने पति से विवाह करा दिया और यह भी कहा कि वह किसी प्रकार का द्वेष नहीं रक्खेगी। समय आने पर घूश्मा के पुत्र उत्पन्न हुआ और उसका विवाह हुआ। यद्यपि सुधर्मा और घूश्मा दोनों ही सुदेहा का बहुत ध्यान रखते थे। फिर भी उसके मन में ईर्ष्या का भाव यहां तक पैदा हो गया कि उसने एक दिन उस युवक की हत्या करके पास के तालाब में फेंक दिया।
सुधर्मा के बुढ़ापे पर वज्ञ गिर पड़ा। लेकिन घूश्मा ने शिवजी का पूजन नहीं छोड़ा। उसने तालाब पर जाकर सौ शिवलिंग बनाए और उनकी पूजा करने लगी। जब वह उनका विसर्जन करके घर की ओर चलने लगी तो उसे अपना पुत्र तालाब पर खड़ा मिला। और शिवजी ने प्रकट होकर सुदेहा के पाप की बात बताई। तथा उसे मारने के लिए उद्यत हुए घूश्मा ने शिवजी की स्तुति करके उन्हें इस कर्म से रोका और उनसे प्रार्थना की कि यदि वे उससे प्रसन्न हैं तो वे यहीं रहें। शिवजी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और घूश्मेश्वर नाम से वहां स्थित हो गए।
विश्वेश्वर महादेव : पुरातन काल में निर्विकार तथा चैतन्य ब्रहम ने सबसे पहले निर्गुण से सगुण शिव रूप धारण किए। प्रकृति और पुरुष (शक्ति और शिव) को शिव ने उत्तम सृष्टि के लिए तप का आदेश दिया। जब उन्होंने एक अच्छे स्थान के विषय में पूछा तो शिव ने अपनी प्रेरणा से संपूर्ण तेज से सपन्न पंचक्रोशी नाम की नगरी का निर्माण किया। वहां विष्णुजी ने बहुत काल तक शिवजी की आराधना की। इससे वहां अनेक जलधाराएं प्रकट हो गई। इस अदभुत दृश्य को देखकर जब विष्णुजी आश्चर्यचकित हुए तो उनके कान से एक मणि वहां गिर गई जिससे उस जगह का नाम मणिकर्णिका तीर्थ पड़ गया। मणिकर्णिका के पांच कोस के विस्तार तक सारे जल को शिवजी ने अपने त्रिशूल पर धारण किया और उसमें विष्णु अपनी पत्नी सहित सो गए।
तब शिवजी की आज्ञा से इस सृष्टि का निर्माण किया। शिव ने पंचक्रोशी नगरी को सबसे अलग रखा और अपने ज्योतिलिंग को स्वयं रथापित किया। फिर शिवजी ने उसे वहां से उतारकर मृत्युलोक में रथापित कर दिया जो ब्रहा का पूरा दिन होने पर भी नष्ट नहीं होता। यह स्थापना काशी में हुई। प्रलय काल में शिवजी उसे फिर अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं। इस प्रकार काशी में अविमुक्तेश्वर लिंग सदा स्थिर रहता है और महा पुण्य देने वाली पंचक्रोशी नगरी घोरतम पापों को भी नष्ट करने वाली है। भगवान शंकर ने पार्वती सहित भीतर से सत्वगुणी ओर बाहर से तमोगुणी इस नगरी को अपना स्थायी निवास बनाया।
तीन प्रकार के कर्म कहे गये हैं जो कर्मकांड के बंधन में डालने वाले हैं।
- संचित-पहले जन्म में किए गए शुभ और अशुभ कर्म।
- क्रियमाण-वर्तमान जन्म में किए जा रहे कर्म।
- प्रारब्ध-शरीर के फलस्वरूप भोगे जाने वाले कमे।
प्रारध्ध कम का विनाश एकमात्र भोग से और संचित तथा क्रियमाण का विलाम पूजन से होता है। काशी में जाकर स्नान करने से और प्राण त्यागने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
