Shiv Puran in Hindi serves as a guide for those on the path of spiritual enlightenment.
Shiv Puran in Hindi – शतरुद्र संहिता
शौनकजी ने सूतजी से कहा-आपने मुझे शिवजी के विवाह और युद्ध-संबंधी अनेक सुंदर आखख्यान सुनाए। अब आप भगवान शंकर के अवतारों की गाथा सुनाने की कृपा करें। सूतजी ने कहा कि इसी रहस्यपूर्ण कथा को सुनने के लिए सनत्कुमारजी ने नंदीश्वरजी से प्रार्थना की थी। जो कुछ उन्होंने सुनाया, तुम्हें सुनाता हूं। आप अत्यंत ध्यानपूर्वक सुनें। नंदीश्वरजी + कहा कि श्वेतलोहित नाम के उन्नीसवें कल्प में शिवजी का पहला सद्योजात नाम का अवतार हुआ।
उस समय परब्रहम का ध्यान करते हुए श्वेतलोहित नामक कुमार ब्रह्माजी की शिखा से निकले। ब्रह्माजी उन्हें सद्योजात शिव जानकर उन्हें प्रसन्न करने के लिए बार-बार उनका चिंतन करने लगे। उनके चिंतन से नंदन, सुनंदन, विश्वनंदन, उपनंदन नाम के अनेक कुमार उत्पन्न हुए। उसके बाद ब्रह्माजी को सृष्टि उत्पन्न करने की शक्ति सद्योजात के द्वारा प्रदान की गई।
ब्रह्याजी रक्त नाम के बीसवें कल्प में रक्तवर्ण के हो गए। फिर उन्हीं के समान रक्त वाला नेत्र लेकर रक्तवर्ण के एक कामदेव नाम का पुत्र पैदा हुआ। उसे साक्षत् शिव जानकर ब्रह्माजी ने उसकी स्तुति की। उस रक्त दर्ण बालक से विवाह, विशोक. विरज और विश्वभावन नाम के चार पुत्र उत्पन्न हुए। तभी कामदेव शिव ने ब्रह्माजी को सृष्टि रचना की आज्ञा दी।
ब्रह्माजी पीतवास नाम के इक्कीसवें कल्प में पीत वर्ण के हो गए। उन्होंने पीले वस्त्र धारण किए। जब उन्होंने एक पुत्र की कामना की तो बहुत बड़ी भुजाओं वाला महा तेजस्वी, तत्पुरुष नाम का एक कुमार पैदा हुआ। ब्रह्माजी ने उसे शिवजी का अवतार समझा। वह शिव गायत्री का जाप करने लगा। उसके पास से बहुत से कुमार प्रकट हुए और उस कुमार ने सृष्टि-रचना की सामर्थ्य ब्रह्माजी को प्रदान की।
इसके बाद शिव नाम के बाईसवें कल्प में ब्रहाजी ने पुत्र की कामना से तप किया और एक काले वर्ण का अत्यंत तेजस्वी अघोर बालक पैदा हुआ। ब्रह्माजी ने उसकी भी बहुत स्तुति की और उस बालक के पास से कृष्ण. कृष्ण रूप, कृष्ण शिख, और कृष्ण कंठधारी चार महात्मा उत्पन्न हुए।
उन्होंने ब्रह्माजी को सृष्टि की रचना के लिए अद्भुत घोर नामक योग दिया। विश्वरूप नाम के तेईसवें कल्प में ब्रह्माजी के चिंतन से सरस्वती का आविर्भाव हुआ और उसी रूप में ईशान नाम के बालक का प्रादुर्भाव हुआ। फिर उस ईश्वर रूप से अपनी शक्ति से मुंडी, जटी. शिखंडी और अर्घमंडी चार बालकों की उत्पत्ति हुई। उन्होंने सृष्टि उत्पन्न करने के लिए ब्रह्माजी को आदेश दिया। सनत्कुमारजी के अनुरोध पर नंदीश्वर ने शिवजी की अष्ट मूर्तियों का भी परिचय दिया। और यह भी बताया कि अष्टमूत्तियां किन विशिष्टताओं के कारण विश्वविख्यात हैं।
शर्व-भगवान शंकर विश्वंभर रूप मे चराचर विश्व को पृथ्वी रूप से धारण करने के कारण सर्व अथवा शर्व कहलाते हैं। भव-विश्व को जलमय रूप और जगत को संजीवन देनेवाला जलमय रूप ही भव कहलाता है। उग्र-जगत को बाहर और भीतर रहकर धारण कर उसे स्पंदित करने वाला शिव का उग्र रूप ही उग्र कहलाता है। भीम-शिवजी जब सबको अवकाश देने वाले नृपों के समूह के भेदक रूप में सर्वव्यापक और आकाशात्मक होते हैं तो भीम कहलाते हैं।
पशुपति-संपूर्ण आत्माओं के अधिष्ठाता और सारे क्षेत्रवासी पशुओं को काटने वाले शिव को पशुपति कहा जाता है। ईशान-आकाश में सूर्य रूप में व्याप्त संपूर्ण संसार में प्रकाश करने वाला शिव रूप ईशान कहलाता है। महादेव-रात्रि में चंद्रमा रूप से धरती पर अमृत वर्षा करता हुआ जगत को प्रकाश और तृप्ति देता हुआ शिवजी का मोहक रूप महादेव कहलाता है। रुद्र जीवात्मा रूप ही रुद्र हैं। जिस प्रकार वृक्ष के मूल में जल सींचने से वृक्ष के पत्र, पुष्प, फल आदि सभी हरे-भरे हो जाते हैं इसी प्रकार जगत के मूल शिवजी का पूजन-अर्चन करने से मनुष्य को संपूर्ण पदार्थ अत्यंत सरलता से प्राप्त हो जाते हैं।
भगवान शिवजी के द्वारा ब्रह्माजी की इच्छा पूरी करने के लिए अर्धनारीश्वर रूप को धारण करने वाला इतिहास बताते हुए नंदीश्वरजी ने कहा कि हे सनत्कुमारजी, जब ब्रह्माजी अपनी मानसी सृष्टि के न बढ़ने के कारण बहुत चिंतित हो उठे तो आकाशवाणी हुई कि सृष्टि का विस्तार तो मैथुन की प्रक्रिया से होगा। लेकिन उस समय भगवान शंकर ने नारी रूप को उत्पन्न ही नहीं किया था इसलिए ब्रह्माजी ने नारी रूप के लिए घोर तप किया। शिवजी इससे प्रसन्न हुए और उन्होंने अर्धनारीश्वर (आधा पुरुष और आधा स्त्री) का शरीर धारण किया।
ब्रह्माजी ने अपनी मनोकामना भगवान शंकर के सामने व्यक्त की तो भगवान शंकर ने अपने स्त्री (शिवा रूप को) अपने से अलग कर दिया। ब्रह्माजी ने इस प्रकार शिवजी की शक्ति को उनसे पृथक हुआ देखकर उस शक्ति की स्तुति की और कहा कि सृष्टि की रचना में उन्हें बहुत कठिनता अनुभव हो रही है। ब्रह्माजी ने भगवती से प्रार्थना की कि वे मैथुनी सृष्टि की रचना में सफलता दिलाने के लिए नारी कुल को प्रकट करें। ब्रह्माजी की बात सुनकर शक्ति ने अपनी भौहों के बीच से एक दूसरी नारी रूप शक्ति को उत्पन्न करके ब्रह्माजी को दे दिया।
शिवजी ने ब्रह्माजी के तप पर प्रसन्न होकर भगवती से यह अनुरोध किया तो शक्ति ने बताया कि वह दक्ष के घर जन्म लेगी और उनकी मैथुनी सृष्टि की इच्छा पूरी करेगी। यह कह शिवा अंतर्ध्यान हो गईं। नंदीश्वरजी ने सनत्कुमार की जिज्ञासा पर ध्यान रखते हुए उन्हें अपने जन्म का वृत्तांत सुनाया। वे बोले. मेरे पिता शिलाद ऋषि ने पुत्र की कामना से बहुत दिनों तक तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर इन्द्र ने उनसे वर मांगने के लिए कहा। इन्द्र के कहने पर मेरे पिता शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन पुत्र देने का वरदान मांगा। इसपर इन्द्र ने कहा कि ऐसा वर देने की क्षमता केवल शिवजी में है। इन्द्र की बात सुनकर शिलादजी ने शिवजी की पूजा शुरू कर दी।
इस पर भगवान शिव ने उन्हें अयोनिज और मृत्युहीन पुत्र प्राप्त करने का वरदान प्रसन्नतापूर्वक दे दिया। शिलाद मुनि घर आए और उनकी यज्ञ की अग्नि से मैं प्रकट हुआ। मुझ त्रिनेत्रधारी, चतुर्भुज और जटा-मुकुटधारी को पुत्र रूप में पाकर मेरे पिता बहुत प्रसन्न हुए। मेरे पैदा होने से आनंदित होकर उन्होंने मेरा नाम नंदी रख दिया। अपने पिता की कुटिया में जाकर मैंने साधारण बालक का रूप धारण किया।
जब मैं सात वर्ष का हो गया तब मित्रावरुण मुझे देखने के लिए आए और इस बात पर आश्चर्य प्रकट करने लगे कि मैंने इतनी छोटी आयु में इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया। उन्होंने मेरे पिता को बताया कि मेरी एक वर्ष की आयु शेष बची है। इससे मेरे पिता बहुत दु:खी और चिंतित हुए। किंतु मैंने अपने पिता को आश्वासन दिया कि मैं भगवान शंकर की स्तुति से मृत्यु जीत लूंगा और यह कहकर मैंने तप करने के लिए महावन की ओर प्रयाण किया।
महावन में जाकर मैंने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए अत्यंत कठोर तप किया और उस तप से प्रसन्न होकर पार्वती सहित भगवान शंकर मेरे सामने प्रकट हुए। मैंने उन्हें प्रणाम करके किर से उनकी स्तुति प्रारंभ की और वे मेरी स्तुति से प्रसन्न हुए। तब उन्होंने बताया कि मित्रावरुण को तो स्वयं भगवान शंकर ने भेजा था। नहीं तो मैं उनका अजर-अमर पुत्र हूं। भगवान शंकर ने गुझे अपने गणों का अधिपति बनाया।
जैसे ही शिवजी ने कृपापूर्वक अपने गले से एक माला निकालकर मेरे गले में डाल दी, मैं तत्काल रुद्र रूप शिव बन गया। शिवजी ने मुझे अपने साथ चिरकाल तक रखने का वर प्रदान किया। समय आने पर मरुत की अत्यंत रूपवती सुयशा नाम की कन्या से मेरा विवाह करा दिया। हम दोनों पति-पत्नी को भगवती पार्वती ने अपने चरणों की भक्ति प्रदान की और हम उन्हीं के पास रहकर उनका गुणगान करने लगे।
नंदीश्वरजी ने भगवान शंकर के संपूर्ण रूप भैरवजी की उत्पत्ति की कथा सुनाई। वे सनत्कुमारजी से बोले कि अनेक लोग ऐसे हैं जो शंकरजी की महिमा को नहीं समझते और भैरवृ को उनका प्रतिरूप नहीं मानते। वास्तव में भैरव भगवान शंकर के ही प्रतिरूप हैं। शिवजी की माया अग्य है। इस अग्म्य माया के संबंध में उसकी वास्तविकता का परिचय कराते हुए में तुम्हें एक पुराना कथानक सुनाता हूं। एक बार ब्रह्माजी सुमेरु पर्वत पर बैठे हुए थे।
देवता लोग उनके पास आए और उनसे अनुरोध किया कि वे अविनाशी तत्त्व के विषय में कुछ बताएं। ब्रह्माजी उस समय शिवजी की माया से मोहित थे इस कारण उस तत्त्व को न जानते हुए भी वे कहने लगे कि-एकमात्र मैं ही संसार को उत्पन्न करने वाला हूं। मैं अनादि भोक्ता हूं, अज, एकमात्र ईश्वर निरंजन और ब्रह्म हूं।
मैं ही सर्वातीत पूर्ण ब्रह्म हूं। वहां विष्णु भी मुनियों की मंडली में विद्यमान थे। उन्होंने ब्रह्माजी को समझाया कि तुम मेरी आज्ञा से ही सृष्टि के रचयिता बने हो। मेरा अनादर करके तुम किस प्रकार अपने आप को प्रभु सिद्ध कर सकते हो। तब ब्रह्मा और विष्णु अलग-अलग रूप से अपना प्रभुत्व स्थापित करने लगे।
जब विष्णु और ब्रह्मा अपना-अपना प्रभुत्व स्थापित करने लगे तो यह निर्णय हुआ कि वेदों से पूछा जाए। चारों वेद मूर्ति धारण करके अपना-अपना मत प्रकट करने के लिए आए। ऋग्वेद ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा कि जिसके भीतर संपूर्ण भूत निहित है और जिससे सब कुछ संचालित होता है वह परम तत्त्व रुद्र ही है। यजुर्वेद ने कहा कि हम वेद भी जिसके द्वारा प्रमाणित होते हैं और जो ईश्वर के संपूर्ण यज्ञों तथा योगों से भजन किया जाता है वह शिव ही है।
सामवेद ने कहा कि जो सारे सांसारिकों को आकर्षित करता है जिसे योगी खोजते हैं और जिसकी शोभा से सारा संसार प्रकाशित होता है वह त्र्यंबक शिव ही है। अथर्ववेद ने कहा कि जिसका साक्षात्कार भक्ति से होता है और जो सुख-दुःखातीत परब्रहम है वह केवल शंकर है।
विष्णुजी ने वेदों के इस कथन के बाद भी कहा कि नित्य शिवा से रमण करने वाले धूलधूसरित वेषधारी, पीतवर्ण सर्पों से घिरे हुए, बैल पर चढ़ने वाले शिवजी को परब्रह्म नहीं माना जा सकता। ओंकारजी ने इस विवाद को सुनकर शिव को ही नित्य और सनातन ज्योतिस्वरूप, परब्रह्म बताया किंतु विष्णु और ब्रह्मा शिवजी की माया से विमोहित थे।
अतः उनका मत नहीं बदला। उसी समय दोनों के बीच एक ऐसी विशाल ज्योति प्रकट हुई जिससे ब्रह्मा का पंचम सिर जलने लगा। थोड़ी देर में ही त्रिशूल धारण करने वाले नीललोहित वहां प्रकट हुए और ब्रह्मा अज्ञान के वशीभूत होकर उन्हें अपना पुत्र बताकर अपनी शरण में आने के लिए कहने लगे।