त्रम्बकेश्वर महादेव : दक्षिण ब्रह्म पर्वंत पर अहिल्या के पति गौतम तप करते थें। सौ वर्ष तक वहां पर पानी नहीं बरसा तो पृथ्वी का नीलापन समाप्त हो गया। वहां के प्राणी सूख से परेशान होकर इधर-उधर जाने लगे। इतनी घोर अनावृष्टि हुई कि गौतमजी ने छ: महीने तक प्राणायाम के द्वारा मांगलिक तप किया।
इससे वरुण देवता प्रसन्न हुए और गौतम ने जल का वरदान मांगा। वरुण देव के कहने पर गौतम ने एक गड़ढा खोदा और वहां पानी भर आया। वरुण ने कहा कि हे गोतम! तुम्हारे प्रताप से यह गड़ढा हमेशा जल से भरा रहेगा तथा तुम्हारे नाम से इसकी प्रसिद्धि होगी। यही स्थान हवन. तप, यज्ञ, दान करने वाले लोगों को फल देगा। इस जल के कारण ऋषियों को आनंद हुआ और पृथ्वी हरी-भरी हो गई।
इस बार गौतम के शिष्य वहा जल लने के लिए गए तो अन्य मुनियों की पत्नियां भी जल लेने के लिए आयी हुई थी और वे पहले जल लेने का हठ करने लगीं। गौतम के शिष्य गौतम की पत्नी का बुलाकर लाए और उन्होंने शिष्यों को ही पहले जल लेने की व्यवस्था की। मुनि-पत्नियों ने इस बात को अपने पतियों से बढ़ा चढ़ाकर कहा। तब मुनियों ने गोतम से बदला लेने के लिए गणेशजी की पूजा की। गणेशजी के प्रकट होने पर उन्होंने वर देने के लिए कहा।
इस पर ऋषियों ने वर मांगा कि गौतम को अपमानित करके वहा से निकालने की शक्ति प्रदान की जाए। इस पर गणेशजी ने अनुरोध किया कि ऐसे मुनि के साथ द्वेष रखना ठीक नही है जिसने अपनी तपस्या से इस प्रदेश में जल की व्यवर्था की। लेकिन जब मुनियों ने बहुत हठ किया तो गणेशजी ने उनकी बात मान ली लकिन उन्हें चेतावनी दी कि इसके परिणाम ठीक नहीं होंगे। इसके कछ दिन बाद जब गौतमजी उधर गए तो उन्होंने एक दुबली-पतली गाय देखी। और जैसे हो उसे हटाने के लिए एक पतली छड़ी उस पर मारी, वह वहीं मर गई। मुनियों ने गौतम पर गौहत्या का पाप चढ़ाकर उन्हें अपमानित किया और उन्हें वहां से जाने के लिए कहा। गौतम दुखखी होकर वहां से चले गए।
गौतम ने गौहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए तप किया. गगाजी में स्नान किया और करोड़ों की संख्या में पार्थिव लिंग बनाकर शिवजी की पूजा की। शिवर्जी ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए और कहा कि तुम तो शुद्ध आत्मा सं ऋषि हो तुमने कोई पाप नहीं किया। जब शिवजी ने गौतम से वर मागने के लिए कहा तो गौतम ने शिवजी से उन्हें गंगा देकर संसार का उपकार करने का वर मागा। शिव ने गंगा का तत्त्व रूप जल मुनि को दिया।