ब्रह्माजी की गर्वपूर्ण बातों को सुनकर शिवजी क्रोधित हुए और उन्होंने उसी समय भैरव को उत्पन्न किया तथा उसे ब्रह्मा पर शासन करने का आदेश दिया। शिवजी ने भैरव के भीषण होने के कारण तथा काल को भी भयभीत करने वाले उस कालभैरव को जो भक्तों के पापों का नाश करने वाला था उसे पापभक्षक नाम देकर काशी का राजा बना दिया।
इसके बाद कालभैरव ने ब्रह्मा का पंचम सिर अपनी उंगलियों के नाखूनों के अग्र भाग से काट दिया। इस पर ब्रह्मा शतरुद्री पाठ करने लगे। ब्रह्मा और विष्णु को सत्य का ज्ञान हो गया और वे शिवजी की महिमा का गान करने लगे। इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने उन दोनों को अभयदान दिया और भैरव से कहा कि तुम ब्रह्मा के कपाल को धारण करके भिक्षा मांगते हुए वाराणसी चले जाओ, वहां के प्रभाव से तुम ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाओगे।
भैरवजी शिवजी की आज्ञा से हाथ में कपाल लेकर काशी की ओर चलने लगे तो ब्रह्महत्या भी उनके पीछे-पीछे गई। विष्णुजी ने उनकी स्तुति की और माया से मोहित न होने का वरदान मांगा। जब विष्णु ने ब्रह्महत्या को भैरव का पीछा न करने के लिए कहा तो उसने बताया कि वह तो अपने को पवित्र और मुक्त करने के लिए उनके पीछे जा रही है।
जैसे ही भैरव काशी पहुंचे तो उनके हाथ का चिमटा कपाल पृथ्वी पर गिर पड़ा और तब से उस स्थान का नाम कपालमोचन तीर्थ पड़ा। इस तीर्थ में आकर जो व्यक्ति विधिपूर्वक पिंडदान और देवों का तर्पण करता है वह ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है। शिवजी के चरित्र को सुनते हुए और सनत्कुमारजी की श्रद्धाभावना को देखते हुए नंदीश्वरजीने उनके और कई अवतारों के विषय में बताया। इन अवतारों की संख्या अनेक है किन्तु २१ प्रमुख हैं।
शरभ अवतार : विष्णुजी का क्रोध नृसिंह रूप धारण कर हिरण्यकशिपु का वध करने के बाद भी जब शांत नहीं हुआ तो देवों के अनुरोध पर प्रहलाद ने नृसिंह भगवान की स्तुति करके उनको शांत करने की कोशिश की। फिर भी उन्हें सफलता नहीं मिली। तब देवता लोग भगवान शंकर की शरण में आए और भगवान शंकर ने वह दायित्व अपने ऊपर लिया कि वे नृसिंह की ज्वाला को शांत कर देंगे।
शिवजी ने प्रलयंकारी भैरव रूप वीरभद्र का शांत वेष धारण कर नृसिंहजी के पास जाकर उन्हें समझाने का प्रयास किया। वीरभद्र ने जाकर उनसे कहा कि वह आदि देव भगवान शंकर के अनुरोध पर उनका क्रोध शांत करने के उद्देश्य से यह रूप धारण करके आया है। उसने कहा कि आपने जिस काम के लिए यह रूप धारण किया था वह संपन्न हो गया अतः अब आप सामान्य हो जाइए। नृसिंह ने यह सुनकर भी अपने को समस्त शक्तियों का प्रवर्तक बताया और वीरभद्र के वचनों की उपेक्षा की। वीरभद्र के बार-बार समझाने पर भी विष्णु ने अपना क्रोध नहीं छोड़ा।
इस पर शिवजी के कठिन तेज से शरभ रूप प्रकट हुआ और उसने नृसिंह को अपनी भुजाओं में इस प्रकार जकड़ लिया कि वह व्याकुल हो गए। शरभ नृसिंह को उठाकर कैलास पर ले आया और वृषभ के नीचे डाल दिया। उसने नृसिंह के सारे अवयवों को अपने में लय कर लिया। इससे देवताओं का भय दूः हुआ और वे शंकर की स्तुति करने लगे।
गृहपति अवतार : नर्वपुर नाम का एक स्मरणीय नगर नर्वदा नदी के किनारे स्थित था। उसमें शिवजी का भक्त वैश्वानर मुनि रहता था। उसने अपनी पतिव्रता स्त्री की सेवा से प्रसन्न होंकर एक वरदान मांगने के लिए कहा। तब उसने कहा था कि मै महादेव को पुत्र रूप में चाहती हूं। यह सुनकर विश्वानर मुनि ने पत्नी की इच्छा पूरी करने के लिए वीरेश्वर लिंग की काशी में आकर विधिपूर्वक पूजा की। शिवजी प्रसन्न हुए और उन्होंने मुनि को दर्शन दिए तथा उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। मुनि प्रसन्न होकर अपने घर आया। थोड़े समय बाद उंसकी पत्नी ने
एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। उसका नाम गृहपति रखा गया। वह इतना तेजस्वी था कि तीनों लोकों में उसका नाम हो गया। नारदजी ने एक बार आकर उस दिव्य बालक के उज्ज्यल भविष्य की घोषणा की और बताया कि बारह वर्ष की आयु होने पर इस बालक को आग और बिजली का भय रहेगा। इससे माता-पिता चिंतित हुए लेकिन शिवजी की महिमा के कारण वे आश्वस्त हो गए। इधर गृहपति ने काशी में जाकर विश्वेश्वर लिंग की पूजा की। इन्द्र उसके तप से प्रसन्न हुए और उससे वर मांगने के लिए कहा।
लेकिन बालक ने शिवजी के अलावा और किसी से कुछ भी न मांगने की इच्छा व्यक्त की। तब क्रोधित होकर इन्द्र ने उसपर वज से प्रहार किया। बालक मूच्छित हो गया। शिवजी ने अपने हाथ के स्पर्श से उसको सचेत किया और कहा कि उसे कोई चिंता नहीं करनी चाहिए। क्योंकि शिवजी ने ही उसकी परीक्षा के लिए इन्द्र को भेजा था। बालक शिवजी के दर्शन करके प्रसन्न हो गया और शिवजी ने उसे अजर-अमर करके दिशाओं का अधिपति बना दिया।
यक्षेश्वर अवतार : देवताओं के मिथ्या अभिमान और औद्धत्य को दूर करने के लिए शिवजी ने यक्षेश्वर अवतार धारण किया। पुराने समय की बात है कि देवों और दैत्यों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया। उसमें से जब विष निकला तो ब्रह्मा आदि के साथ सभी देवता बहुत चिंतित हुए और शिवजी की सेवा में उपस्थिति हुए। भगवान शंकर ने देवताओं पर कृपा की और विषपान करना स्वीकार किया। विषपान से उनका गला नीला पड़ा गया और वे नीलकंठ महादेव कहे जाने लगे। समुद्र-मंथन में और रत्नों के साथ अमृत का आविर्भाव भी हुआ जिसके लिए देवताओं और दैत्यों में बहुत संघष्ष हुआ। राहु के भय से पीड़ेत होकर चंद्रमा भागे और तब शिवजी ने उन्हें अपने सिर पर धारण किया इससे उनका नाम चन्दशेखर पड़ा।
अमृत पान करने से देवताओं को मद हो आया और वे अपने-आपको अजेय समझने लगे तथा अपने बल की प्रशंसा करने लगे। उनके घमंड को नष्ट करने के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया और उनके सामने आकर उनसे बात करने लगे। जब देवताओं ने उनके सामने अपने बल की प्रशंसा की तो शिवजी ने एक तिनका उनके आगे रख दिया और कहा कि तुम इस तिनके को काटो देवताओं ने अपनी पूरी शक्ति से तिनके को काटना चाहा किंतु उन्हें सफलता नहीं मिली। उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ किंतु तभी आकाशवाणी हुई जिसमें कहा गया कि यह यक्ष भगवान शंकर ही हैं। देवताओं ने यह सुना तो वह सचेत हो गए और अपने अपराध की क्षमा मांगते हुए उन्होंने शिवजी की आराधना की। तब महादेवरी ने देवताओं को ज्ञान दिये और अंतर्ध्यान हो गए।
एकादश रुद्र अवतार : पुराने समय में जब इन्द्र अमरावती छोड़कर भाग गए तब उनके शिवभक्त पिया कश्यप को बड़ा दु:ख हुआ। उन्होंने काशीपुरी में जाकर शिवालेंग की स्थापना की और विश्वेश्वर महादेव का विधिपूवेक पूजन करके अपने तप से प्रसन्न किया। शिवजी उनपर प्रसन्न हो गए और उन्होंने कश्यपजी को विश्वास दिलाया कि वे देवताओं की दैत्य-संबंधी बाधा को दूर करने का प्रयास करेंगे। अपने बचन के अनुसार शिवजी ने अपनी गंध से ११ रुद्रों को उत्पन्न किया। इनके नाम इस प्रकार हैं-कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, शास्त्र, विलोहित, अधिपाद्य, अर्हिबुध्य, शम्भू, चंड तथा भव। इनके जन्म लेने के बाद इनके द्वारा शिवजी ने दैत्यों का विनाश करवाया और देवताओं को उनकी अलकापुरी वापिस दिला
दुर्वासा अवतार : एक समय ऋक्ष नामक पर्वत पर ऋषि अत्रि ने अपनी पत्नी अनसूया के साथ कठोर तप किया। उनके तप से ब्रह्मा. विष्णु और महेश तीनों प्रसन्न हुए और उन्हें एक-एक पुत्र उत्पन्न होने का वर दिया। इस वर के अनुसार ब्रहा के अंश से चंद्रमा, विष्णु के अंश से दुर्वासा को अनसूया ने अपने उदर से उत्पन्न किया। यही दुर्वासा एक बार अंबरीष की परीक्षा लेने गए। अंबरीष ने द्वादशी तिथि के आने पर अतिथि के रूप में आए और नहाने गये हुए दुर्वासा के लौटने की प्रतीक्षा किए बिना पारायण कर लिया।
यह जानकर द्वर्वासा क्रोध से पागल हो गए। उनके अकारण क्रोध पर राजा की रक्षा के लिए जैसे ही सुदशेन चक्र दुर्वासा की ओर बढ़ा वैसे ही आकाशवाणी के द्वारा दुर्वासा के वास्तविक रूप को जानकर वह रुक गया और फिर उसने शिव रूप दुर्वासा की स्तुति की। अंबरीष ने भी दुर्वासा की वास्तविकता को जान लिया था। इसलिए उसने दुर्वासा की पूजा की और दुर्वासा ने प्रेमपूर्वक अंबरीष के यहां भोजन किया।
एक समय की बात है कि दुर्वासाजी ने रामचंद्रजी की परीक्षा ली। वे नियम के अनुसार रामचंद्र से एकांत में वातालाप कर रहे थे। राम और दुवोसा के बीच लक्ष्मण आ पहुंचे। बीच में आने के कारण राम ने लक्ष्मण को त्याग दिया। रामचंद्र के इस नियम से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उन्हें वरदान दिया।
इसी तरह एक बार कुष्ण की भी दुर्वासा ने परीक्षा ली थी और उनकी ब्राह्मण भक्ति पर प्रसन्न होकर उन्हें वज़ के समान दृढ़ तथा शक्तिशाली अंग वाला होने का वरदान दिया। इसी रूप में द्रौपदी ने जब एक बार नग्न स्नान करते हुए दुर्वासा को अपनी साड़ी का एक टुकड़ा दिया था जिसको पहनकर वह जल से बाहर निकले थे तब उन्होंने संकट के समय द्रौपदी को वस्त्र बढ़ने का वरदान दिया था। इस प्रकार शिवजी का दुर्वासा रूप अवतार अनेक अद्भुत कार्य करता रहा।
महेश अवतार : एक बार शिवजी भैरव को द्वारपाल के रूप में नियुक्त करके स्वयं विहार करने के लिए पार्वती के साथ अंदर चले गए। शिवरी को प्रसन्न करके उन्मत्त रूप में पार्वती जब दरवाजे के बाहर आईं तो भैरव ने उनके अनुपम रूप-सौंदर्य पर मुग्ध होकर आसक्ति भाव अनुभव किया। पार्वती ने भैरव के मन की विकृति जान ली और उसे मनुष्य योनि में पृथ्वी पर पैदा होने का शाप दे दिया।
जब भैरव को आत्मज्ञान हुआ तो उसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वह पावेती की वंदना करने लगा। उसकी वंदना से प्रसन्न होकर भगवती के अमिट शाप के होते हुए भी उनकी इच्छा से उसे मनुष्य योनि में वैताल बनना पड़ा। इधर शिवजी ने भी उसके स्नेह से मुग्ध होकर पार्वती सहित लौकिक गति के रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया। यहां पृथ्वी पर पार्वती का नाम शारदा और शिवजी का नाम महेश पड़ा।
हनुमान अवतार : जब शिवजी ने विष्णु के मोहिनी रूप को देखा तो अपनी लीलावश अपना वीर्यपात कर दिया। तब सप्त ऋषियों ने उसे कुछ पत्तों पर स्थापित कर गौतम की पुत्री अंजनी के गर्भ में प्रवेश कराया। इससे प्रवर पराक्रमी है तेजस्वी हनुमानजी उत्पन्न हुए। बचपन में सूर्य को छोटा-सा फल समझकर जैसे ही हनुमानजी उसे अपने मुंह में डालने लगे तो देवताओं की प्रार्थना पर उसे छोड़ दिया।