गौतम ने गंगा से अपने को गोहत्या से मुक्त कराने की प्रार्थना की। गंगा ने सोचा कि वह गौतम को पवित्र करके स्वर्गलोक को चली जाएगी। लेकिन शिवजी ने उनसे कहा कि जब तक कलियुग है तब तक तुम धरती पर ही निवास करो। इस पर गंगा ने भी उनसे कहा कि फिर आप भी पार्वती सहित पृथ्वी पर रहो। गंगाजी ने शिवजी से पूछा कि संसार को उसकी महत्ता का पता कैसे चलेगा। इस पर मुनियों ने कहा कि जब तक वृहस्पत्ति सिंह राशि में स्थित रहेंगे तब तक हम तुम्हारे किनारे रहकर और स्नान करके शिवजी के दर्शन करते रहेंगे और हमारे पाप छूट जाएंगे।
इस बात को सुनकर गंगा गोमती नाम से और शिवलिंग त्रंबक नाम से वहीं पर र्थित हुए। गंगा-द्वारका का नाम इसलिए पड़ा कि गौतमजी ने यहां सबसे पहले स्नान किया और जब दूसरे मुनि स्नान करने के लिए आए तो गंगा अदृश्य हो गईं। गौतम ने उनसे प्रार्थना की लेकिन उन्होंने कृतहन ऋषियों को दर्शन देने से इनकार कर दिया। गौतम ने फिर प्रार्थना की तब उन्होंने कहा कि इस पर्वत की सौ बार परिक्रमा करने पर ही दर्शन देंगी।
मुनियों ने वैसा किया और गौतम से भी क्षमा-याचना की। (पुराकथाओं में यह भी वर्णन मिलता है कि गौतम ने उन ऋषियों को शाप दिया था और वे कांचीपुरी में जाकर रहने लगे तथा शिवभक्त नहीं रहे। उनकी संतान भी शिवभक्ति से रहित हो गई। और वे दानव जैसा व्यवहार करने लगे। किंतु फिर गंगाजी इस सथान पर आई और उसमें रनान करके ही उनका कल्याण हुआ ।)
हरीश्वर महादेव : पुराने समय में जब राक्षस लोग देवताओं को बहुत कष्ट देने लगे और धर्म का हास हुआ तो देवता विष्णुजी के पास गए। विष्णुजी ने देवताओं से कहा कि शिवजी की आराधना करने से प्राप्त शक्ति से ही दैत्यों का संहार हो सकता है। विष्णुजी कैलास पर जाकर शिवजी की भक्ति करने लगे। उन्होंने मानसरोवर से उत्पन्न कमलों से शिव की पूजा की और सहर्तनामों से पाठ करते हुए एक-एक नाम मंत्र का उच्चारण करके एक-एक कमल शिवजी पर चढ़ाने लगे।
विष्णु की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ने सहस्त्र कमलों में से एक कमल को छिपा लिया। विष्णु ने उसे सब जगह ढूढ़ा और अंत में हारकर अपना एक नेत्र कमल के रूप में चढ़ाने लगे। तत्काल ही शिवजी प्रकट हुए और विष्णुजी ने यह वरदान मांगा कि शिव दैत्यों की शक्ति का हास करें। इस पर महादेव ने विष्णु को अपना सुदर्शन चक्र दिया जिसके प्रभाव से बिना किसी परिश्रम के विष्णुजी ने दैत्यों को पराजित कर दिया।
व्याघ्चेश्वर महादेव : शिवजी को प्रसन्न करने वाले अनेक वृत्तों में शिवरात्रि का व्रत सबसे महत्त्वपूर्ण है। इस व्रत को संपन्न करने के लिए सबेरे उठकर अपने नित्य-कर्म से निवृत्त होकर शिवालय में जाकर शिवजी की पूजा करनी चाहिए। इसके साथ ज्योतिर्लिंग को सुंदर स्थान पर स्थापित करके सभी सामग्री सहित पूजा करनी चाहिए। ‘ॐ नमः शिवाय’ का जाप कर गीत-संगीत के साथ तीन बार आचमन करना चाहिए।
रात्रि जागरण, प्रार्थना करते हुए व्रत समाप्त करना चाहिए। शिवजी की उपासना करते हुए कहना चाहिए कि हे महाशंकर! आप इस व्रत से संतुष्ट हों और हम पर कृपा करें। फिर अपनी शक्ति अनुसार दान आदि करके शिवलिंग का विसर्जन करने के बाद भोजन करना चाहिए। इसके लिए एक कथा इस प्रकार है कि गुरुदुह्य नाम का एक पापी निषाद