हनुमानजी ने सारी विद्याओं का अध्ययन किया और सुग्रीव के मंत्री बन गए जो अपनी पत्नी के वियोग से व्याकुल होकर ऋष्यमूक पर्वत पर रहता था। इन्हीं हनामानजी ने पत्नी के वियोग में भटकते हए श्री रामचंद्रजी की सूग्रीव से मित्रता कराई और वह सती सीता की खोज में समुद्र पार कर लंका गए। वहां उन्होंने अद्भुत पराक्रम दिखाया। उन्होंने राक्षसों का वध किया. लंका को जला दिया और सीताजी को सुरक्षा का दृढ़ आश्वासन देकर राम के पास लौट आए। रामचंद्रजी ने शिवजी का पूजन करके समुद्र पार किया और रावण से युद्ध किया। इस युद्ध में हनुमान ने राम की बहुत सहायता की। जब लक्ष्मण मूच्छित हो गए तो हनुमान ने ही संजीवनी बूटी लाकर उन्हें सचेत किया और अहिरावण को मारकर लक्ष्मण सहित राम को बंधन से मुक्त किया। हनुमान ने ही राम का संकट नष्ट करके राम और सीता का मिलन कराया।
वृषभ अवतार : पुरा काल में देवता और दैत्य मृत्यु, बुढ़ापा और रोग से चिंतित होकर शिवजी की शरण में आए। तब उन्होंने देवता और दैत्यों को यह परामर्श दिया कि वासुकि को रस्सी बनाकर क्षीरसागर का मंथन करें और मंदराचल पवेत को मथानी बनाएं। शिवजी की सहायता से देवता और दैत्य दोनों अपने इस काम में सफल हुए। समुद्र मंथन में १४ रत्न प्राप्त हुए-लक्ष्मी. चंद्रमा, पारिजात, शंख. कामधेनु, कौत्सुभ मणि, अमृत, धनवंतरि, उच्चेश्रवा. मदिरा, विष शार्ग, कल्पवृक्ष और ऐरावत। इन रत्नों का देवता और दैत्यों ने यथारूप वरण किया।
दैत्यों ने बलपूर्वक देवताओं से अमृतकलश छीन लिया और अपने अधिकार में कर लिया। जब देवता पराजित हो गए तो उन्होंने शिवरी से प्रार्थना की। तब शिवर्जी की आज्ञा से विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण करके दैत्यों से अमृत छीनकर देवताओं को पिलाया। इस पर दैत्यों ने बहुत उत्पात मचाया किंतु विष्णु के द्वारा देवताओं की रक्षा हुई। कुछ दैत्य अपनी रक्षा के लिए पाताल लोक में चले गए। विष्णु ने वहां भी उनका पीछा किया। वहां उन्होंने देखा कि अनेक चंद्रमुखी स्त्रियां विद्यमान हैं। विष्णुजी ने उन सबके साथ रमण करके युद्ध में कुशल अनेक पुत्र उत्पन्न किए। इन पुत्रों ने पृथ्वी पर बहुत उत्पात मचाया। इनके उत्पात से परेशान होकर मुनि लोग ब्रह्माजी को साथ लेकर शिवजी के पास गए और उनसे प्रार्थना की।
ब्रह्मा और मुनियों की प्रार्थना पर शिवजी ने वृषभ का रूप धारण करके पाताल के विवर में प्रवेश किया। वहां उन्होंने भीषण गर्जन किया। विष्णु के पुत्रों ने शिवजी पर आक्रमण किया। इस पर वृषभ वेषधारी शिवजी ने अनेक विष्णु पुत्रों को नष्ट कर दिया। अनेक को पराजित करते हुए बहुतों को मार डाला। विष्णु भी शिवजी की वास्तविकता न समझने के कारण उन पर आक्रमण करने लगे। इस पर शिवजी ने अपने को न पहचानने वाले विष्णु पर भीषण आक्रमण किया और अपने सींगों से उन्हें विदीर्ण कर दिया।
जब विष्णु ने वृषभ की वास्तविकता को पहचान लिया तो उन्होंने शिवजी की स्तुति की और उन्हें प्रसन्न किया। विष्णु ने कहा कि हे प्रभु! मैं आपकी माया से विमोहित होकर आपसे युद्ध कर बैठा हूं। किंतु सेवक और स्वामी का युद्ध नहीं होता है। शिवजी ने विष्णु वे अज्ञान के कारण उन पर क्रोध व्यक्त किया और विष्ण लज्जित हुए तथा अपमानित होकर वहां से जाने लगे। शिवजी ने उन्हें रोका और उनका चक्र वहां पर रखवा लिया किंतु उन्हें दूसरा चक्र प्रदान किया। इसके बाद विष्णुजी ने शिवजी से कहा कि इन रमणियों से जो चाहे रमण करे तो शिवजी ने इसका विरोध किया तब उन्होंने स्वयं उन पर शासन किया और विष्णु के दर्प का दलन करके वे वापस लौट आए।
पिप्पलाद अवतार : एक समय देवताओं को वृत्रासुर ने पराजित कर दिया था तो देवता लोग ब्रह्माजी के परामर्श से दधीचि के आश्रम में आए और उनकी सेवा की। दधीचि ने अपनी पत्नी सुवेचा को घर भेजकर देवताओं से उनके आने का कारण पूछा। देवताओं ने बताया कि वे उनकी अस्थियां मांगने आए हैं। दधीचि ने शिवजी का ध्यान करके अपना शरीर त्याग दिया और इन्द्र जल्दी ही कामधेनु से उनकी अस्थियां निकलवाकर और त्वष्टा के निरीक्षण में विश्वकर्मा को वज रूप अस्त्र बनाने का आदेश दिया। बाद में इन्द्र ने इस वज्ञ से वृत्रासुर का वध किया था।
जब दधीचि की पतिव्रता पत्नी घर से बाहर आई और उसने अपने पति को नहीं देखा तथा सारे वृत्तांत का उसे पता चला तो वह अग्नि में ज़लने के लिए तैयार हो गई। इसी समय आकाशवाणी हुई जिसमें कहा गया कि मुनीश्वर का तेज तुम्हारे गर्भ में विद्यमान है। इसलिए तुम आत्मदाह का विचार छोड़ दो। सुर्वचा ने दुःखी होकर देवताओं को पशु होने का शाप दिया और अपने गर्भ को पत्थर से तोड़ डाला। उसके गर्भ से दिव्य कांति वाला बालक उत्पन्न हुआ। सुर्वचा ने उसे साक्षात् शिव समझा और प्रणाम किया। सुर्वचा ने बालक रूप शिव से प्रार्थना की कि वे पीपल के मूल में निवास करें और उसे पति लोक में जाने की आज्ञा दें। इतना कहकर वह समाधिस्थ हो गई और अपने पाते के पास चली गइं। इधर
ब्रह्मा आदि सभी देवताओं ने शंकरजी के नये अवतार को जानकर प्रसन्नता प्रकट की। ब्रह्मा ने उसका नाम पिप्पलाद रखा और अपने लोक को चले गए। पिप्पलाद मुनि के रूप में शिवजी ने अनेक लीलाएं कीं और फिर अपने लोक लौट आए। वैश्यनाथ अवतार : पुराने समय की बात है कि सुनंदा नाम की एक रूपवती वेश्या नंदीग्राम में रहती थी। वह अपने व्यवसाय को जीते हुए भी शिवजी की भक्त थी और रुद्राक्ष तथा विभूति धारण करके शिव के नाम जपने में हमेशा तन्मय रहती थी।
एक दिन शिवजी एक वैश्य का रूप धारण कर उसकी परीक्षा लेने गए। उनके पास एक सुंदर कंगन था जिसको प्राप्त करने के लिए वेश्या पागल हो गई। उसने उस कंगन को लेना चाहा और अपने धर्म के अनुसार उसने यह प्रस्ताव किया कि वह कंगन के मूल्य के रूप में तीन दिन और तीन रात उस वैश्य की पत्नी बनकर उसके साथ रमण करेगी। वैश्य रूपधारी शिवजी ने इस बात को स्वीकार कर लिया। सुनंदा ने कंगल लेकर अतिथि वैश्य को एक बहुत सुंदर सेज पर सुला दिया। इतने में ही घर में आग लग गई। इसकी सूचना पाकर वह व्याकुल हो गई। उसने यह जाना कि उस आग में कंगन जल गया। उस कंगन के कारण वैश्य ने चिता बनवाकर आत्मदाह कर लिया।
वैश्य के जलने के कारण सुनंदा अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर पाई। इस कारण वह भी व्याकुल हो उठी और अपने प्राणों का विसर्जन करने को आतुर हो गई। उसकी इस निष्ठा को देखकर शिवजी अपने रूप में प्रकट हुए और अपने दिव्य दर्शनों से उसे कृतार्थ कर वर मांगने के लिए कहा। सुनंदा ने उनके चरणों में गिरकर उनसे नित्यप्रति भक्ति का वरदान मांगा, शिवजी ने ‘तथास्तु’ कहकर वह वर दिया।
द्विजेश्वर अवतार : पुराने समय की बात है कि भद्रायु अपनी पत्नी सीमंती के साथ वन-विहार के लिए गया। उसी वन में शंकर और पार्वती भी द्विज दंपति के रूप में वन-विहार के लिए पहुंच गए। वहां एक मृगराज अचानक प्रकट हुआ। उससे शिवजी डर गए और अपनी रक्षा के लिए उस राजा की शरण में गए। राजा ने अपने भयंकर अस्त्रों से उस मृगराज पर आक्रमण किया, लेकिन उसका आक्रमण निरर्थक सिद्ध हुआ और वह ब्राह्मण की स्त्री को मुंह में दबाकर भाग गया।
यह देखकर ब्राह्मण ने राजा को बहुत बुरा-भला कहा और अपनी पत्नी के वियोग में जल मरने के लिए तैयार हो गया। राजा ने उससे प्रार्थना की कि ऐसा न करें। तब ब्राह्मण ने राजा के सामने एक शर्त रखी कि वह उसकी पत्नी के बदले अपनी प्रधान रानी को ब्राह्मण को दान में दे। राजा ने शरणागत की रक्षा न करने की पाप भावना से, मुक्ति पाने के लिए अपनी पत्नी को ब्राह्मण को देने का निश्चय किया। लेकिन इस दान का संकल्प करके भद्रायु स्वयं चिता में जलने के लिए तैयार हो गया। तब शिवजी ने अकस्मात् प्रकट होकर उसे वास्तविकता का ज्ञान कराया तथा बताया कि उसकी पत्नी वस्तुतः पार्वती हैं और सिंह माया निर्मित है।
यतिनाथ अवतार : आहुका नामक एक शिवभक्त भील दंपति अबुदाचल पवेत ब्रह्मा आदि सभी देवताओं ने शंकरजी के नये अवतार को जानकर प्रसन्नता प्रकट की। ब्रह्मा ने उसका नाम पिप्पलाद रखा और अपने लोक को चले गए। पिप्पलाद मुनि के रूप में शिवजी ने अनेक लीलाएं कीं और फिर अपने लोक लौट आए। वैश्यनाथ अवतार : पुराने समय की बात है कि सुनंदा नाम की एक रूपवती वेश्या नंदीग्राम में रहती थी। वह अपने व्यवसाय को जीते हुए भी शिवजी की भक्त थी और रुद्राक्ष तथा विभूति धारण करके शिव के नाम जपने में हमेशा तन्मय रहती थी। एक दिन शिवजी एक वैश्य का रूप धारण कर उसकी परीक्षा लेने गए।
उनके पास एक सुंदर कंगन था जिसको प्राप्त करने के लिए वेश्या पागल हो गई। उसने उस कंगन को लेना चाहा और अपने धर्म के अनुसार उसने यह प्रस्ताव किया कि वह कंगन के मूल्य के रूप में तीन दिन और तीन रात उस वैश्य की पत्नी बनकर उसके साथ रमण करेगी। वैश्य रूपधारी शिवजी ने इस बात को स्वीकार कर लिया। सुनंदा ने कंगल लेकर अतिथि वैश्य को एक बहुत सुंदर सेज पर सुला दिया। इतने में ही घर में आग लग गई। इसकी सूचना पाकर वह व्याकुल हो गई।
उसने यह जाना कि उस आग में कंगन जल गया। उस कंगन के कारण वैश्य ने चिता बनवाकर आत्मदाह कर लिया। वैश्य के जलने के कारण सुनंदा अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर पाई। इस कारण वह भी व्याकुल हो उठी और अपने प्राणों का विसर्जन करने को आतुर हो गई। उसकी इस निष्ठा को देखकर शिवजी अपने रूप में प्रकट हुए और अपने दिव्य दर्शनों से उसे कृतार्थ कर वर मांगने के लिए कहा। सुनंदा ने उनके चरणों में गिरकर उनसे नित्यप्रति भक्ति का वरदान मांगा, शिवजी ने ‘तथास्तु’ कहकर वह वर दिया।
द्विजेश्वर अवतार : पुराने समय की बात है कि भद्रायु अपनी पत्नी सीमंती के साथ वन-विहार के लिए गया। उसी वन में शंकर और पार्वती भी द्विज दंपति के रूप में वन-विहार के लिए पहुंच गए। वहां एक मृगराज अचानक प्रकट हुआ। उससे शिवजी डर गए और अपनी रक्षा के लिए उस राजा की शरण में गए। राजा ने अपने भयंकर अस्त्रों से उस मृगराज पर आक्रमण किया, लेकिन उसका आक्रमण निरर्थक सिद्ध हुआ और वह ब्राह्मण की स्त्री को मुंह में दबाकर भाग गया।
यह देखकर ब्राह्मण ने राजा को बहुत बुरा-भला कहा और अपनी पत्नी के वियोग में जल मरने के लिए तैयार हो गया। राजा ने उससे प्रार्थना की कि ऐसा न करें। तब ब्राह्मण ने राजा के सामने एक शर्त रखी कि वह उसकी पत्नी के बदले अपनी प्रधान रानी को ब्राह्मण को दान में दे। राजा ने शरणागत की रक्षा न करने की पाप भावना से, मुक्ति पाने के लिए अपनी पत्नी को ब्राह्मण को देने का निश्चय किया। लेकिन इस दान का संकल्प करके भद्रायु स्वयं चिता में जलने के लिए तैयार हो गया। तब शिवजी ने अकस्मात् प्रकट होकर उसे वास्तविकता का ज्ञान कराया तथा बताया कि उसकी पत्नी वस्तुतः पार्वती हैं और सिंह माया निर्मित है।
यतिनाथ अवतार : आहुका नामक एक शिवभक्त भील दंपति अबुदाचल पवेत के पास रहते थे। एक समय खाने की खोज में आहुक बहुत दूर निकल गया। जब वह थककर घर आया तो यति के रूप में शिवजी उसके घर आए हुए थे। उसने उनका पूजन किया और यति ने रात उसके यहां व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की तो भील संकोच में पड़ गया। आहुका ने गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए यह प्रस्ताव रखा कि यति घर में विश्राम करे और आहुक बाहर रहकर देखभाल करे।