नित्य वन में जाकर चोरी आदि करता हुआ अनेक दुष्कम करता था। एक बार शिवरात्रि के दिन वह अपनी गर्भवती पत्नी के साथ भोजन की खोजे में निकला किंतु उसे कुछ नहीं मिला। वह निराश होकर एक तालाब के पास बेल के पेड़ की आड़ में इस आशा में बैठ गया कि यदि कोई पशु पानी पीने के लिए आए तो वह उसे मारकर खा जाए। रात्रि के पहले प्रहर में एक हिरणी पानी पीने आई तो उस भील ने अपने धनुष पर बाण चढ़ाया और जैसे ही उसने ऐसा किया।
उस बेल के पेड़ से कुछ फल और जल के कण नीचे शिवजी के ज्योतिर्लिंग पर गिर गए और उससे शिवजी का पूजन हो गया। मृगी ने दुः वाणी में कहा कि मुझे थोड़ी देर के लिए बच्चों की व्यवस्था करने के लिए जाने दो। मैं फिर आ जाऊंगी। निषाद ने उसे जाने दिया और उसकी प्रतीक्षा में उसका एक पहर जागते हुए बीत गया। दूसरे पहर में उस मृगी को ढूंढ़ती हुई उसकी बहन उसी तालाब पर आई तो निषाद ने फिर वैसा ही किया और उससे फिर फल तथा जल ज्योतिर्लिंग पर गिरे और शिवजी की पूजा हो गई। मृगी की बहन भी कुछ समय मांगकर चली गई।
निषाद ने उसे भी जाने दिया। तीसरे पहर उन दोनों को ढूंढ़ता हुआ एक हृष्ट-पुष्ट मृग वहां आया और फिर उसको मारने की कोशिश में उसी तरह से फूल और जल गिरे और शिवजी का तीसरे पहर का पूजन हो गया। मृग ने भी बहुत करुण वाणी में निषाद से अपने बच्चों की व्यवस्था करने के लिए समय मांगा और लौट आने का विश्वास दिलाया। उसकी प्रतीक्षा में निषाद का चौथे पहर का जागरण भी हो गया।
घर पहुंचकर तीनों ने एक-दूसरे को अपनी कहानी सुनाई और मृगी को बच्चों का भार सौंपकर स्वयं मृग ने निषाद के पास आने का विचार किया। मृगियों ने वैधव्य को बहुत बुरा बताते हुए साथ चलने का आग्रह किया और इसके बाद बच्चे भी माता-पिता के साथ वहां पहुंच गए। चौथे पहर में जब निषाद ने धनुष पर बाण चढ़ाया तो उसी प्रकार जल और पत्र-पुष्प शिवजी पर चढ़ने से चतुर्थ पहर की पूजा हो गई।
इससे निषाद का पाप नष्ट हो गया और उसने ज्ञान का अनुभव किया। उसने मृग-मृगियों को वचनबद्धता की भावना के कारण मुक्त कर दिया। निषाद के इस कर्म से प्रसन्न होकर शिवजी प्रकट हुए और उससे वर मांगने के लिए कहा। निषाद ने उनसे वर मांगा कि वह वहीं पर निवास करें। शिवजी ने ‘तथास्तु’ कहा और व्याघ्रेश्वर नाम से वहां स्थिर हो गए।
इस प्रकार शिवजी के ये ज्योतिर्लिंग विभिन्न रूपों में विभिन्न स्थानों में विद्यमान हैं। शिवरात्रि का अनुपम महत्त्व है। यह श्रद्धालु भक्त को मनवांछित फल देता है। इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि शिवरात्रि के सारे दिन और सारी रात जागकर शिव पूजन करना चाहिए। सूतजी ने बतलाया कि इस दिव्य चरित्र को सुनकर सारी व्याधियां दूर हो जाती हैं ओर सिद्धियां प्राप्त होती हैं।