आहुक ने यह बात मान ली और यति को घर में रहने की अनुमति दे दी। वह धनुष-बाण लेकर बाहर रक्षा करने लगा। प्रातःकाल आहुका और यति ने देखा कि आहुक को पशु खा गए। आहुका ने कहा कि मैं चिता में जलकर अपने पति के पास पहुंच जाऊंगी। जब आहुका चिता में जलने लगी तो शिवजी ने प्रकट होकर उसे दर्शन दिए और वरदान दिया। इस वरदान से ही अगले जन्म में आहुक राजा नल बना और आहुका दमयंती।
अवधूतेश्वर अवतार : एक समय अन्य देवताओं को साथ लेकर बृहस्पति और इन्द्र शंकरजी के पास आए। शिवजी ने इन्द्र की परीक्षा लेने के लिए अवधूत का रूप धारण कर लिया और उसका मार्ग रोका। जब इन्द्र ने उसका परिचय पूछा तो भी वह चुप रहा। इस पर इन्द्र ने अवधूत पर प्रहार किया। वह अपना वज्ज छोड़ना ही चाहता था कि वह जड़ हो गया। तब बृहस्पति ने शिवजी को पहचान लिया और उनकी आराधना की। शिवजी ने प्रसन्न होकर इन्द्र को क्षमा कर दिया।
सुरेश्वर अवतार : व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के यहां रहता था। वह हमेशा से पीड़ित रहता था और उसको दूध आदि भी ठीक तरह से नहीं मिलते थे। उसकी माता ने अभाव की पूर्ति के लिए पुत्र को शिवजी की शरण में जाने के लिए कहा। उपमन्यु ने ‘ॐ नमः शिवाय’ का जप किया और शिवजी को प्रसन्न किया। शिवजी ने इन्द्र का रूप धारण कर उसे दर्शन दिए और शिवजी की बुराई करते हुए अपने से वर मांगने के लिए कहा। लेकिन उपमन्यु इस पर क्रोधित हो उठा और इन्द्र को मारने दौड़ा। इस प्रकार शिवजी ने उपमन्यु के मन में अपने लिए अटूट भक्ति और श्रद्धा देखकर उसे अपने रूप के दर्शन कराए और क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर प्रदान किया।
कृष्णदर्शन अवतार : एक समय इक्ष्वाकु वंश में श्राद्ध देव की नौवीं पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। नभग विद्याध्यन के लिए गए और गुरुकुल से बहुत देर तक वापस नहीं आए, तब छोटे भाइयों ने राज्य का आपस में विभाजन कर लिया और नभग का किसी को भी ध्यान नहीं रहा। जब वह लौटकर आए तब उन्हें कहा गया कि उनका भाग तो पिता के पास है, किंतु पिता ने भी इस बात को असत्य बताया तथा उन्हें कहा गया कि यदि उन्हें समृद्ध होना है तो वह यज्ञ को संपन्न करें और ब्राह्मणों के मोह को दूर करके उससे समृद्धि मांगें।
नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर विश्व देव सूक्त से भगवान शंकर की आराधना और पूजन किया। उसने यज्ञ संपन्न कराया। आंगिरस ब्राह्मण यज्ञ का शेष धन नभग को देकर स्वर्ग चले गए। इसी समय शिवजी ने कृष्ण रूप में दर्शन देकर नभग की परीक्षा ली और कहा कि शेष धन पर इनका अधिकार है। जब विवाद बढ़ा तब शिवजी ने उसके पिता से निर्णय कराने के लिए कहा। श्राद्ध देव ने कहा कि यह पुरुष भगवान शंकर हैं और यज्ञ में शेष वस्तु उन्हीं की है। यदि वे चाहें तो तुम इसे पा सकते हो। पिता के वचनों को सुनकर नभग ने अनेक प्रकार से शिवजी की पूजा की और उनके दिए हुए ज्ञान से उनकी सद्गति हुई।
भिक्षुवर्य अवतार : एक समय की बात है कि विदर्भ के नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला और उनकी गर्भवती पत्नी ने कठिनता से अपने प्राण बचाए। समय पर उसके पुत्र उत्पन्न हुआ और जब रानी तालाब के किनारे पानी पीने गई तो वहां एक घड़ियाल के द्वारा निगल ली गई। उसका पुत्र भूख-प्यास से चिल्लाने लगा तब वहां शिवजी की माया से विमोहित एक भिखारिन पहुंची और उसे बालक पर दया आ गई। शिवजी ने भिक्षुक रूप धारण कर उसे बालक के विषय में बताया और कहा कि वह इसका पालन-पोषण करे। यह बालक शिवभक्त विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है। शिवजी ने भिक्षुणी को अपने योग के दर्शन कराए। भिक्षुणी ने उनकी आज्ञा से बालक का पालन-पोषण किया जो बड़ा होकर शिवजी की कृपा का पात्र बना।
ब्रह्मचारी अवतार : यह अवतार भगवान शंकर ने पार्वती की परीक्षा लेने के लिए लिया था। जब सती ने हिमालयराज के यहां जन्म लिया और शिवजी को पाने के लिए तपस्या की तब पहले तो शिवजी ने सप्तर्षियों को परीक्षा के लिए भेजा और बाद में ब्रह्मचारी के रूप में स्वयं गए। ब्रह्मचारी के रूप में उन्होंने शिवजी की बुराई की जिसे सुनकर पार्वती ने ब्रह्मचारी को बहुत बुरा-भला कहा। शिव ने प्रसन्न होकर अपने दर्शन दिए और फिर पार्वती से विवाह कर लिया।
किरात अवतार : अर्जुन ने शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तप किया। जब दुर्योधन को पता चला तो उसने मूक दैत्य को बाधा डालने के लिए भेजा। उसने सुअर का वेष धारण करके अर्जुन पर आक्रमण किया। दूसरी तरफ भगवान शंकर ने अपने भक्त की रक्षा के लिए सुअर पर बाण चलाया। इस समय शंकर किरात का वेष धारण किए हुए थे।
अर्जुन ने शिव को न पहचान कर कहा कि यह सूअर मेरे द्वारा मारा गया है जबकि किरात वेषधारी शिव ने उस पर अपना अधिकार जमाया। इस बात पर दोनों में भयंकर युद्ध छिड़ गया। अर्जुन के सारे शस्त्र बेकार हो गए, निराश होकर वह फिर शिव की आराधना में लग गया। जब उसने देखा कि उसके द्वारा डाली गई शिवजी की मूर्ति की माला किरात के गले में पड़ी है तो उसे वास्तविकता का ज्ञान हो गया। और इतने में ही शिवजी ने उसे अपने दिव्य रूप के दर्शन कराए और पाशुपत अस्त्र दिया।
नटनर्तक अवतार : जिस समय तप में लीन पार्वती को शिवजी ने दर्शन दिए और उसके पिता से विधिवत उसे मांगने की प्रार्थना स्वीकार की तो भगवान शंकर ने नटनर्तक का रूप धारण किया। उन्होंने बायें हाथ में लिंग धारण किया और दायें हाथ में डमरू लिया और बहुत सुंदर नृत्य किया। उनके नृत्य से वहां पर उपस्थित सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए। तब मैना स्वयं रत्न का थाल भरकर वहां उसे देने के लिए आईं।
परंतु शिवजी ने भिक्षा में पार्वती को मांगा तो मैना बहुत क्रुद्ध हुईं। इतने में ही वहां पर हिमाचल राज आ गए और वह भी नर्तक की मांग पर बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने अपने नौकरों को उसे निकाल देने के लिए आज्ञा दी किंतु नौकर ऐसा नहीं कर पाए। कुछ देर बाद नर्तक वेषधारी शिवजी ने पार्वती को अपना रूप दिखाकर अपने आप चले गए। उनके चले जाने के बाद मैना और हिमाचल को वास्तविकता का ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निर्णय किया।
विभु अश्वत्थामा अवतार : बृहस्पति के पौत्र और भारद्वाज के अयोनिज पुत्र द्रोणाचार्य ने शिवजी को अपने तप से प्रसन्न किया और उनसे तेजस्वी पुत्र मांगा। फलस्वरूप यथासमय अश्वत्थामा का जन्म हुआ जिसके बल पर कौरवों को बहुत गर्व हुआ। अश्वत्थामा ने कृष्ण अर्जुन आदि के देखते-देखते पांडवों को परास्त किया। जब उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो अर्जुन ने शैवास्त्र का प्रयोग करके उसे शांत कर दिया। अश्वत्थामा ने शिवजी के अस्त्र से उत्तर के गर्भस्थ शिशु को निर्जीव कर दिया लेकिन फिर भगवान श्रीकृष्ण ने शिवजी की कृपा से उसे पुनर्जीवित किया। इसके उपरांत श्रीकृष्ण और सभी पांडवों ने अश्वत्थामा का पूजन किया।
साधु अवतार : जब हिमांचल राज ने अपनी पुत्री पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय कर लिया तब देवताओं को ईर्ष्या होने लगी और उन्होंने यह सोचा कि कहीं पर्वतराज शिवजी की कृपा से निर्वाण पथ का अधिकारी न हो जाए। यदि उसे शिवजी की कृपा से सारे रत्न मिल गए तो पृथ्वी की रत्नगर्भा संज्ञा व्यर्थ हो जाएगी। इसपर उन्होंने बृहस्पति से मंत्रणा करके ब्रह्माजी के पास जाने का निश्चय किया और वहां शिवजी की निंदा करके हिमाचल को अपने निश्चय से अलग होने का अनुरोध करने लगे। ब्रह्माजी ने शिवजी की निंदा करने से मना कर दिया। लेकिन देवताओं के बहुत प्रार्थना करने पर ब्रह्माजी ने कहा कि कोई भी देवता ऐसा नहीं कर सकता।
तुम स्वयं शिवजी के पास जाओ और उनसे अपनी निंदा करने के लिए प्रार्थना करो। इस पर शिवजी ने साधु का वेष धारण किया और हिमालयराज के पास जाकर अपनी निंदा की। हिमाचल ने पहले तो साधु का स्वागत किया लेकिन बाद में उसने अपने को ज्योतिषी बताकर शिवजी का विरूप वर्णन किया और यह भी कहा कि पार्वती ऐसे व्यक्ति के साथ कैसे सुख से रहेगी। लेकिन पर्वतराज उस बात से विचलित नहीं हुए।
उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह शिवजी से किया। इस प्रकार नंदीश्वर के पूछने पर सनत्कुमारजी ने शिवजी के कुछ अवतारों का संक्षिप्त वर्णन किया और उनके पूछने पर सनत्कुमारजी से नंदीश्वरजी ने बताया सर्वव्यापक भगवान शंकर के बारह ज्योतिर्लिंग कहे जाते हैं। इनमें नौ बहुत प्रमुख हैं : बारह ज्योतिर्लिंग इस प्रकार हैं :
१. सौराष्ट्र में सोमनाथ।
२. श्री शैल में मल्लिकार्जुन। यह भृगु कक्ष स्थान पर विद्यमान है और उपलिंग के रूप में इसे रुद्रेश्वर कहते है।
३. उज्जयिनी में महाकालेश्वर। यह नर्मदा तट पर स्थित है और इसका उपलिंग दुध्धेश कहा जाता है।
४. विंध्याचल में ओंकारेश्वर। यह बिंदु सरोवर पर स्थित है और कर्दमेष इसका उपलिंग है।
५. हिमालय पर्वत पर केदारनाथ। यह यमुना तट पर स्थित है और इसका उपलिंग भूतेश कहलाता है।
६. डाकिनी में भीम शंकर-यह सह्याद्रि में स्थित है और इसका उपलिंग भीमेश्वर कहलाता है।
७. काशी में विश्वनाथ।
६. अंबिकेश्वर। यह गौतम-तट पर स्थिथ है।
६. अयोध्यापुरी में नागेश्वर-यह सरस्वती तट पर स्थित है और भूतेश्वर इसका उपलिंग है।
१०. चिता भूमि में वैद्यनाथ।
११. सेतुबंध में रामेश्वर।
१२. देवसरोवर में घुश्मेश्वर। इसका स्थान शिवालय है और व्याघ्रेश्वर इसका उपलिंग है।
नंदीश्वरजी ने इन ज्योतिर्लिंगों की पूजा का फल बताते हुए कहा कि सोमनाथ का पूजन करने से क्षय और कुष्ठ आदि रोग दूर होते हैं। मल्लिकार्जुन के दर्शन से मनवांछित फल मिलते हैं। महाकालेश्वर के दर्शन से सभी कामनाओं की पूर्ति होती है और उत्तम गति प्राप्त होती है। ओंकार लिंग भक्तों को वांछित फल देता है। केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग नर-नारायण भूत हैं और अभीष्ट फल देने वाला है। भीमशंकर भक्तों को सभी कुछ देने वाले हैं और विश्वेश्वर लिंग भक्ति और मुक्ति प्रदान करता है।
काशी विश्वनाथ के पूजक कर्म-बंधन से मुक्त होकर मोक्ष के भागी बनते हैं और इसी प्रकार अंबिकेश्वर के दर्शन से कामनाओं की पूर्ति होती है। वैद्यनाथ के पूजन से रोग की निवृत्ति होती है और सुखों में वृद्धि होती है। नागेश ज्योतिर्लिंग से पाप नष्ट होते हैं। रामेश्वर मुक्ति के प्रदाता हैं। वे सभी भक्तों की कामनाओं को पूरा करते हैं और घूश्मेश्वर इस संसार के सुखों को प्राप्त कराते हैं।